सोनम लववंशी
कहने को कुत्ता सबसे वफादार जानवर होता है। सदियों से घरों की सुरक्षा के लिए कुत्ते पालने की परंपरा रही है। मगर इन दिनों कुत्तों की प्रवृत्ति में परिवर्तन हैरान करने वाला है। हर वर्ष देश में लगभग बीस हजार लोगों की मौत सिर्फ कुत्तों के काटने से होती है। आंकड़ों के मुताबिक, हर वर्ष देश के विभिन्न राज्यों से लगभग सतहत्तर लाख लोगों को कुत्ते के काटने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इनमें सबसे ज्यादा संख्या सड़क पर रहने वाले कुत्तों के काटने की है।
हाल ही में वाघ बकरी चाय के मालिक की आवारा कुत्तों की वजह से मौत का मामला चर्चा का विषय बना। वे सुबह की सैर पर निकले थे और पीछे से आवारा कुत्तों ने उन पर हमला कर दिया। वे बचने के लिए भागे तो उनका पैर फिसल गया और गिर गए। सिर में चोट लगने की वजह से उनकी मौत हो गई। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी अनगिनत घटनाएं हुई हैं, जब कुत्तों के पालने और रिहाइशी इलाकों में आवारा कुत्तों के घूमने पर सवाल उठे हैं। मगर इसे लेकर हमारा समाज दो वर्गों में बंटा दिखाई देता है। एक वर्ग जानवरों के अधिकारों की बात करता है, तो दूसरा सख्त कानून बनाने की वकालत करता है।
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में एक हैरान करने वाला मामला सामने आया, जब एक मासूम बच्चे को कुत्ते ने काट लिया। ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी घटनाओं पर वैसे भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता है। बच्चे ने कुत्ते के काटने की बात घर पर नहीं बताई। कुछ समय बाद बच्चे को समस्या हुई तो उसके पिता उसे डाक्टर के पास लेकर गए। मगर डाक्टर ने यह कह कर बच्चे का इलाज करने मना कर दिया कि बच्चे को लाने में बहुत देर हो गई है। बच्चे में रेबीज के कीटाणु विकसित हो चुके थे।
बच्चे ने अपने पिता की गोद मे तड़प कर जान दे दी। यह हमारे समाज की विडंबना को दर्शाता हैं, जहां हजारों की संख्या में लोगों की अप्राकृतिक मौत हो जाती है, लेकिन सरकार और समाज इससे निपटने को लेकर सजग नहीं दिखाई पड़ते।
मगर हम और हमारा समाज ऐसे मामलों पर खामोश ही रहते हैं। खासकर आवारा कुत्तों के काटने की हाल की घटनाओं पर शासन और समाज की चुप्पी कई सवाल खड़े करती है। सरकार द्वारा आवारा कुत्तों के नियंत्रण के लिए एक अच्छा-खासा बजट निर्धारित किया जाता है। मगर दुनिया भर में कुत्तों के काटने से सबसे ज्यादा मौतें हमारे देश में ही देखने को मिलती हैं। वैश्विक स्तर पर कुत्ते के काटने से होने वाली कुल मौतों में से अकेले भारत में 36 फीसद मौतें रेबीज के कारण होती हैं। यह स्थिति तब है जब अधिकतर मामले दर्ज ही नहीं होते हैं।
पशुधन के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, देश में चार वर्ष पहले तक करीब एक करोड़ 93 लाख आवारा कुत्ते थे। उत्तर प्रदेश में ही इनकी संख्या करीब 20 लाख 60 हजार थी। फिलवक्त देश में इनकी कुल संख्या तकरीबन छह करोड़ हो गई है। जिस तरह इनकी संख्या बढ़ रही है, यह आने वाले समय में गंभीर चुनौती की तरफ इशारा करता है। एक अन्य रपट के मुताबिक पिछले वर्ष करीब साढ़े चौदह लाख लोगों को कुत्तों ने गंभीर रूप से काटा। वर्ष 2021 में यह आंकड़ा महज सात लाख था। अब हालात इतने गंभीर हो गए हैं कि 10 सितंबर, 2022 को सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि आवारा कुत्तों के काटने की घटनाओं का समाधान निकालने की जरूरत है।
इस तथ्य से तो सभी परिचित हैं कि कुत्ते के काटने से रेबीज बीमारी होती है। रेबीज के टीके का इंतजाम सरकारी अस्पतालों में किया जाता है। मगर इन दिनों सरकारी अस्पतालों के भी हाल बेहाल हैं। वहां रेबीज के टीके हों न हों, पर आवारा कुत्ते सरकारी अस्पतालों में बहुतायत में देखने को मिल जाएंगे। ये कुत्ते आसानी से मासूम बच्चों को अपना शिकार बना लेते हैं। लोकसभा में पेश किए गए आंकड़े के मुताबिक देश में वर्ष 2019 में कुत्तों के काटने के मामले सर्वाधिक 72.77 लाख थे, जबकि 2020 में यह आंकड़ा 46.33 लाख था। वर्ष 2021 में कम होकर यह आंकड़ा 17 लाख तक पहुंच गया, जबकि वर्ष 2022 में साढ़े चौदह लाख घटनाएं सामने आईं। देश में सिर्फ कुत्तों के काटने से होने वाली मौतें ही बड़ी चिंता का विषय नहीं है, बल्कि कुत्तों का टीकाकरण भी नहीं किया जाता, जो स्थिति को और अधिक गंभीर बना देता है।
विडंबना देखिए कि भारत में हर वर्ष करीब दो करोड़ लोगों को जानवरों के काटने की घटनाएं घटित होती हैं। इनमें से करीब 92 फीसद मामले केवल कुत्तों के काटने के हैं। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के मुताबिक दुनिया में 36 फीसद रेबीज से मौत के मामले अकेले भारत में होते हैं। इस तरह देखा जाए तो हर महीने रेबीज से अठारह हजार से बीस हजार लोगों की मौत होती है। सबसे ज्यादा मौतें मासूम बच्चों की होती हैं। आंकड़ों के मुताबिक तीस से साठ फीसद मामलों में पीड़ित की उम्र पंद्रह वर्ष से कम थी।
वर्ष 1960 में ‘प्रिवेंशन आफ क्रुएलिटी टू एनिमल्स’ (पीसीए) कानून पास हुआ, जिसका मकसद था, जानवरों पर क्रूरता रोकना। ‘ह्यूमन फाउंडेशन फार पीपुल एंड एनिमल्स’ के अध्यक्ष के मुताबिक, पीसीए और राज्य के नगरपालिका कानूनों के अंतर्गत नागरिकों की सुरक्षा के लिए आवारा कुत्तों को सार्वजनिक जगहों से हटाने के प्रावधान की बात कही गई थी।
इसके तहत कानून में एक बोर्ड बनाया गया, जिसका काम था कि जहां जरूरत हो, उन स्थानों पर ‘स्थानीय अधिकारी अनावश्यक जानवरों को खत्म कर दें।’ लेकिन 2001 में आवारा कुत्तों की संख्या धीरे-धीरे कम करने के लिए सरकार ‘एनिमल बर्थ कंट्रोल रूल्स’ (एबीसी) लेकर आई, जिसमें आवारा कुत्तों के बंध्याकरण और टीकाकरण का प्रावधान किया गया। कुत्तों की खैरियत की जिम्मेदारी व्यक्तियों, जानवरों की सलामती के लिए काम करने वाली संस्थाओं और स्थानीय सरकारी अधिकारियों को दी गई। मगर इस विषय पर यह भी एक पक्ष रहा है कि उपरोक्त नियमों की वजह से ही कुत्ते और अधिक खूंखार हो गए।
मुंबई में आवारा कुत्तों के कल्याण के लिए काम करने वाली एक संस्था के सीईओ भी मानते हैं कि कुत्तों का काटना एक गंभीर समस्या बन चुकी है। उनका कहना है कि ‘कोई नहीं चाहता कि ऐसी घटनाएं हों, यह बहुत ही दुखद है। आज ऐसा कोई राज्य नहीं रहा, जहां आवारा पशुओं ने आतंक न मचाया हो। देखा जाए तो इसकी बड़ी वजह पशु जन्म नियंत्रण (एबीसी) कार्यक्रम पर अमल नहीं करना भी है।’ यह सच है कि आवारा कुत्तों की समस्या का कोई स्थायी समाधान नहीं दिखाई पड़ता। हमारे देश में जीव हत्या अपराध की श्रेणी में आता है, इसलिए कुत्तों को मारने के विकल्प पर तो विचार ही नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह एक सभ्य समाज के तौर पर बेहद क्रूर कृत्य होगा। इनकी आबादी को नियंत्रित करने के लिए नसंबदी का विकल्प है।
विशेषज्ञों के अनुसार, इसके लिए 70 फीसद आवारा कुत्तों की नसबंदी करनी पड़ेगी। यह एक बेहद कठिन लक्ष्य है। कुत्तों के लिए आश्रय गृह भी बनाए जा सकते हैं, जिसके लिए सरकार को अलग से बजट निर्धारित करना पड़ेगा। समय रहते कोई स्थायी कदम न उठाए जाने से अप्राकृतिक मौत कहीं-कहीं संविधान द्वारा प्रदत्त लोगों की जीवन जीने की स्वतंत्रता को प्रभावित कर रही है।