रसाल सिंह
भारतीय उपमहाद्वीप की समृद्ध ज्ञान-परंपरा प्राचीन काल से ही वैश्विक समुदाय के लिए अनुकरणीय आदर्श रही है। यह भारत की गंभीर अनुसंधान-वृत्ति, उन्नत वैचारिकी और वैज्ञानिक प्रगति की परंपरा का परिणाम रहा है। भारतीय बुद्धिमत्ता विज्ञान, चिकित्सा, आध्यात्मिकता, भाषा-विज्ञान, तत्त्व मीमांसा, खगोल विज्ञान आदि विविध अनुशासनों को समाहित करते हुए विविध क्षेत्रों का समन्वय और सामंजस्य करती रही है। मानविकी के क्षेत्र में महान भारतीय विचारकों ने सरल और जीवनोपयोगी विचारों का प्रतिपादन और प्रचार-प्रसार किया।
इससे आधुनिक समाज को भारत की साहित्यिक, कलात्मक और दार्शनिक अवधारणाओं से ज्ञान-समृद्ध होने का अवसर प्राप्त हुआ। प्राचीन भारतीय अभिलेखों और वास्तुकला में शरीर विज्ञान, आयुर्वेद, मनोविज्ञान तथा अन्य विषयों से संबंधित जानकारी प्राप्त होती है। निश्चय ही, ये भारतीय ज्ञान-परंपरा और इतिहास की समृद्धि के सूचक हैं।
गणित और विज्ञान में आर्यभट्ट, भास्कराचार्य, ब्रह्मगुप्त, रामानुज, कणाद, नागार्जुन के साथ-साथ चिकित्सा में सुश्रुत और चरक आदि ने प्राचीन भारत को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का भंडार बना दिया था। नालंदा, तक्षशिला जैसे भारत के प्राचीन ज्ञान-मंदिर महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के साथ औपनिवेशिक प्रभुत्व, प्रतिकूलताओं और विध्वंस के युगों का भी प्रमाण देते हैं। विदेशी आक्रमणकारियों और औपनिवेशिक शक्तियों ने अपने एजंडे के अनुरूप भारत के इन संस्थानों, भारतीय ज्ञान-परंपरा और अर्थव्यवस्था का विध्वंस करने का कार्य किया। उनके वर्चस्व के परिणामस्वरूप प्राचीन भारतीय ज्ञान परंपरा नष्ट-भ्रष्ट हो गई।
औपनिवेशिक शासन में समृद्ध भारतीय ज्ञान-परंपरा का अवमूल्यन कर विदेशी पाठ्यक्रमों, अंग्रेजी भाषा और मूल्यों को लागू करने के जबरिया प्रयास किए गए। मैकाले द्वारा प्रतिपादित बाबू पैदा करने वाली शिक्षा नीति 1835 में लागू हुई। हालांकि, समय-समय पर इसका प्रतिकार भी हुआ। राजा राममोहन राय, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे दूरदर्शी विद्वानों और विचारकों ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा सूचना संग्रहण और प्रसारण का उपकरण नहीं होनी चाहिए, जैसा कि औपनिवेशिक शासन द्वारा किया जा रहा था। बल्कि, शिक्षा नागरिकों में आलोचनात्मक सोच, नवाचार और सांस्कृतिक अस्मिता के जागरण का भी साधन होनी चाहिए।
एंगस मेडिसन नामक ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार ने लिखा है कि 1700 ई. में विश्व अर्थव्यवस्था में भारत की हिस्सेदारी 27 फीसद थी, जो अंग्रेजी शासन की औपचारिक शुरुआत (1757) में घटकर 23 फीसद हो गई। आजादी के समय यह मात्र तीन फीसद रह गई थी। मिन्हाज मर्चेंट और शशि थरूर (‘ऐन एरा आफ डार्कनेस’ नामक पुस्तक) ने औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा लूटी गई संपदा की गणना करते हुए उसे तीन खरब डालर बताया है। यह 2015 में ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद से भी कहीं ज्यादा है। इस प्रकार विदेशी शासन ने भारत को बौद्धिक, सांस्कृतिक और आर्थिक स्तर पर खोखला करते हुए दिवालिया कर दिया।
औपनिवेशिक काल में हुए नुकसान की भरपाई करने का सबसे विश्वसनीय तरीका अद्यतन अनुसंधान है। अनुसंधान की गहनता और ज्ञान-विज्ञान की उत्कृष्टता, आध्यात्मिक उन्नति तथा आर्थिक समृद्धि की पारस्परिकता को स्वीकार करते हुए ही भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन’ की स्थापना की है। यह प्राचीनतम और समृद्ध भारतीय ज्ञान परंपरा का पुनराविष्कार करने और भारत के वर्तमान शोचनीय शोध परिदृश्य में आमूलचूल परिवर्तन करने की महत्त्वपूर्ण पहल है। निश्चित रूप से यह पहल भारत में अनुसंधान-वृत्ति को बढ़ावा देने, नवाचार पैदा करने और शिक्षा के स्तर को उन्नत बनाने में योगदान देगी। यह कदम अनुसंधान के महत्त्व की स्वीकृति और वैज्ञानिक प्रगति की आवश्यकता के प्रति भारत की सजगता का प्रमाण है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति, शिक्षा और अनुसंधान के क्षेत्र में बुनियादी सुधार तथा शिक्षा के समावेशी स्वरूप पर बल देती है। यह शैक्षणिक संस्थानों में अनुसंधान, नवाचार और रचनात्मकता को बढ़ावा देने जैसे उद्देश्यों पर केंद्रित है। इसमें अंतर्निहित मूल भाव देश के युवाओं को अपने देश की प्रगति में ठोस योगदान देने की क्षमता से लैस करना है। नई शिक्षा नीति के इन लक्ष्यों को प्राप्त करने में ‘राष्ट्रीय अनुसंधान फाउंडेशन’ महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा। यह फाउंडेशन प्राकृतिक विज्ञान, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, मानविकी, कला और सामाजिक विज्ञान सहित विविध क्षेत्रों में अनुसंधान, नवाचार और उद्यमिता के लिए रणनीतिक मार्गदर्शन प्रदान करेगा। ज्ञान-विज्ञान, अनुसंधान, समाज, उद्योग और सरकार के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देने में भी इस फाउंडेशन की भूमिका प्रभावी होगी।
आज भारत ने प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण नवाचार किए हैं। भारत में कुशाग्र बुद्धिमत्ता और विपुल मानव संसाधन है, मगर अब भी हम कई चुनौतियों से जूझ रहे हैं। भारत की 140 करोड़ आबादी का काफी बड़ा हिस्सा अब भी मूलभूत भौतिक सुविधाओं से वंचित है। ऐसी तमाम चुनौतियों से निपटने के लिए भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुसंधान के लिए प्रोत्साहित करना और अधिक से अधिक सुविधाएं प्रदान करना अभीष्ट है। आज भी अनुसंधान पर हमारे यहां व्यय की जाने वाली राशि दुनिया में आनुपातिक रूप से कम है। सरकार के सामने इन संस्थानों को पर्याप्त बजट आबंटित करने की बड़ी चुनौती है। इसके लिए सरकारी शोध बजट को बढ़ाने के अलावा निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ाने की भी आवश्यकता है।
भारतीय इतिहास, कला, मानविकी और भारतीय भाषाओं में शोध को प्रोत्साहित करने और आर्थिक सहयोग देने की आवश्यकता है। देश की युवा पीढ़ी को तकनीकी सुविधाओं और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस करने की जरूरत है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दूरदर्शी पहल करते हुए सरकार ने एनआरएफ की स्थापना की है। इस फाउंडेशन की परिकल्पना न केवल वर्तमान अनुसंधान-वृत्ति को बढ़ावा देने, बल्कि अनुसंधान की परिवेशगत चुनौतियों से निपटने के लिए भी की गई है। सरकार द्वारा उठाया गया यह कदम निश्चित रूप से भारत को वैश्विक अनुसंधान पटल पर स्थापित करते हुए सर्वसमावेशी और टिकाऊ विकास का माध्यम बनेगा।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तत्वावधान में इस फाउंडेशन का प्रबंधन एक सशक्त संचालन समिति के हाथ में रहेगा। इसमें विभिन्न क्षेत्रों के अनुभवी और प्रतिष्ठित शोधकर्ता और पेशेवर लोग शामिल होंगे। स्वयं प्रधानमंत्री इस फाउंडेशन की संचालन समिति के अध्यक्ष होंगे। उनके साथ केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री तथा केंद्रीय शिक्षा मंत्री उपाध्यक्ष होंगे। एनआरएफ के संचालन को भारत सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार देखेंगे। इनके पास कार्यकारी परिषद की अध्यक्षता का दायित्व भी रहेगा।
यह फाउंडेशन शिक्षा जगत, उद्योग जगत, सरकारी विभागों और देश के शोध संस्थानों के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देगा। इसमें वैज्ञानिकों और विभिन्न मंत्रालयों के साथ उद्योग जगत तथा राज्य सरकारों को भी शामिल किया जाएगा। इस प्रकार यह पहल उन नीतियों और नियामक ढांचों को तैयार करने पर जोर देगी, जो आपसी सहयोग को बढ़ावा देते और अनुसंधान तथा विकास की दिशा में उद्योग जगत की भूमिका को बढ़ाते हैं।
उच्च कोटि के अनुसंधान के माध्यम से ही आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन जैसे देशों का उदाहरण हमारे सामने है। निकट भविष्य में प्रौद्योगिक प्रगति ही आत्मनिर्भरता की आधारभूमि होगी। ध्यान रखने की बात है कि लालफीताशाही की समाप्ति करके, आधारभूत ढांचे और आर्थिक संसाधनों की नियमित और समुचित उपलब्धता सुनिश्चित करके, प्रतिभाओं की पहचान और उन्हें पर्याप्त प्रोत्साहन देकर ही यह फाउंडेशन अपने घोषित लक्ष्यों को प्राप्त कर सकेगा। इसके प्रबंध-तंत्र को भी राजनीतिक आग्रहों और हस्तक्षेप से मुक्त रखते हुए आवश्यक स्वायत्तता दी जानी चाहिए।