विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह सच है कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण होने वाली मौतों और चोटों के कारण निम्नवर्गीय भारतीय परिवारों को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ सकता है, पर महिलाओं के मामले में यह स्थिति अधिक गंभीर होती है। यह रिपोर्ट कहती है कि सड़क दुर्घटना के बाद पचास फीसद महिलाएं पारिवारिक आमदनी घटने से बुरी तरह प्रभावित हुईं। असल में आयवर्ग चाहे जो हो, सड़क दुर्घटनाओं का सबसे अधिक दंश महिलाओं को ही झेलना पड़ता है।
सड़क दुर्घटनाएं नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन पर ही नहीं, देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था पर भी दुष्प्रभाव डालती हैं। सड़क हादसों का असर महिलाओं के लिए अधिक दुखदायी होता है। अनगिनत बदलावों के बावजूद सामाजिक-पारिवारिक मानसिकता का न बदलना और आर्थिक निर्भरता जैसे कारक स्त्रियों के लिए इन दुखद हालात को और तकलीफदेह बना देते हैं। वित्तीय मुआवजे के लिए कानूनी परामर्श और घायल होने पर देखभाल तक, इस मामले में भी महिलाएं कई तरह की उलझनों से जूझती हैं।
सड़क हादसे न केवल स्वास्थ्य, जनकल्याण और आर्थिक वृद्धि को गहराई से प्रभावित करते हैं, बल्कि नागरिकों का अनमोल जीवन तक छीन लेते हैं। घर के एक सदस्य की मौत पूरे परिवार को प्रभावित करती है। गौरतलब है कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण दुनिया के अधिकांश देशों को अपने सकल घरेलू उत्पाद का करीब तीन फीसद खर्च करना पड़ता है। विश्व बैंक के अनुसार सड़क दुर्घटना के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था को भी हर वर्ष अपने सकल घरेलू उत्पाद के करीब तीन फीसद की हानि उठानी पड़ती है। समझना मुश्किल नहीं कि इन हादसों का हमारे सामाजिक-पारिवारिक और आर्थिक जीवन पर कितना गहरा असर पड़ता होगा।
आंकड़ों के मुताबिक, वैश्विक स्तर पर पच्चीस वर्ष से कम आयु वर्ग में महिलाओं की तुलना में पुरुषों के सड़क दुर्घटना में मारे जाने की संभावना 2.7 गुना ज्यादा होती है। सामाजिक परिवेश की भिन्नता के चलते भारत में यह अंतर और ज्यादा है। हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले युवा लड़कों की संख्या युवा लड़कियों की तुलना में 6.2 गुना ज्यादा है।
इतना ही नहीं, सड़क दुर्घटनाओं से जुड़े शोध यह भी स्पष्ट रूप से सामने रखते हैं कि भारत जैसे विकासशील देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुष ज्यादा यात्राएं करते हैं, नतीजतन उनके गंभीर दुर्घटनाओं का शिकार होने की संभावना भी ज्यादा होती है। हालांकि हमारा परिवेश ही कुछ ऐसा है कि पुरुषों के साथ होने वाले हादसों का असर भी महिलाओं के हिस्से आता है।
मां, बहन, पत्नी या बेटी होने के नाते सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव उनके जीवन की भी दिशा और दशा बदल देता है। गौरतलब है कि पुरुषों के साथ होने वाले सड़क हादसे महिलाओं की आर्थिक स्थिति को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। इसके चलते सहजता से चल रहे उनके जीवन में अचानक कभी न खत्म होने वाली मुश्किलें जगह बना लेती हैं।
सड़क हादसों का स्त्रियों और पुरुषों पर अलग-अलग तरह से असर पड़ता है। इसमें न केवल महिलाओं की जान जाने की आशंका अधिक होती है, बल्कि घायल होने पर उनको उपचार और समुचित देखभाल मिलना भी मुश्किल होता है। इतना ही नहीं, स्त्रियों के पास न केवल आय के स्थायी साधनों का अभाव होता है, बल्कि दुर्घटना संबंधी स्वास्थ्य बीमा आदि की सुविधा भी कम ही महिलाओं के पास होती है।
बहुत सारी महिलाओं को अपाहिज होने या इलाज लंबा चलने की स्थिति में परिवार का भी सहज साथ नहीं मिल पाता। कई बार तो ऐसी दुर्घटनाओं का दोषारोपण करते हुए उनके अपने ही उन्हें उलाहना देने से नहीं चूकते। सड़क दुर्घटनाओं से जोड़कर देखे जाने वाले अपशकुन और अंधविश्वास आज भी महिलाओं के लिए दंश बने हुए हैं। वहीं बिगड़ती आर्थिक स्थिति का खमियाजा तो उनके हिस्से आता ही है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक, यह सच है कि सड़क दुर्घटनाओं के कारण होने वाली मौतों और चोटों के कारण निम्नवर्गीय भारतीय परिवारों को वित्तीय संकट का सामना करना पड़ सकता है, पर महिलाओं के मामले में यह स्थिति अधिक गंभीर होती है। विश्व बैंक की रिपोर्ट ‘ट्रैफिक क्रैश इंजुरीज एंड डिसएबिलिटी- द बर्डन आन इंडियन सोसाइटी’ के अनुसार ग्रामीण और शहरी महिलाओं पर भी सड़क हादसों का अलग-अलग असर पड़ता है।
यह रिपोर्ट कहती है कि सड़क दुर्घटना के बाद पचास फीसद महिलाएं पारिवारिक आमदनी घटने से बुरी तरह प्रभावित हुईं। असल में आयवर्ग चाहे जो हो, सड़क दुर्घटनाओं का सबसे अधिक दंश महिलाओं को ही झेलना पड़ता है। इसमें घरेलू जिम्मेदारियों के साथ ही कामकाजी जीवन का अतिरिक्त भार भी समाहित है। विशेषकर किसी हादसे के बाद देखभाल का दायित्व स्त्रियों के हिस्से ही आता है।
बावजूद इसके, जीवन छीनने और परिवार उजाड़ने वाले इन हादसों के आंकड़े दुनिया के हर हिस्से में बढ़ रहे हैं। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी 2030 तक सड़क यातायात दुर्घटनाओं से होने वाली मौतों और अपंगता की वैश्विक संख्या को आधा करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है। भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो केंद्रीय सड़क और परिवहन राजमार्ग मंत्रालय द्वारा जारी ताजा आंकड़ों के मुताबिक सड़क हादसों में पिछले साल के मुकाबले बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
केंद्रीय सड़क और परिवहन राजमार्ग मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2022 में कुल 4,61,312 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गई थीं। इन हादसों में जान गंवाने वालों का आंकड़ा 1,68,491 और घायल होने वाले लोगों की संख्या 4,43,366 थी। चिंताजनक है कि बीते वर्ष की तुलना में सड़क दुर्घटनाओं में 11.9 फीसद की वृद्धि हुई है। इनमें जान गंवाने वालों में 9.4 फीसद और घायलों में 15.3 फीसद का इजाफा हुआ है।
रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं के बढ़ते आंकड़ों के पीछे सबसे बड़ी वजह तय सीमा से तेज गति, लापरवाही से या नशे में वाहन चलाना, दुपहिया वाहन चालकों का हेलमेट न पहनना और यातायात नियमों की अनदेखी सबसे अहम कारण रहे हैं। आमतौर पर स्त्रियां वाहन चलाते हुए नियमों की अनदेखी कम ही करती हैं, पर पुरुषों द्वारा की गई गलतियों का खमियाजा उन्हें भी उठाना पड़ता है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की रपट ‘रोड एक्सीडेंट्स इन इंडिया 2022’ के अनुसार दुर्घटनाओं में हुई मौतों में 18-45 के बीच आयु वर्ग के लोग 66.5 फीसद हैं।
यानी सड़क दुर्घटना में सबसे ज्यादा युवा शिकार हुए हैं। इस आयुवर्ग के लोग न केवल देश के कामकाजी वर्ग का अहम हिस्सा होते हैं, बल्कि परिवार के लिए अर्थोपार्जन करने वाले सदस्य भी। ऐसे में घर के पुरुष सदस्य के साथ हुई सड़क दुर्घटना से उपजे हालात में वित्तीय जरूरतों को पूरा करने का संघर्ष, शारीरिक-मानसिक ही नहीं, मनोवैज्ञानिक भी होता है। नए सिरे से जीवन से जूझने की इन स्थितियों में आर्थिक और मनोवैज्ञानिक टूटन के हालात कई बार आत्महत्या के मुहाने तक ले जाते हैं।
जान गंवाने वाले घर के सदस्य की लापरवाही पीछे छूटे लोगों का जीवन सदा के लिए बदल देती है। कई बार तो परिजनों का साथ और सहयोग भी नहीं मिलता। बच्चों की परवरिश और भविष्य से जुड़ी चिंताएं महिलाओं के दिलो-दिमाग को घेर लेती हैं। जिन महिलाओं के पास पहले से कामकाजी अनुभव नहीं होता, वे घर में मरीज की देखभाल का बोझ और बाहर शोषण की स्थितियां झेलने को विवश हो जाती हैं।
कामकाजी दुनिया में मौजूद असमानता के हालात में कम शिक्षित या घर की चारदीवारी तक सिमटी महिलाओं को काम मिलने में मुश्किलें आती हैं। एक ओर दुर्घटना में घायल पुरुष सदस्य के इलाज का नया खर्च जुड़ जाता है, दूसरी ओर कमाई के रास्ते बंद हो जाते हैं। इन स्थितियों में घर की स्त्रियों के लिए सम्मान और सुरक्षा के मोर्चे पर भी चिंताएं बढ़ जाती हैं, जिसके चलते परिवार अचानक गरीबी के कुचक्र में फंस जाता है। ऐसे हालात महिलाओं को ही सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं।