योगेश कुमार गोयल
कुछ वर्षों से आतिशबाजी के स्वरूप और चलन में काफी बदलाव आया है। अब तेज रोशनी वाले अत्यंत विस्फोटक पटाखों की भरमार रहती है, जो जरा-सी लापरवाही से पलक झपकते ही न सिर्फ जानमाल का भारी नुकसान कर डालते हैं, बल्कि वातावरण को भी बुरी तरह प्रदूषित करते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण को लेकर स्पष्ट किया है कि उसने पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर जो आदेश पहले दिए थे, वे केवल दिल्ली के लिए नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए हैं।
यह राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए जरूरी कदम उठाएं। इससे पहले देशभर में पटाखों पर प्रतिबंध के मामले में 22 सितंबर को सर्वोच्च अदालत ने अपने अहम फैसले में कहा था कि 2018 का अदालत का फैसला बरकरार रहेगा, जिसके तहत पटाखों पर प्रतिबंध जारी रहेगा और दिल्ली-एनसीआर को छोड़कर देश में हरित पटाखों की इजाजत रहेगी, लेकिन पटाखों में बेरियम के इस्तेमाल पर रोक होगी और लड़ियों, राकेट आदि पटाखों पर भी प्रतिबंध बरकरार रहेगा।
हालांकि भले सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के तहत केवल हरित पटाखे चलाए जा सकते हैं, मगर यह सर्वविदित है कि अदालती आदेशों की शुरुआत से ही अवहेलना होती रही है और प्रतिबंधित इलाकों में भी बड़ी मात्रा में विषैले तत्त्वों से युक्त पटाखे चलाए जाते हैं। उनमें हरी रोशनी के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है, जो रेडियोधर्मी तथा विषैला होता है, जबकि नीली रोशनी के लिए कापर के यौगिक का इस्तेमाल होता है, जिससे कैंसर का खतरा होता है। पीली रोशनी के लिए गंधक इस्तेमाल किया जाता है, जिससे सांस की बीमारियां जन्म लेती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसे पटाखों के फूटने के करीब सौ घंटे बाद तक हानिकारक रसायन वातावरण में घुले रह सकते हैं।
खेतों में जलती पराली, विकास के नाम पर अनियोजित और अनियंत्रित निर्माण कार्यों के चलते बिगड़ते हालात, मोटरगाड़ियों और औद्योगिक इकाइयों के कारण बेहद प्रदूषित हो रहे वातावरण के भयावह खतरों का तो हम लाख प्रयासों के बाद भी सामना करने में बुरी तरह हांफ रहे हैं और ऊपर से एक रात का यह जश्न हमारी इन समस्याओं को हर साल और भयानक रूप दे जाता है। हालांकि पर्यावरण तथा प्रदूषण नियंत्रण के मामले में देश में पहले से ही कई कानून लागू हैं, लेकिन उनकी पालना कराने के मामले में जिम्मेदार विभागों में सदैव उदासीनता देखी जाती है।
माना जाता है कि दिवाली के मौके पर आतिशबाजी का चलन इस वजह से शुरू हुआ था कि हल्की आतिशबाजी से बारिश के मौसम में पैदा हुए कीट-पतंगे नष्ट हो जाएं और विषैले जीव-जंतु भाग जाएं, लेकिन अब जिस प्रकार के पटाखों का चलन बढ़ रहा है, उससे न केवल मनुष्यों, बल्कि समस्त प्राणिजगत के स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न हो रहा है।
पटाखों के धुएं में सल्फर डाई आक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, ऐस्बेस्टस के अलावा विषैली गैसों के रासायनिक तत्त्व भी पाए जाते हैं, जो ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के लिए भी अनुकूल परिस्थितियां पैदा करते हैं। बारूद और रसायनयुक्त पटाखों के जहरीले धुएं से श्वास संबंधी रोग, कफ, सिरदर्द, आंखों में जलन, एलर्जी, उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा, एंफिसिया, ब्रोंकाइटिस, न्यूमोनिया, अनिद्रा सहित कैंसर जैसी असाध्य बीमारियां फैल रही हैं। पटाखों की कानफोडू आवाज से कानों के पर्दे फटने तथा बहरेपन जैसी समस्याएं भी तेजी से बढ़ी हैं। जहरीले पटाखों के कारण बैक्टीरिया तथा वायरस संक्रमण की संभावनाएं बढ़ जाती हैं।
पिछले कुछ वर्षों की दिवाली के तुरंत बाद के प्रदूषण की स्थिति पर नजर डालें तो न केवल दिल्ली, बल्कि देश के दो सौ से ज्यादा महानगरों और शहरों की आबोहवा इतने खतरनाक स्तर पर पहुंच जाती है कि कई स्थानों पर तो सरकार को चेतावनी जारी करनी पड़ती है कि अगर जरूरत न हो तो घर से बाहर न निकलें और घर के खिड़की-दरवाजे बंद रखें। इस वर्ष तो दिवाली से कई दिन पहले ही दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण चिंताजनक स्तर पर पहुंच चुका है। दिल्ली में पिछले साल भी पटाखे चलाने पर पूर्ण प्रतिबंध लागू था, लेकिन उसके बावजूद लोगों ने जम कर पटाखे चलाए थे।
माना कि समय के साथ पटाखे दिवाली का अटूट हिस्सा बन गए हैं, पर प्रदूषण के भयावह खतरों के मद्देनजर हमें समय रहते स्वयं यह समझना होगा कि सही मायनों में दिवाली पटाखों का नहीं, बल्कि दीयों की जगमगाहट, खील-बताशों और मिठाइयों का त्योहार है। यह घर-आंगन के हर कोने को दीयों की रोशनी से जगमगाने का प्रकाशोत्सव है और हम पटाखों का उपयोग बेहद सीमित करते हुए भी यह त्योहार पूरे हर्षोल्लास के साथ मना सकते हैं।
दिवाली पर देर रात तक पटाखों की आवाजें सुनी जाती हैं और कई जगह तो ध्वनि प्रदूषण का स्तर 140 डेसिबल से भी अधिक देखा गया है, जबकि 80 डेसिबल ध्वनि के बीच कुछ समय रहने से सिरदर्द होने लगता है। हालांकि मनुष्य के कान 130 डेसीबल तक की ध्वनि सुन सकते हैं, पर इतनी तीव्र ध्वनि से स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। कुत्ते प्राय: वह ध्वनि भी सुन सकते हैं, जो हम सहजता से नहीं सुन सकते, पर शोधकर्ताओं का मानना है कि पटाखों का तीव्र शोर कुत्तों सहित अन्य जानवरों की सुनने की यह क्षमता छीन सकता है।
पटाखों के शोर और प्रदूषण से दुधारू पशुओं में एडरलीन हार्माेन कम हो जाता है, जिसका उनके दूध देने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अब पटाखों से ध्वनि प्रदूषण के जो गंभीर खतरे देखे जा रहे हैं, उनके चलते ध्वनि प्रदूषण भी वायु प्रदूषण से कम खतरनाक साबित नहीं हो रहा। पारंपरिक पटाखे तैयार करते समय ध्वनि, प्रकाश और धुआं उत्पन्न करने वाले जिन तत्त्वों का प्रयोग किया जाता है, उनमें 75 फीसद शोरा या बारूद, 10 फीसद गंधक और 15 फीसद कोयला होता है।
मानव स्वास्थ्य पर पड़ रहे वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों के संबंध में कुछ समय पूर्व खुलासा हो चुका है कि इसके चलते पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या में 40 फीसद तक गिरावट दर्ज की गई है, जिससे नपुंसकता का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। बढ़ते वायु प्रदूषण के कारण देश में हर दसवां व्यक्ति अस्थमा का शिकार है, गर्भ में पल रहे बच्चों तक पर इसका खतरा मंडरा रहा है और कैंसर के मामले देश भर में तेजी से बढ़ रहे हैं।
देश के अधिकांश शहरों की हवा में जहर घुल चुका है। ऐसे में दिवाली पर आतिशबाजी से प्रदूषण रूपी भयावह खतरे जिस तेजी से बढ़ रहे हैं, उनके मद्देनजर विशेषज्ञों की इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर यही स्थिति रही तो आने वाले वर्षों में हमें पटाखे भी मास्क लगाकर और कानों में रूई ठूंसकर चलाने पड़ेंगे।
खुशी के इस पर्व पर हमें आट्रेलिया में मनाए जाने वाले ऐसे ही एक त्योहार की परंपरा से प्रेरणा लेने की जरूरत है, जहां इस पर्व पर सागर तटों पर आतिशबाजी की जाती है, लेकिन हर घर में इस दिन एक-एक पौधा लगाने की भी परंपरा है। प्रदूषण के बढ़ते खतरों के मद्देनजर देश और समाज को अपना नजरिया बदलना होगा और सामाजिक जिम्मेदारी निभाते हुए प्रकृति तथा पर्यावरण संरक्षण के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने के लिए तत्पर रहना होगा।