राकेश सिन्हा
नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के बाद एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया। 1700 से अधिक उन कानूनों को समाप्त किया, जिसे औपनिवेशिक काल में साम्राज्यवादी शासकों ने बनाया था। दंडप्रक्रिया संहिता, इंडियन पीनल कोड और भारतीय साक्ष्य अधिनियम जो हमारे जीवन के विभिन्न आयामों को नियंत्रित करती है उन्हें भी उन्नीसवीं शताब्दी में बनाया गया था। उनमें जिन शब्दावलियों का प्रयोग हुआ था उसमें ब्रिटेन की सत्ता की छाप थी। ‘योर मैजेस्टी’ ‘योर लार्ड’ आदि दर्जनों शब्द आज भी बने हुए हैं। मोदी सरकार ने स्वतंत्र भारत के संदर्भ में भारतीय मन मस्तिष्क से इन तीनों कानूनों को विस्थापित करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। यह मन में रोमांच पैदा करता है। अपने बारे में अपना कानून हम अपने से बना रहे हैं।
प्रश्न उठता है 1947 से 2014 तक हम शिथिल रहे। अंग्रेजी मस्तिष्क से उपजे कानूनों के द्वारा हम हांके जाते रहे। पीढ़ी दर पीढ़ी हम भारत के लोग उसके अनुकूल अपने को ढालते रहे। यह खोया हुआ काल ही नेहरू युग है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ज्वाहर लाल नेहरू ने आजादी के बाद कांग्रेस के विचार को सबसे अधिक प्रभावित किया। संविधान सभा में विविध वैचारिक प्रवृत्तियों के बीच भारत के शासन, सामाजिक दर्शन और व्यवस्था को अपनी परंपरा, संस्कृति और चित्त के अनुकूल ढालने की बात प्रबलता से उठती रही। एचवी कामथ, लोकनाथ मिश्रा, तजामुल हुसैन, महावीर त्यागी, एचसी मुखर्जी उन दर्जनों सदस्यों में थे जो भारत की अपनी पहचान को पुनर्स्थापित करने की दलील देते रहे। लेकिन नेहरूवाद ने अपने वैचारिक आधिपत्य से कांग्रेस को एकमार्गी बना दिया। विविधता का स्थान समाप्त हो गया। आचार्य जेबी कृपलानी, पुरुषोत्तम दास टंडन, संपूर्णानंद आदि नि:शब्द हो गए। उसी दिन कांग्रेस का अंत हो गया।
नेहरूवाद में यूरोप की झलक ही नहीं स्वयं यूरोप विद्यमान था। ऐसा नहीं था कि नेहरू भारत की संस्कृति से अनभिज्ञ थे। उनकी ‘भारत की खोज’ विद्वतापूर्ण रचना है। इसलिए उनका राजनीतिक-दार्शनिक अपराध दोगुना हो जाता है। वे जानते समझते हुए भी भारत पर पाश्चात्य समाज को आरोपित करते रहे। पढ़ लिखकर यूरोप जाना जीवन की उपलब्धि बन गई।
देश को स्वतंत्रता ‘सत्ता के हंस्तातरण’ से नहीं मिली। एक लंबे संघर्ष से देश के लोगों को गुजरना पड़ा। इसे समझने के लिए बंगाल के क्रांतिकारी त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती का ‘तीस वर्ष जेल में’ पुस्तक पढ़ना होगा। महाराष्ट्र के आष्टी- चिमूर में भारतीय देशभक्तों की नृशंस हत्या की घटनाओं, मंगल पांडे से लेकर भगत सिंह के साहसपूर्ण साम्राज्यवाद के प्रतिरोध से साक्षात्कार करना पड़ेगा तो उड़ीसा और असम के 12 वर्षीय बच्चों बाजी राउत और तिलेश्वरी बरुआ के जज्बातों पर गौर करना होगा। ब्रिटेन भारत से 49 लाख करोड़ का धन लूटकर ले गया।
जालियांवाला बाग कांड के अपराधी जनरल डायर के पक्ष मेंं ब्रिटेन की संसद में हुए भाषणों, उसके समर्थन में वहां के मार्निंग पोस्ट (अखबार) द्वारा जुटाए गए 25 हजार पौंड इत्यादि बातें इस बात को सत्यापित करती हैं कि साम्राज्यवाद लूट, हिंसा, दमन, अत्याचार का पर्याय था। इसलिए बंगाल में 14 वर्षीया शंति घोष को पिस्टल उठाना पड़ा और उधम सिंह को ब्रिटेन जाकर अपनी शहादत देनी पड़ी। लेकिन नेहरू की नजर में रानी विक्टोरिया, किंग जार्ज पंचम, एडवर्ड आदि की देश की राजधानी में प्रतिमा लगा रहना उदारता का प्रतीक था। इतनी जल्दी वे उस बर्बरता को कैसे भूले यह चिंतनीय विषय है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष नहीं किया था। फिर भी वे आतंक के शिखर नेताओं के प्रति उदार बने रहे। 1965 में राज्यसभा में जनसंघ के दत्तोपंत ठेंगड़ी ने इन प्रतिमाओं को हटाने का मुद्दा उठाया था।
इससे भी बड़ी गलती भारत के राष्ट्रवाद और पंथनिरपेक्षता को पाश्चात्य अनुभवों और निष्कर्षो के आधार पर ढालने का काम था। भारत को उन्होंने विरासत से काट दिया। क्योंकि वह विरासत वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, रामायण, बौद्ध-जैन दर्शन, शंकराचार्य के भाष्य, मगध, चोल साम्राज्यों, विक्रमादित्य, राजा कृष्णदेव राय, राजा राजा चोला, शिवाजी जैसे प्रतापी शासकों के दौर से जोड़ रही थी।आक्रमणकारियों केद्वारा सोमनाथ, काशी, अयोध्या मथुरा जैसे आध्यात्मिक केंद्रों पर बर्बर प्रहार, नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के दुखद अंत जैसे कुकृत्यों के साथ वर्तमान को जोड़ता है। नेहरू की आधुनिकता पाश्चात्यकरण का पर्याय बन गया। नेहरूवाद ने भारत की अस्मिता को कुचलने का काम किया।
नरेंद्र मोदी ने भारत दर्शन किया। शासन सिर्फ कानून-व्यवस्था या अर्थव्यवस्था ही नहीं बल्कि सभ्यता, संस्कृति को समृद्ध करना भी उसका लक्ष्य होता है। पश्चिम का रोमन साम्राज्यवाद, भारत का वैशाली गणतंत्र, अशोक का शासन काल इसके अनगिनत उदाहरणों में हैं। मोदी ने समकालीन भारत की सनातन अस्मिता को पुन: प्राप्त करने का सफल प्रयत्न किया। सांस्कृतिक मूल्यों और सभ्यताई धरोहरों का पुनरुत्थान जितना पिछले नौ वर्षों में हुआ, वह साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। उन्होंने लंबी वैचारिक यात्रा को मूर्त रूप दिया।
अयोध्या और काशी उसके उदाहरण हैं। अपनी विरासत के प्रति नेहरूवाद द्वारा सृजित अपराध बोध को मिटा दिया। सकारात्मकता से पुनर्जागरण की नींव पड़ती है। मोदी युग का वैशिष्ट्य आधुनिकता और परंपरा का सुंदर समन्वय है। पर्यावरण से लेकर योग तक भारत की परंपरागत ज्ञान के संसाधनों को प्रगतिशील तरीके से विश्व पटल पर राज्य के द्वारा पहली बार रखा गया। इसे सहर्ष समर्थन भी मिल रहा है।
मोदी ने अमृत महोत्सव के द्वारा स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का पुनर्पाठ किया है। इसमें इतिहासकार नहीं भारत के आम लोग शामिल हुए जो अपनी परंपरागत प्रकृति से श्रुतियों के माध्यम से घटनाओं को संजोकर रखते हैं। हजारों अनाम स्वतंत्रता सेनानी सतह पर आए और उनके परिवार सम्मानित हुए। विक्टोरिया के स्थान पर (सुभाष) बोस की प्रतिमा लगी। अपने भाषण में मोदी ने संसद में कहा था कि हजार वर्षों से गुलामी के कारण भारतीयों के मनोबल और इच्छा को कुचल दिया गया।
अब वह उभरकर सामने आ रहा है। इसी को जीवित रखने का उद्यम बंकिम, रविंद्र नाथ टैगोर, बिपिन चंद्र पाल, राधाकृष्णन, डा हेडगेवार ने किया था। पाश्चात्य ने भारतीयों का कभी चित्त विजय नहीं किया। राज्यसभा में मनोनीत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने इसी पर प्रहार करते हुए कहा था, ‘हम अपने पड़ोसी (भारतीय भाषाओं की बौद्धिक सामग्री) को नहीं पढ़ते हैं। आज भी हमारा बौद्धिक पड़ोसी यूरोप बना हुआ है। हम भी उसके बौद्धिक पड़ोसी बन गए हैं।’
मोदी युग ने दिनकर की उस व्यथा जिसमें भारत की पीढ़ियों का दर्द निहित है से देश को मुक्त करने का अहम प्रयास किया है। हम अपनी ज्ञान परंपरा में तुलसी से तिरुवल्लुवर को शामिल कर, अपनी आध्यात्मिक दार्शनिक बहुलता को समृद्ध मानकर यूरोप के सामने खड़े हैं। नेहरूवाद अपनी गलतियों और विरोधाभासों से अपना अंत देख रहा है। अपने आपको बदलने की क्षमता वह खो चुका है। यही नेहरू युग और मोदी युग का अंतर है। विरोध-प्रतिरोध की दौड़ में भले ही इस अंतर को देखने में अनेक लोगों को कठिनाई हो रही है पर समय के साथ भारत का उदय सभ्यताई राष्ट्र के रूप में होना अवश्यंभावी है। यह अस्मिता का संघर्ष और उसमें विजय की लंबी कहानी है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)