उत्तराखंड उत्तरी हिमालय के जिस क्षेत्र में बसा है, वहां की भू-स्थिति भी अलग-अलग है। कहीं नरम, तो कहीं मजबूत चट्टानें हैं, जो कभी काफी सख्त होती हैं, तो कभी बेहद भुरभुरी। ऐसे में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर इनकी बदलती प्रकृति का सही-सही आकलन भी बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। निश्चित रूप से जोशीमठ में ऐसी ही भूगर्भीय संरचना को बिना जांचे-परखे प्रकृति के साथ हुई ज्यादती ने एक झटके में तबाही ला दी होगी।
क्या उत्तराखंड में बार-बार पैदा हो रही त्रासदी अनदेखियों का नतीजा है या बिना जोखिम की चिंता किए अंधाधुंध विकास की परिणिति? वजह जो भी हो, नुकसान बहुत हो चुका है। सच है कि वहां विकास कार्य रोके नहीं जा सकते, लेकिन प्रकृति के खिलाफ जाकर भी तो नहीं किए जाने चाहिए। सिलक्यारा सुरंग में सत्रह दिनों तक फंसी इकतालीस जिंदगियों को लेकर पूरी दुनिया में जबरदस्त चिंता थी।
बताते हैं कि यह एक भूवैज्ञानिक गलती से हुआ, जिसे ‘शीयर जोन’ के चलते बारिश और नमी वाले क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। इसमें डेढ़ किमी से अधिक लंबी सुरंगों के लिए आपातकालीन निकासी का रास्ता नहीं था। ऐसी बड़ी चूक दुबारा न हो, इसके लिए भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण यानी एनएचएआइ ने अब भारत में बन रही उनतीस सुरंगों के आडिट आदेश जारी किए हैं।
सिलक्यारा सुरंग सरकार की बेहद महत्त्वाकांक्षी परियाजनाओं में से एक है, जो डेढ़ अरब डालर की चारधाम यात्रा की अनुमानित परियोजना का हिस्सा है। यह उत्तर भारत के चार महत्त्वपूर्ण हिंदू तीर्थ स्थानों को 890 किमी तक दो-लेन सड़क के माध्यम से जोड़ने के लिए बनाई जा रही है। इससे जुड़े कई सच और तथ्य सामने आने लगे हैं। इस सच्चाई को हमें मानना ही होगा।
भारत की प्रमुख पर्वत शृंखलाएं हिमालय, अरावली और विंध्य प्लेटों के आपस में टकराने से बनी हैं। इनमें विंध्य और पश्चिमी घाट ज्वालामुखी के लावा से बने हैं। विंध्य और अरावली पर्वत शृंखला की उम्र करीब तीन अरब वर्ष मानी जाती है, लेकिन हिमालय की उम्र केवल पांच-छह करोड़ वर्ष है। निश्चित रूप से हिमालय सबसे युवा पर्वत शृंखला है, जो भारत और एशिया के नीचे की टेक्टोनिक प्लेटों के टकराने से बनी है।
अब भी अक्सर ये प्लेटें एक-दूसरे के खिलाफ जोर लगाती हैं। भूगर्भ में इंडियन प्लेट अब भी यूरेशियन प्लेट के नीचे बीस मिलीमीटर प्रति वर्ष की गति से घुस रही है। इससे उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण बल के चलते ही अक्सर उत्तराखंड में पहाड़ धंसने लग जाते हैं।
सर्वविदित है कि नए पर्वत होने तथा निरंतर बादल, पानी, नमी के कारण यह क्षेत्र भुरभुरा है। इसके अलावा इन पहाड़ों में ढलान भी ज्यादा है, तो नदियों में तेज बहाव भी है। सच्चाई है कि नदियों का बहाव न तो रोका जा सकता है और न तेज बहते पानी को बांधा जा सकेगा। इन्हीं कारणों से अक्सर उत्तराखंड में भूस्खलन, जो कि पहाड़ धंसने की सामान्य प्रक्रिया है, होता रहता है। इसी में छिपा है वह सारा सच, जिसे स्वीकर कर प्रकृति को चुनौती देने से बचा जा सकता है। मगर पहाड़ों पर लगातार हो रहे कंक्रीट के विकास कार्य, वनों की कटाई और चराई क्षेत्रों में वृद्धि के चलते उनका पारिस्थितिकी तंत्र भी खासा प्रभावित हो रहा है।
इसकी जड़ में बढ़ती आबादी और खेती का रकबा बढ़ने के साथ-साथ बेतरतीब भूजल निकालना और भारी मशीनों के तेज कंपन और पहाड़ों को तोड़ने हेतु बारूदी विस्फोटों के अलावा वहां वाहनों से फैलता प्रदूषण भी जिम्मेदार है। जब पता है कि सबसे नई पर्वत शृंखला होने के साथ दूसरे भारतीय पर्वतों के मुकाबले हिमालय न केवल भुरभुरा, बल्कि दूसरों के मुकाबले कमजोर भी है, तो वहां जबरन प्रकृति विरुद्ध क्रियाकलाप रोके ही जाने चाहिए।
गंगोत्री और यमुनोत्री धाम के बीच यमुनोत्री राजमार्ग पर राडी टाप में बनाई जा रही साढेÞ चार किलोमीटर लंबी सुरंग से इन दोनों स्थानों के बीच छब्बीस किलोमीटर की दूरी कम होने के साथ पैंतालीस मिनट का समय भी बचेगा। सुरंग सिलक्यारा ‘फ्रंट साइट’ से 2340 मीटर और ‘टेल साइट’ से 1700 मीटर काटी जा चुकी है। दुर्घटना ‘फ्रंट साइट’ से नवयुगा कंपनी के हिस्से में हुई।
लापरवाही की अहम वजह आपात निकासी हेतु ‘स्केप’ सुरंग का न बनाया जाना है। जिस साठ मीटर हिस्से में मलबा गिरा, उस हिस्से में ‘लाइनिंग’ का काम नहीं हुआ था। साथ ही कई दिनों से लगातार पानी का तेज रिसाव और मलबा गिर रहा था। अगर कंपनी पहले ही इस पर ध्यान देकर जरूरी एहतियात बरतती, तो यह नहीं होता। जबकि सुरंग में कहीं भी आपातकाल के लिए ‘बायपास’ सुरंग नहीं बनाई गई, जो जरूरी थी। कुछ का मानना है कि सुरंग में लोहे के सरियों की जगह मजबूत गार्डर का इस्तेमाल होना था।
उत्तराखंड उत्तरी हिमालय के जिस क्षेत्र में बसा है, वहां की भू-स्थिति भी अलग-अलग है। कहीं नरम, तो कहीं मजबूत चट्टानें हैं, जो कभी काफी सख्त होती हैं, तो कभी बेहद भुरभुरी। ऐसे में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर इनकी बदलती प्रकृति का सही-सही आकलन भी बेहद चुनौतीपूर्ण होता है। निश्चित रूप से जोशीमठ में ऐसी ही भूगर्भीय संरचना को बिना जांचे-परखे प्रकृति के साथ हुई ज्यादती ने एक झटके में तबाही ला दी होगी।
क्या जोशीमठ और उत्तराखंड में दूसरी जगहों पर दरकते मकान और खिसकते पहाड़ों ने पहले ही जता दिया था कि प्रकृति की सहनशीलता के विरुद्ध विकास की गाथा की क्या परिणति हो सकती है? वैसे भी उत्तराखंड सहित और भी कई जगहों पर भूस्खलन के अनेक भयावह उदाहरण हैं।
जिस क्षेत्र में सिलक्यारा सुरंग का निर्माण हो रहा है, उसी में गंगा और उसकी कई सहायक नदियां का उद्गम भी है। इन क्षेत्रों में जंगल, ग्लेशियर और अनेक छोटी-बड़ी जलधाराएं हैं। यहां प्राकृतिक गैसों के साथ भी कई तरह की क्रियाएं होती हैं, जिनसे ग्रीन हाउस गैसें बुरी तरह प्रभावित होती हैं। मगर यह सब जानते हुए, बजाय प्राकृतिक स्थितियों को संतुलित रखने के, तेजी से निर्माण कार्य हो रहा है।
ऐसे निर्माणों में कहीं सुरंग, तो कहीं बड़ी संख्या में पुल-पुलिया बन रहे हैं। दर्जन भर से ज्यादा फ्लाईओवर बनाए जा रहे हैं। कई जगह रेलवे लाइन के लिए सुरंगें बनी हैं। जबकि इन पहाड़ों की क्षमता का निष्पक्ष आकलन किया जाए, तो ये इनका भार सहने के लिए अपर्याप्त हैं। कहीं लगातार पानी का रिसाव, तो कहीं भूमिगत जलधाराओं से पहाड़ हमेशा नरम बने रहते हैं। ऐसे में नरम मिट्टी भला बोझ कैसे सहेगी? जबकि जलविद्युत के लिए तेज दबाव से पानी निकासी के लिए किए जा रहे निर्माण भी प्रकृति के विरुद्ध ही जाते हैं।
अगर इसी वर्ष के आंकड़ों को देखें तो अकेले उत्तराखंड में अब तक छोटे-बड़े एक हजार से ज्यादा भूस्खलन हो चुके हैं, जिनमें अड़तालीस लोगों की जान चली गई। निश्चित रूप से विकास की ऐसी गाथाएं न तो टिकाऊ होंगी, न ही मानव हित में।पहाड़ों पर विकास की खातिर नए शोध जरूरी हैं। कभी जोशी मठ जैसी, तो कभी सड़कों के धंसने, उन पर चलते वाहनों के घाटियों में गिरने की नई घटनाओं को रोकने और पहाड़ी जीवन को आसान बनाने की ईमानदार कोशिश करनी ही होगी।
तकनीक से चुनौतियों का समाधान तो हो, लेकिन उतना ही, जितना प्रकृति विरुद्ध न हो। ऐसा लगता है कि सुरक्षा और भावी खतरों को लेकर हुई लापरवाही की बहुत भारी कीमत सुरंग में फंसे इकतालीस मजदूरों को चुकानी पड़ी। उनका सत्रह दिनों तक मौत को चुनौती देकर सुरंग में फंसे रहना जितना साहसिक है, उतना ही पीड़ादायक भी।
उनका तिल-तिल दर्द सहना, घुटती सांस में जिंदगी की लड़ाई लड़ना काबिले-तारीफ है। यकीनन, मौत से पल-पल साक्षात्कार करते इन मजदूरों की जिजीविषा चकित करती है, लेकिन फिलहाल उनको जीवित निकालने में विज्ञान के आगे इंसान की जीत कहीं न कहीं अंधाधुंध और बेतरतीब विकास की ओर भी बड़ा इशारा है।