शिवेंद्र राणा
मानव सभ्यता के उत्कृष्ट मानदंडों की स्थापना हेतु उचित प्रेरक परिदृश्य का निर्माण मानवाधिकारों की सुरक्षा और समता की संकल्पना से प्रेरित होता है। इस हेतु मानवाधिकार एवं मानवीय मूल्यों का अनुशीलन आवश्यक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रीयता, नस्लवाद, क्षेत्रवाद, धार्मिक संकीर्णता से उपजने वाली आक्रमकता एवं हिंसक वृत्ति से वैश्विक मानव समाज की सुरक्षा के लिएमानवाधिकारों की सम्मानजनक कानूनी स्थापना एक गंभीर विषय था।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर के मानवाधिकारों संबंधी प्रावधानों के यथार्थ कार्यान्वयन महासभा ने इस सार्वभौमिक घोषणा को 10 दिसंबर, 1948 को स्वीकार किया। तब विश्व मानव सभ्यता के सबसे विनाशकारी युद्धों की विभीषिका से उभरने का प्रयास कर रहा था। प्रस्तावना यह संकल्प व्यक्त करती है कि आने वाली पीढ़ियों को युद्धों के प्रकोप से बचाया जाए क्योंकि इन युद्धों ने मानव जाति को अकथनीय कष्ट दिए हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ का चार्टर जिस आधुनिक संकल्पना के अंतर्गत मानवाधिकारों के सभी आनुवांशिक अधिकारों को शामिल करता है वह विभिन्न राष्ट्रीय जीवन में अलग-अलग रूपों में विकसित हुई है यथा, इंग्लैंड में मैग्नाकार्टा, संयुक्त राज्य अमेरिका का स्वतंत्रता का घोषणा-पत्र, फ्रांस के मानवाधिकार घोषणापत्र तथा रूसी क्रांति आदि।
मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा में ‘मानव अधिकारों’ को स्पष्टतया परिभाषित नहीं किया गया। बल्कि यह घोषणा उसे ‘मानव परिवार के सभी सदस्यों के समान एवं असंक्रमणीय अधिकार’ कहती है। मानवाधिकार प्रकृति में निहित वे मौलिक अधिकार हैं जो राष्ट्रीयता, लिंग, जाति, धर्म के भेदभाव से परे प्रत्येक मनुष्य को केवल उसके मानव अस्तित्व के कारण प्राप्त हैं।
भारतीय संविधान ने तर्कसंगत रूप से मौलिक अधिकारों को छह व्यापक श्रेणियों में (भाग-3 में निहित अनु.12 से 35) स्वीकृति दी है। उच्चतम न्यायालय ने स्वीकार किया है कि भारत द्वारा हस्ताक्षरित एवं समर्थित मानवाधिकारों की अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाएं तथा मानव अधिकार पर अन्य अंतरराष्ट्रीय अभिसमयों की सहायता संविधान की मानव अधिकार संबंधी उपबंधों का निर्वचन करने में ली जा सकती है।
वह समय-समय पर मानवाधिकार के अंतराष्ट्रीय अभिसमय से इनके संबंध की व्याख्या करता रहा है। जैसे जाली जार्ज वर्गीज बनाम बैंक आफ कोचीन (एआइआर 1980), विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (एआइआर1997), अपेरेल एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल बनाम एके चोपड़ा (एआइआर1999) आदि।
वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में सभी देशों द्वारा स्वीकृत मानवाधिकारों का सार्वभौमिक घोषणा-पत्र के प्रति प्रकट विश्वासनीयता मानवाधिकारों के सार्वभौमिकीकरण के राजनीतिक सत्यता का प्रमाण है, लेकिन इन नैसर्गिक अधिकारों का सर्वव्यापीकरण अभी भी बाकी है। सामाजिक आवश्यकताओं तथा व्यक्तिगत अधिकारों के मध्य संतुलन बनाए रखना नि:संदेह दुष्कर कार्य है और इसके लिए आवेग में सशस्त्र बलों द्वारा हिंसा के अतिरेक की पूरी संभावना होती है।
इसका अर्थ यह नहीं है कि राज्य सुरक्षा के आधारभूत अंगों के रूप में को हिंसा की खुली छूट मिल जानी चाहिए। कश्मीर में निरंतर मारे गए बेगुनाह के प्रति हिंसा के जिम्मेदार कट्टरवादी दहशतगर्दो के विरुद्ध सेना की हिंसात्मक प्रतिक्रिया को कैसे अनुचित मान लिया जाए? छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में घात लगाकर 76 सीआरपीएफ जवानों के गले रेतने वाले नक्सलियों के किन मूल अधिकारों को स्वीकार किया जाए?
पाकिस्तान के पेशावर के आर्मी स्कूल पर हमला करके पाकिस्तान सेना के जवानों के 132 बच्चों की हत्या करने वाले तालिबानी आतंकियों के कौन से मानवाधिकार से सहानुभूति रखी जाए? ऐसे ही क्रूर हत्याएं, महिलाओं के बलात्कार बच्चों के गले काटने वाले फिलिस्तीनी आतंकियों के विरुद्ध इजराइली सेना की प्रतिहिंसा को मानव अधिकार हनन के रूप में देखना एक पूर्वाग्रहवादी दृष्टिकोण होगा।
भारतीय संविधान का अनु.13 प्रत्येक नागरिक के मूलाधिकारों की सुरक्षा की वचनबद्धता व्यक्त करता है। यह विधानमंडलों को मौलिक अधिकारों को बाधित या सीमित करने वाले किसी प्रकार के कानून बनाने का प्रतिषेध करता है। अनु.33 सशस्त्र बलों में कार्यरत व्यक्तियों के नैसर्गिक अधिकारों को सीमित करता है। संविधान में इसकी कल्पना मौलिक अधिकारों के अपवाद स्वरुप की गर्इं है।
सुखद है कि देश में इसपर ठोस विमर्श को दिशा मिल रही है। कर्तव्य निर्वहन के दौरान उन्मादी भीड़ के हमलों का शिकार होने वाले सुरक्षा बलों के जवानों के मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु वर्ष 2019 में सर्वोच्च न्यायालय में एक सेवानिवृत्त सीआरपीएफ जवान और एक सेवारत सैन्य अधिकारी की बेटियों द्वारा याचिका दायर की गर्इं, जिसमें भारतीय सेना पर पथराव की घटनाओं के बाद सुरक्षा बनाए रखने की जिम्मेदारी निभा रहे सैन्यकर्मियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज किए जाने की घटनाओं का जिक्र करते हुए उनके आत्मरक्षार्थ की गई कार्रवाईयों के खिलाफ मामले दर्ज किए जाने पर असंतोष व्यक्त किया गया था।
मानवाधिकार के पुरोधाओं का मौलिक चिंतन इस तर्क की अवहेलना करता आ रहा है कि राष्ट्र विरोधी तत्त्वों से जूझ रहे सशस्त्र बलों के जवान कोई निजी हित या व्यक्तिगत शत्रुता नहीं साध रहे, बल्कि नागरिक समाज की सुरक्षा हेतु ही सन्नद्ध हैं। इन संघर्षों में प्राण गंवाने, विकलांग होने वाले भी हाड़-मांस के इंसान हैं, उनके भी परिवार हैं, रिश्ते हैं। उनकी भी भावनाएं हैं।
यही वो बिंदु है जहां मानवाधिकार का मूल चिंतन पथभ्रष्ट हो जाता है तथा इसकी प्रचलित मान्यताएं समालोचनाओं के घेरे में आ जाती हैं। सिविल सोसाइटी का एक तबका अधिकारों के प्रति अतीव दुराग्रही एवं उसके लाभ हेतु लोकतांत्रिक सरकार के विरुद्ध कटुभाषी होते हुए भी कर्तव्यों की सार्थकता पर विमर्श करने को तैयार नहीं है।
यह स्थापित तर्क है कि मानवाधिकार पूर्ण एवं असीमित नहीं होते और ना ही उन्हें होना चाहिए। अधिकार हो या स्वतंत्रता व्यवस्थित रूप में ही सकारात्मक होते हैं। उनकी उन्मुक्तता सामाजिक संविदा के अंतर्गत एक विघटनकारी स्थिति पैदा कर रही है। जैसा कि आधुनिक युग में अहिंसावाद के सबसे विशिष्ट प्रवर्तक महात्मा गांधी कहते हैं, ‘मैंने अपनी निरक्षर, लेकिन समझदार मां से सीखा था कि सभी अधिकारों की हकदारी और संरक्षण अच्छी तरह निभाए गए कर्तव्य से ही संभव होता है।
इस प्रकार, जीने का अधिकार केवल तभी हमें प्राप्त होता है जब हम दुनिया में अपनी नागरिकता का कर्त्तव्य पूर्ण करते है।’ भारत समेत संपूर्ण वैश्विक नागरिक समाज को भी इसे समझने एवं मनन की महती आवश्यकता है ताकि मानवाधिकारों पर चिंतन तथा सामाजिक संतुलन स्थिर रह सके।