ज्योति सिडाना
समाज में लैंगिक भेदभाव केवल भारत का नहीं, पूरी दुनिया का यथार्थ है। लड़कियों को अधिकतर अधिकार बहुत संघर्ष के बाद ही मिल पाए हैं, पर अब भी उन्हें समाज में सुरक्षा का अधिकार नहीं मिल पाया है। आए दिन सड़कों, ट्रेनों, बसों, घरों, खेतों, दफ्तरों में लड़कियां वह सब झेलने को मजबूर होती हैं, जो संवैधानिक दृष्टि से अनैतिक और गैरकानूनी है, पर समाज में खुलेआम प्रतिदिन होता है। मानो उन्हें सामाजिक वैधता प्राप्त हो।
अश्लील फब्तियां, छेड़छाड़, गलत तरीके से छूना, दुर्व्यवहार, शारीरिक और मानसिक हिंसा, बलात्कार आदि। लड़कियां ऐसी प्रताड़नाओं का रोज सामना करती हैं। ऐसा भी नहीं कि इन व्यवहारों के विरुद्ध कानून नहीं हैं, लेकिन वे इतने मजबूत नहीं हैं कि इन घटनाओं को रोक सकें। कभी राजनीति, तो कभी पैसा, शक्ति और भाई-भतीजावाद इस तरह के कानून पर हावी हो जाते हैं। समाज में बढ़ती ऐसी घटनाओं को देखकर लगता नहीं कि इन्हें खत्म करने की कोशिश भी की जा रही है। सिर्फ नारों और विज्ञापनों से समाज की सोच नहीं बदल सकती। इसके लिए नए सिरे से पुरुष सत्तात्मक समाज का समाजीकरण करने की आवश्यकता है।
पिछले दिनों बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के आइआइटी परिसर में एक छात्रा रात में अपने दोस्त के साथ घूम रही थी, तभी तीन बाइक सवार बदमाशों ने उसके साथ बदसलूकी की और बंदूक की नोंक पर उसे निर्वस्त्र कर वीडियो बनाया। बनारस, चंडीगढ़ और दिल्ली के विश्वविद्यालयों में ऐसी घटनाओं का होना कोई नई बात नहीं है। पहले भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं।
मगर कुछ दिन के हंगामे के बाद इन्हें सब भूल जाते हैं। स्त्रीवादी लेखिका कमला भसीन कहती हैं कि पितृसत्ता के खिलाफ आवाज न उठाने वालों को इससे मिलने वाले फायदे इतने पसंद आते हैं कि वे इसकी बुराई देखते ही नहीं हैं। इसलिए स्पष्ट है कि जब किसी को इन घटनाओं में बुराई दिखाई ही नहीं देगी, तो वे इनको रोकने का प्रयास कैसे करेंगे।
जिस परिसर में घटना घटती है, केवल वहीं के कुछ छात्र कुछ दिन चिल्लाते, प्रदर्शन करते हैं, मीडिया में खबर प्रकाशित होती है और फिर सब जगह खामोशी पसर जाती है। अगले दिन फिर कोई नई घटना चर्चा में आती है। इसी तरह महिलाओं के विरुद्ध हिंसा और दुर्व्यवहार निरंतर जारी है। हैरानी की बात है कि ये सभी जगहें शिक्षा का मंदिर हैं, जहां मनुष्य को एक सभ्य नागरिक बनने की शिक्षा दी जाती है, उन्हें शोषण और दमन के विरुद्ध आवाज उठाना सिखाया जाता है और ज्ञान रूपी शस्त्र से सशक्त बनाया जाता है। अगर वहां ऐसी घटनाओं को नहीं रोका जा सकता, तो शेष समाज में क्या होता होगा, कल्पना की जा सकती है।
पेरियार ईवी रामासामी ने कहा था कि पुरुष सत्ता और पूंजीवाद दोनों के विनाश के बिना किसी आधुनिक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता है। पुरुषों द्वारा महिलाओं को गुलाम समझने की प्रवृत्ति पर वे लिखते हैं कि पुरुष के लिए एक महिला उसकी रसोइया, उसके घर की नौकरानी, उसके परिवार या वंश को आगे बढ़ाने के लिए प्रजनन का साधन है और उसे संतुष्ट करने के लिए एक सुंदर ढंग से सजी गुड़िया है।
उनका यह तर्क आज भी सत्य सिद्ध होता है, क्योंकि जब भी समाज में महिलाओं के विरुद्ध दुर्व्यवहार या हिंसा की कोई घटना चर्चा में आती है तो अधिकांश नेता और अभिनेता यह कहते सुने जाते हैं कि महिलाओं का कार्यबल में शामिल होना और पुरुषों के समान पद मांगना ही सबसे बड़ी समस्या है। ‘मीटू’ अभियान के दौरान इस तरह के अनेक बयान सुने गए थे। इक्कीसवीं सदी में हुए अनेक व्यापक बदलावों के बावजूद पुरुषवादी सोच वाले लोग स्त्रियों को उनकी कमजोर बुद्धि और कमजोर शरीर का बहाना बना कर कई अधिकारों से वंचित करते नजर आते हैं।
एक महिला से हमेशा अपेक्षा की जाती है कि वह एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी और अच्छी मां बने, उसके बाद कुछ अपने लिए सोचे। ये सारी अपेक्षाएं पुरुषों से क्यों नहीं की जातीं। ग्लोरिया स्टीनम कहती हैं कि महिलाओं को दुनिया के अनुरूप बनाने की मत सोचो, बल्कि दुनिया को महिलाओं के अनुरूप बनाने की सोचो। ग्लोरिया का यह तर्क जीडी एंडरसन के तर्क को समर्थन देता नजर आता है, जो मानती हैं कि नारीवाद महिलाओं को मजबूत या सशक्त बनाने के विषय में नहीं है, महिलाएं पहले से ही मजबूत हैं। बल्कि यह उस दृष्टिकोण को बदलने के बारे में है, जिस तरीके से दुनिया महिलाओं की शक्ति/ मजबूती को देखती है।
महिलाएं हमेशा कहती रहती हैं कि हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो पुरुष कर सकते हैं। मगर क्या पुरुष यह कह सकते हैं कि वे वह सब कुछ कर सकते हैं, जो महिलाएं कर सकती हैं। अगर नहीं कह सकते तो फिर खुद को श्रेष्ठ एवं शक्तिशाली और महिलाओं को अधीनस्थ तथा कमजोर कहने की मानसिकता को बदल लेना चाहिए।
पुरुष समाज को यह हमेशा याद रखना चाहिए कि प्रकृति ने महिला और पुरुष के बीच भेद अवश्य किया है, लेकिन भेदभाव नहीं किया। जब बनाने वाले ने भेदभाव नहीं किया, तो इंसान को किसने यह हक दिया कि वह इस अंतर को स्थापित करे। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक बराबरी के समाज की कल्पना करना या महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को रोकने जैसे कदम सफल नहीं हो सकते।
महिलाओं के अधिकारों की बात करना प्राय: पुरुषों से घृणा करने का प्रतीक मान लिया जाता है। महिलाओं के स्वभाव को अहिंसक, विनम्र, शांत, भावनात्मक, त्यागशील, कर्तव्यनिष्ठ, जिम्मेदार और संबंधों के प्रति प्रतिबद्ध के रूप में प्रचारित करके समाज महिलाओं को अपनी मुक्ति के संघर्ष में हिस्सा लेने और आवाज उठाने से रोकते हैं।
परिवार में लड़कियों को खुद को सीमित दायरे में रखना सिखाते हैं, लड़कियों से कहते हैं कि आप महत्त्वाकांक्षी हो सकती हैं, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। आप सफलता का लक्ष्य रख सकती हैं, लेकिन बहुत अधिक नहीं। दरअसल, ऐसा करना पुरुष समाज को चुनौती देना होगा। इसे अकारण नहीं माना जा सकता कि जबसे महिलाओं ने स्वयं को निजी परिवेश से निकालकर सार्वजनिक परिवेश का हिस्सा बनाया है या अपनी उच्च महत्त्वाकांक्षाओं को आकार देना शुरू किया है।
अपने सपनों को अमली जामा पहनाने की कोशिश शुरू की है, तबसे उनके विरुद्ध हिंसा और दुर्व्यवहार की घटनाओं में वृद्धि हुई है। तर्क दिए जाते हैं कि सार्वजनिक परिवेश महिलाओं के लिए नहीं है, वे घर की चारदीवारी में ही सुरक्षित रह सकती हैं। अगर ऐसा है, तो आज भी कई ऐसी घटनाएं क्यों सामने आती हैं, जिनमें लड़कियों के पिता, चाचा, दादा, भाई, ससुर ही उनके चरित्र को दागदार कर देते हैं।
कहा जाता है कि महिलाओं का काम परिवार की सेवा और बच्चों का लालन-पालन करना है, उन्हें वहीं तक सीमित रहना चाहिए। पर आज ऐसा कोई क्षेत्र नहीं, जहां महिलाएं अग्रणी न हों। प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, कंपनी की सीईओ, मैनेजर, कुलपति, चिकित्सक, पायलट, पुलिस अधिकारी, प्रशासक, न्यायाधीश, वैज्ञानिक आदि।
इसके साथ-साथ वे गृहिणी बनकर अपने बच्चों का पालन-पोषण करती और घर को भी संभालती हैं। एक महिला क्या करती है या क्या करना चुनती है, यह पूरी तरह उसका निर्णय होना चाहिए, जैसे एक पुरुष को होता है। देखा जाए तो लैंगिक असमानता वाले समाज में बदलाव के लिए कुछ ज्यादा बदलाव करने की जरूरत नहीं है। केवल मानसिकता और दृष्टिकोण में बदलाव ही गैरबराबरी को समाप्त करने की दिशा में एक सकारात्मक और महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा।