भारत में आम आदमी को इलाज संबंधी जिन समस्याओं का सबसे अधिक सामना करना पड़ता है, उनमें इलाज का महंगा होना और नकली दवाओं से होने वाला नुकसान शामिल हैं। केंद्र सरकार ने गरीबों को बेहतर इलाज और सस्ती दवाएं उपलब्धता कराने के लिए कई कदम उठाए हैं, मगर आम आदमी की परेशानी अब भी बनी हुई है।
गंभीर बीमारी के इलाज में इतना पैसा खर्च हो जाता है कि करोड़ों लोग अनचाही गरीबी की गिरफ्त में आ जाते हैं। पैसे की कमी के चलते जिंदगी तनाव, परेशानियों और समस्याओं का पर्याय बन जाती है। ऐसे में सवाल है कि सरकार के दावों और हकीकत में जो अंतर आमतौर पर देखने को मिलता है, क्या वह भारत के आर्थिक महाशक्ति बनने के दावों की पोल नहीं खोलता?
‘इंश्योरटेक कंपनी प्लस’ के आंकड़े बताते हैं कि भारत में चिकित्सा स्फीति दर एशिया में सबसे ज्यादा है। यह बढ़ते-बढ़ते 14 फीसद के करीब पहुंच गई है। इसका असर यह हुआ है कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में संक्रामक बीमारियों पर होने वाला खर्च पिछले पांच साल में दोगुने से ज्यादा हो गया है और दूसरी बीमारियों में होने वाला खर्च तेजी से बढ़ा है।
रिपोर्ट कहती है कि इस समस्या का नौ करोड़ से ज्यादा लोगों पर असमान रूप से असर पड़ा है। स्वास्थ्य बीमा लेने वालों में 71 फीसद लोग व्यक्तिगत रूप से स्वास्थ्य बीमा कराते हैं। सिर्फ 15 फीसद कर्मचारियों को अपने नियोक्ताओं की ओर से स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जाता है। सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि कोरोना के बाद स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं में वृद्धि हुई है।
दवाइयां महंगी हुई हैं और दूसरे खर्चों में वृद्धि हुई है। पहले ये खर्च तीन से चार फीसद हुआ करते थे, जो अब बढ़कर पंद्रह फीसद के करीब हो गए हैं। सर्वेक्षण से पता चला है कि महंगी स्वास्थ्य सेवाओं की वजह से 59 फीसद लोग स्वास्थ्य की जांच कराने से कतराते और 90 फीसद लोग नियमित परामर्श की उपेक्षा करते हैं।
सर्वेक्षण से पता चला है कि पिछले कुछ सालों में दवाओं की कीमत में 15-20 फीसद तक की वृद्धि हो चुकी है। इनमें हृदय, रक्तचाप और मधुमेह की दवाएं प्रमुख हैं। दवाओं के लगातार महंगी होते जाने और नकली दवाइयों की वजह से सामान्य आय वर्ग वाले व्यक्ति के ऊपर अनचाहा भार पड़ रहा है। परिवार के भरण-पोषण के लिए जो पैसा खर्च होता है उसमें कटौती ही नहीं करनी पड़ रही है, बल्कि कर्ज भी लेना पड़ रहा है।
संक्रामक, खतरनाक और गंभीर बीमारियों के इलाज में अब इतना ज्यादा खर्च होने लगा है कि जो लोग गरीब नहीं होते, वे भी गरीब हो जाते हैं। इसकी वजह से परिवार में तनाव, कलह और विघटन पैदा हो रहे हैं। एक समस्या या परेशानी को खत्म करने में हैसियत से ज्यादा खर्च करने की वजह से अनेक परिवार कर्ज के बोझ से ऐसे दब गए कि परिवार के तमाम लोग अति गंभीर बीमारियों का शिकार होकर चल बसे।
सरकारी अस्पतालों में खर्च भले कम होता हो, लेकिन वहां इतनी अधिक भीड़ है कि इलाज कराना मुश्किल होता है। फिर, दवाइयां बाहर से लेनी होती हैं। मेडिकल स्टोरों की महालूट से जनता को कैसे निजात दिलाई जाए, यह बहुत बड़ा सवाल है। केंद्र सरकार ने पिछले आठ सालों में तमाम शहरों में जेनेरिक दवा केंद्र से सस्ती दवाइयां उपलब्ध कराने की कोशिश की है। इससे करोड़ों लोगों को फायदा हुआ है, लेकिन इन केंद्रों पर वे दवाइयां कम ही होती हैं, जो गंभीर बीमारियों में दी जाती हैं।
लोक लुभावन योजनाओं का फायदा आम आदमी को कितना मिल रहा है, वह जेनेरिक दवा केंद्रों का सर्वेक्षण कर समझा जा सकता है। महंगी दवाएं खरीदना रोगी के परिवार की मजबूरी है, लेकिन अगर केंद्र और राज्य सरकारें ईमानदार पहल करें और चिकित्सा तंत्र में फैले अखंड भ्रष्टाचार से निजात दिलाने के लिए कठोर कदम उठाए जाएं तो आम आदमी को महंगी दवाइयां खरीने की मजबूरी से कुछ राहत जरूर मिल सकती है।
हाल के वर्षों में स्वास्थ्य पर जीडीपी के मुकाबले सरकारी खर्च में इजाफा हुआ है। यह पहली बार है जब केंद्र सरकार ने स्वास्थ्य पर पिछले वर्षों की अपेक्षा अधिक बजट का प्रावधान किया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 में इलाज पर मरीजों द्वारा जेब से किया जाने वाला खर्च कुल स्वास्थ्य खर्च का जहां 48.8 फीसद हुआ करता था, वह 2018-19 में घट कर 47.1 फीसद पर आ गया।
यह स्वास्थ्य पर कुल खर्च में सरकार का हिस्सा बढ़ने की वजह से संभव हुआ। इसी तरह आयुष्मान भारत के तहत पचास करोड़ गरीबों को पांच लाख रुपए का मुफ्त इलाज मिल रहा है। इससे गरीबों को अब तक अस्सी हजार करोड़ रुपए की बचत हो चुकी है। इसी तरह नौ हजार जन औषधि केंद्रों से मिलने वाली सस्ती दवाइयों की वजह से गरीबों को बीस हजार करोड़ रुपए की बचत हुई है।
सरकार के अनुसार 2017-18 में स्वास्थ्य पर जीडीपी का 3.3 फीसद खर्च किया गया था, वह 2018-19 में 3.2 फीसद रहा, लेकिन 2019-20 में 3.3 फीसद खर्च किया गया। केंद्र सरकार ने चरणबद्ध तरीके से स्वास्थ्य योजनाओं को ही नहीं लागू किया, बल्कि जेनेरिक दवाओं के जरिए सामान्य तबके को सस्ती दवाइयां मुहैया कराने की कोशिश की। जहां तक स्वास्थ्य परिवार कल्याण के लिए बजट का सवाल है, उनमें वृद्धि करके आम आदमी को कुछ राहत और फायदा पहुंचाने के कदम जरूर उठाए।
सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2023-24 में स्वास्थ्य परिवार कल्याण के लिए बजट प्रावधान को बढ़ाकर 86,175 करोड़ रुपए कर दिया गया। यह 2017-18 के मुकाबले (47,353 करोड़) के 82 फीसद ज्यादा है। गौरतलब है कि पिछले वर्षों में केंद्र सरकार ने चार मिशन मोड शुरू किए हैं, जिनमें पीएम आयुष्मान भारत हेल्थ इंफ्रास्टक्चर मिशन, आयुष्मान भारत हेल्थ ऐंड वेलनेस सेंटर्स, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना और आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन प्रमुख हैं।
इन योजनाओं से आम आदमी को फायदा तो हुआ है, लेकिन उतना नहीं हुआ, जितनी इनसे हो सकता है। इसलिए केंद्र सरकार को इन योजनाओं का फायदा घर-घर पहुंचाने के लिए ऐसा कदम उठाना चाहिए, जिससे आम आदमी को सस्ती स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो सके और लोगों को केंद्र सरकार की योजनाओं के बारे में ठीक-ठीक जानकारी हो सके। इससे जहां गरीबों और कम आय वर्ग के लोगों को फायदा मिलेगा, वहीं आम आदमी के लिए शुरू की गई सुविधाओं का लाभ उन्हें मिल सकेगा।
सस्ती दवाइयों की उपलब्धता के साथ आम आदमी को नकली दवाओं को खरीदने की समस्या से रूबरू होना पड़ता है। सर्वेक्षण बताते हैं कि अरबों रुपए की नकली दवाएं धड़ल्ले से बिक रही हैं, लेकिन बेचने और इनको बनाने वालों पर सख्त कार्रवाई नहीं की जाती। नकली दवाएं भी महंगी हैं, लेकिन उनके सेवन से मरीज ठीक होने के बजाय अधिक बीमार हो जाता है।
इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को सस्ती दवाओं की उपलब्धता के साथ असली दवाइयों की बिक्री भी सुनिश्चित करनी चाहिए। गौरतलब है कि भारत में नकली दवा बनाने और बेचने वालों या संस्थानों के खिलाफ ऐसा कठोर कानून नहीं है, जिससे उनमें कानून को लेकर दहशत पैदा हो और ऐसा अवैध काम करने से वे घबराएं। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वक्त में सरकारों द्वारा ऐसे व्यावहारिक कदम जरूर उठाए जाएंगे, जिनसे महंगी दवाओं को कम दाम में उपलब्ध कराया जा सके।