हाथियों की याददाश्त जबरदस्त होती है। ये अपनी पारंपरिक आदतों और यादों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित भी करते हैं। हमें लगता है कि वे आबादी, बाग-बगीचों या खेत, खदानों में कैसे आ गए? लेकिन हम भूल जाते हैं कि वे तो अपने मूल ठिकानों को याद रखते हुए ही लौटे हैं, जिस पर अब हम काबिज हैं। बस यही हाथियों और इंसान के संघर्ष की असल गाथा है।
कई वर्षों से लगातार घटती आबादी के बावजूद हाथियों ने जिस तरह मानव बस्तियों में घुसकर तबाही मचानी शुरू की है, वह गहरी चिंता का विषय है। भूखे-प्यासे हाथियों के झुंड या अकेला हाथी पेट की आग बुझाने के लिए प्राय: किसी गांव, कस्बे, औद्योगिक इलाके या सड़क पर दिख जाता है। बीते दो-तीन सालों में इनके उत्पात और लोगों की हुई असमय मौतों का आंकड़ा चिंताजनक है।
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, उत्तराखंड, असम, कर्नाटक, ओड़ीशा, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड, मेघालय, आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों से अक्सर हाथियों के उत्पात की तस्वीरें तथा कहानियां बेहद डरावनी होती हैं। अब भी कई राज्यों से इनके तांडव की भयावह तस्वीरें सामने आ ही जाती हैं। बीते दो-तीन वर्षों में मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में ऐसे हाथियों के समूहों का सच सामने आया, जो अपने झुंड में रह कर सैकड़ों किलोमीटर का रातोंरात सफर कर जहां-तहां तबाही मचाता है।
हम सोचते हैं कि खाने की तलाश में भटकते गजराज जंगलों से दूर आ जाते हैं, जो सच नहीं है। असल में ये अपने पुराने उस ठौर पर ही आते हैं, जो कभी इनका आशियाना था। मगर अब वे हमारी तरक्की के कंक्रीट जंगलों या खेत-खलिहानों में बदल चुके हैं। हाथियों की याददाश्त जबर्दस्त होती है। ये अपनी पारंपरिक आदतों और यादों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित भी करते हैं।
हमें लगता है कि वे आबादी, बाग-बगीचों या खेत, खदानों में कैसे आ गए? लेकिन हम भूल जाते हैं कि वे तो अपने मूल ठिकानों को याद रखते हुए ही लौटे हैं, जिस पर अब हम काबिज हैं। बस यही हाथियों और इंसान के संघर्ष की असल गाथा है। दूसरा, जिस तेजी से जंगलों का नाश हुआ, वनोपज घटा है, उसके चलते दूसरे जीव-जंतु जैसे बंदर, हिरण, सांभर, जंगली सुअर और कुत्ते, सियार नीलगाय भी कथित इंसानी बस्तियों और खेतों में आ धमकते हैं।
केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने इसी मार्च में संसद को बताया कि पिछले तीन वर्षों में भारत में हाथियों के हमलों के कारण पंद्रह सौ से अधिक लोगों की जान चली गई है। आंकड़ों से पता चलता है कि गजराज-मानव संघर्ष में थोड़ी वृद्धि भी हुई है। 2019-20 में, हाथियों के हमले के कारण 585, 2020-21 में 461 और 2022 में 535 लोगों की मौत हुई।
हमलों से बहुत से लोग दिव्यांग भी हुए, जिनका सही आंकड़ा नहीं है। मौत के आंकड़ों से पता चलता है कि हर वर्ष लगभग पांच सौ लोगों की जान हमारे देश में जाती हैं, जबकि सौ हाथी भी जान गंवाते हैं। हैरान करते ये आंकड़े बाघ या तेंदुए जैसे जानवरों के शिकार इंसानों से दस गुना ज्यादा हैं। 2015 से 2020 तक लगभग ढाई हजार लोगों को हाथी मार चुके हैं।
फरवरी 2019 में संसद में बताया गया था कि बीते तीन वर्षों में 1713 इंसान और 373 हाथियों की जान गई। यह सच्चाई भी सामने आई कि सबसे ज्यादा हाथियों की मौतें बिजली का झटका लगने से हुईं, जो 226 है। 62 हाथी रेल से कट कर मरे, जबकि 59 शिकारियों के हाथों और 26 को जहर देकर मार डाला गया।
हाथियों से हुए नुकसान की भरपाई और मानव मौतों के मुआवजे में करोड़ों रुपए जाते हैं। मगर सच यही है कि हाथियों की राह में इंसान खुद रोड़ा है। एक सर्वे में खुलासा हुआ है कि भारत में 88 चिह्नित रास्ते हैं, जिनसे सदियों से हाथी आवागमन करते रहे हैं। वहीं 2017 में जारी महत्त्वपूर्ण जानकारियों वाले आठ सौ पृष्ठ के अध्ययन ‘राइट आफ पैसेज’ में हाथियों के 101 भारतीय गलियारों संबंधी जानकारियां हैं।
इनमें 28 दक्षिण, 25 मध्य, 23 पूर्वोत्तर, 14 उत्तरी पश्चिम बंगाल में और 11 उत्तर-पश्चिमी भारत में हैं। तीन में दो गलियारों में खेती होने लगी, तो दो तिहाई के पास रेल लाइनें या सड़कें बन गईं। दो गलियारे खनन और उत्खनन से बाधित हैं। ग्यारह फीसद के पास से नहरें निकल गई हैं। जाहिर है, गलियारों के स्वरूप बदलने या खत्म करने से हाथियों के स्वच्छंद विचरण में ढेरों बाधाएं हैं। इसी से क्रुद्ध हाथियों की तब की अपनी पुरानी रिहाइश में वापसी के लिए और अब की घनी आबादी में दाना-पानी की तलाश में जबरदस्त उत्पात मचाना शुरू कर दिया।
यह भी सही है कि पिछले सौ बरसों में इनकी संख्या बहुत घटी है। दुनिया के सबसे बड़े जानवरों में शुमार हाथी की तीन प्रजातियां अफ्रीकी सवाना, अफ्रीकी वन और एशियाई हैं। संख्या घटने का कारण प्राकृतिक विचरण क्षेत्रों की बर्बादी और अवैध शिकार भी हैं। दुनिया भर में बस पचास से साठ हजार एशियाई हाथी बचे हैं। इनकी भारत में 2017 में हुई गणना के अनुसार संख्या 27,312 है।
भारी-भरकम हाथी पांच से छह हजार किलोग्राम वजनी तथा तीन मीटर ऊंचा और छह मीटर लंबा हो सकता है। संकटग्रस्त प्रजातियों के प्राकृतिक संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय संघ, यानी इंटरनेशनल यूनियन फार कंजर्वेशन आफ नेचर (आइयूसीएन) की ‘रेड लिस्ट’ है, जो स्विटजरलैंड से अद्यतन होती है। इस सूची में एशियाई हाथी भी ‘लुप्तप्राय’ जंतुओं में सूचीबद्ध है। यहां सभी देशों के सोलह हजार वैज्ञानिकों और तेरह सौ भागीदार संगठनों की जानकारी रहती है। इससे बहुत उम्मीदें हैं।
हाथी अभयारण्य की बातें तो होती हैं, लेकिन रकबा तय होने के बाद उसे बनाना तो दूर, उल्टा घटा दिया जाता है। जहां-तहां खुलती तमाम विकास परियोजनाओं से इंसानों और हाथियों का संघर्ष घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है। हाथियों के पुराने ठिकानों पर बढ़ते इंसानी प्रहारों को रोकने के लिए छत्तीसगढ़ में वर्ष 2007 लेमरू रिजर्व को आनन-फानन में मंजूरी दी गई, जिसके एक कारिडोर में हाथी रहेंगे।
वन विभाग इनकी निगरानी के लिए अलग से अधिकारी और कर्मचारियों की नियुक्त करेगा, जो हाथियों की हर गतिविधि पर नजर रखेंगे। घोषणा के समय इसका रकबा 3,827 वर्ग किलोमीटर तय हुआ। लेकिन पांच वर्ष बाद अक्तूबर-2021 में जारी अधिसूचना में घटाकर 1995.48 वर्ग किलोमीटर कर दिया गया। उसमें भी घना हसदेव अरण्य शामिल न होना हैरान करता है, जो पर्यावरणीय और जैव विविधता से भरपूर है। यहां खदानों के विस्तार, नई कोयला खदानों की इजाजत के चलते रकबा घटाया गया। इस पर दुबारा सोचना होगा।
सवाल वही कि क्या हम विकास देखें या विलुप्त होते वन्यजीवों का संरक्षण? अमूमन हर जगह ऐसे द्वंद्व से हमारे जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन, प्रकृति तथा वन्यजीवों के लिए चिंता करने वालों को पूर्वाग्रहग्रस्त हुए बिना सोचना होगा। निश्चित रूप से गजराज से औरों के बचाव के न कोई ठोस उपाय हैं न ही साफ रणनीति। वहीं वन विभाग भी सही ढंग से निदान के लिए गंभीर नहीं दिखता।
यह विडंबना नहीं तो और क्या है, जो हम अत्याधुनिक संसाधनों से लैस होकर भी हाथियों के आक्रमण या उन पर काबू रखने का कोई सुरक्षित या कामयाब तरीका अब तक नहीं खोज पाए? मोटी पगार और बड़े-बड़े पदों पर बैठे वन अधिकारियों की क्या यही जिम्मेदारी है कि उत्पात, हमले, मुआवाजे के कागज तैयार करें? धरातल पर वास्तव में कुछ हो या न हो, लेकिन कागजी खानापूर्ति में अव्वल बने रहें।
निश्चित रूप से ऐसे किंतु-परंतु से निकल कर कुछ ठोस करना ही होगा, ताकि दिनोंदिन गजराज के तांडव की दहलाती और बढ़ती घटनाएं थमें। बेहद सुंदर और बुद्धिमान जानवर, जो कल तक हमारा साथी था, आज फिर दोस्त बन जाए।