त्योहारों और क्रिकेट के इस मौसम में आसान है भूलना कि उत्तरकाशी की एक अंधेरी, डरावनी सुरंग में मलबे के नीचे दबे हुए हैं चालीस मजदूर एक पूरे हफ्ते से। इन शब्दों को लिखते समय दुआ करती हूं कि जब तक आपके पास ये लेख पहुंचे, ये मजदूर जिंदा, सलामत उस अंधेरी सुरंग में से निकाल दिए गए होंगे। सच पूछिए मुझे तकलीफ हुई है यह देख कर कि मेरे पत्रकार भाई-बहन इन बदकिस्मत मजदूरों के बारे में इतना भी मालूम करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं कि इनके नाम क्या हैं, इनकी उम्र कितनी है, इनके परिवार में कौन हैं। क्या इतनी सस्ती है इनकी जान कि इनके नाम तक पूछने की जरूरत किसी को महसूस नहीं हो रही है? दिवाली के दिन आई थी उत्तरकाशी में इन मजदूरों के दब जाने की खबर।
उस दिन लक्ष्मी पूजा और दीये जलाने में व्यस्त थे सब, तो पत्रकारों ने उस सुरंग तक जाने की जरूरत नहीं समझी, जिसमें अचानक इतना मलबा गिर गया कि चालीस लोग जिंदा फंस गए। पहली खबर सिर्फ उन्होंने दी, जिनका काम था इन मजदूरों को सुरक्षित रखने का। उन्होंने आश्वासन दिया कि कुछ घंटों में इनको बचा लिया जाएगा।
जब पत्रकार वहां पहुंचे तो उनको यही आश्वासन दिया गया। इसलिए जब तक इस खबर को सुर्खियों में लाया गया, तब तक चार दिन गुजर चुके थे। तब तक दिल्ली से बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्री पहुंच गए थे सुरंग तक, जिन्होंने पत्रकारों को फिर से आश्वस्त किया कि अंधेरों में कैद हुए मजदूर जीवित और सुरक्षित हैं। उनको हम खाना-पानी पहुंचा रहे हैं और आक्सीजन भी डाल रहे हैं मलबे के नीचे, ताकि वे बिल्कुल ठीक रहें।
सवाल है कि इतने दिन अंधेरे में पड़े रहने के बाद कोई वास्तव में ‘ठीक’ हो सकता है? सवाल और भी हैं बहुत सारे। क्या सुरंग में इन मजदूरों को भेजने से पहले मलबा न गिरने के लिए वे सब कदम उठाए गए थे जो लाजिमी हैं? मेरे एक दोस्त हैं, जिनकी निर्माण कंपनी सड़कें और सुरंग के निर्माण में अनुभवी है। मैंने जब उनसे पूछा कि सुरंग के निर्माण में मजदूरों की सुरक्षा के लिए क्या कदम उठाना अनिवार्य है, तो उन्होंने कहा कि बहुत जरूरी है सुरंग की छत को मजबूत करना। उनका कहना है कि अगर ऐसा किया जाता है तो इतना मलबा अचानक गिरने की आशंका कम हो जाती है। क्या ऐसा किया गया था इस सुरंग में? क्या पूरी तरह कोशिश की गई थी मजदूरों को सुरक्षित रखने की उनको इस सुरंग में काम के लिए भेजने से पहले?
केंद्रीय मंत्री और पूर्व सेना अध्यक्ष वीके सिंह से जब पत्रकारों ने यह सवाल किया तो जवाब मिला कि फिलहाल मजदूरों को सुरक्षित निकालने पर ध्यान दिया जा रहा है, सवाल बाद में पूछे जाएंगे। लेकिन अक्सर होता यह है कि दुर्घटना के बाद उसको भुलाने का काम होता है, सवालों के जवाब देने का नहीं। इस साल बरसात के मौसम में कई बार हिमाचल और उत्तराखंड में ऐसी बाढ़ आई है कि पूरे गांव बह गए हैं गंगाजी में और शहरों की पूरी की पूरी बस्तियां बह गई हैं नदियों में उफान के कारण।
अक्तूबर के महीने में सिक्किम की एक झील फट गई थी और उसके पानी में डूब गए थे कोई पचास लोग। इन हादसों के बाद हो सकता है जांच समितियां बैठा दी गई हों जो तहकीकात कर रही हों। लेकिन पत्रकारों द्वारा कोई खोजी पत्रकारिता निजी तौर पर नहीं दिखी है।
अपने ही भाइयों के बारे में बुरा-भला कहने से अक्सर कतराती हूं, लेकिन अगर हम लोग अपना काम ईमानदारी से कर रहे होते तो शायद बहुत पहले ही सावधान हो गई होतीं वे सरकारें, जिनके आदेश पर बन रही हैं बड़ी-बड़ी सड़कें और लंबी-लंबी सुरंगें। माना कि कई देशों में महानगर बनाए गए हैं पहाड़ों को तोड़ कर, लेकिन जानकार मानते हैं कि हिमालय में ऐसा बहुत ही सावधानी से करना होगा, क्योंकि ये नए पहाड़ हैं जो आसानी से टूट सकते हैं। हम मीडियावालों ने इस बात पर ध्यान दिया होता, तो हो सकता है जितनी तेजी से निर्माण हो रहा है हिमालय में, वह थोड़ी सावधानी से होता।
भारत में समस्या एक और है। वह यह कि जो लोग पर्यावरण के ज्ञानी माने जाते हैं, वे ज्यादातर ढोंगी हैं, जिन्होंने न तो इन चीजों के बारे में पूरी तरह शिक्षा ली है और न ही पर्यावरण के किसी विशेष पहलू पर पूरा ज्ञान हासिल किया है। नतीजा यह कि जब कोई हादसा होता है बड़े पैमाने पर, तो ये ‘विशेषज्ञ’ निकल कर आते हैं अपने बिलों से और खूब हल्ला मचाते हैं कुछ दिनों के लिए और उसके बाद फिर से अदृश्य हो जाते हैं। मेरी कई बार ऐसे ज्ञानियों से मुलाकात हुई है और यकीन मानिए जब कहती हूं कि इनमें से एक भी व्यक्ति नहीं मिला है मुझे भारत में, जिसको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई पर्यावरण विशेषज्ञ मानेगा।
आशा करती हूं कि जब तक इस लेख को आप पढ़ेंगे तब तक वे चालीस मजदूर सुरक्षित निकाल लिए गए होंगे और इस बार उन तमाम सवालों के जवाब भी मिल जाएंगे, जिनको बहुत पहले पूछा जाना चाहिए था। सबसे अहम सवाल यह है कि क्या जो बड़े-बड़े हाइवे बन रहे हैं हिमालय के पहाड़ों में, उनकी जरूरत भी है कि नहीं।
सीमा सुरक्षा बल काफी सालों से बना रहा है सड़कें जो सीमा तक हमारे सिपाहियों को ले जाती हैं, लेकिन ये सड़कें हाइवे या उच्चमार्ग नहीं होती हैं। अब जब बन रहे हैं बड़े-बड़े हाइवे और बस रहे हैं बड़े-बड़े शहर हिमालय की गोद में, इनके निर्माण से पहले पूरी जांच होनी चाहिए पर्यावरण के असली विशेषज्ञों द्वारा।