उत्तरकाशी के सिलक्यारा स्थित टनल में फंसे 40 मजूरों को अभी तक निकाला नहीं जा सका है। आज रेस्क्यू ऑपरेशन का पांचवा दिन है लेकिन अभी भी यह कहना मुश्किल है कि टनल में फंसे मजदूरों को कब तक बाहर निकाला जा सकेंगा। सिलक्यारा टनल का हिस्सा आखिरी क्यों ढहा होगा, इसको लेकर इंडियन एक्सप्रेस ने बातचीत कि L&T के पूर्व प्रोजेक्ट डॉयरेक्टर मनोज गरनायक से। मनोज अंडर ग्राउंड कंस्ट्रक्शन में एक्सपर्ट हैं। आइए उनसे जानते हैं टनल के एक हिस्से की आखिरी क्या वजह रही होगी और इसे कैसे रोका जा सकता था।
जो हिस्सा धंसा है, वह टनल के मुंह से 200-300 मीटर की दूरी पर है। ऐसा चट्टान के ढीले हिस्से की वजह से हो सकता है। हो सकता है यह कंस्ट्रक्शन के दौरान दिखाई नहीं दिया हो। इस पैच में टूटी या कमजोर चट्टान शामिल हो सकती है, यानी बहुत सारे जोड़ों वाली चट्टान जिसने इसे कमजोर बना दिया होगा।
एक अन्य वजह ढीले पैच से पानी का रिसाव भी हो सकती है। पानी समय के साथ ढीले चट्टानी कणों को खत्म कर देता है, जिससे टनल के टॉप पर एक खाली जगह बन जाती है। इसे देखा नहीं जा सकता। हालांकि, ये सिरफ जनरल प्रिंसिपल्स हैं, और हमें इस मामले में जांच की रिपोर्ट का इंतजरा करना चाहिए।
इसके दो तरीके हैं। ड्रिल व ब्लॉस्ट मेथड (DBM) और टनल बोरिंग मशीनों के जरिए टनल बनाने के लिए चट्टान खोदी जाती हैं। DBM में चट्टान में सुराख किए जाते हैं और उनमें विस्फोटक भरा जाता है। जब इनमें विस्फोट किया जाता है तो चट्टान टूटकर बिखर जाती है।
टनल बोरिंग मशीन के जरिए सुरंग बनाने में DBM से ज्यादा खर्चा होता है लेकिन TBM ज्यादा सुरक्षित है। TBM सामने से चट्टान में बोर करती हैं। भारत में इंपोर्टेड TBM का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसी मशीनों की कीमत 200 करोड़ रुपये तक हो सकती है।
TBM का इस्तेमाल बहुत ऊंचे पहाड़ों में ड्रिलिंग के लिए नहीं किया जा सकता। TBM के जरिए 1,000-2,000 मीटर ऊंचाई वाले पहाड़ में जगह बनाने से चट्टान फट जाती है। TBM तब काम की होती है, जब चट्टान की हाइट 400 मीटर तक हो। दिल्ली मेट्रो के लिए अंडर ग्राउंड सुरंगें TBM के जरिए खोदी गई हैं। दूसरी तरफ, जम्मू-कश्मीर और उत्तराखंड सहित हिमालय वाली जगहों पर, आमतौर पर DBM तकनीक का इस्तेमाल होता है।
जियोलॉजीकली हिमालय अभी भी युवा है (इनका निर्माण 40 मिलियन से 50 मिलियन साल पहले हुआ था) और इंडियन टेक्टोनिक प्लेट और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट के बीच टकराव की वजह से ये अभी भी बढ़ रहे हैं। हिमालय में ऐसे कुछ पैच हैं, जहां चट्टान वास्तव में सुरंग के लिए बहुत नाजुक है। लेकिन बाकी जगहों पर चट्टान बहुत अच्छी है।
मैंने हिमालय रिजन में काम किया है और बड़ी समस्याओं का सामना किए बिना सुरंगें बनाई हैं। हमने बहुत छोटी विफलताओं का भी सामना किया है। इन दिक्कतों को सुरंग के टॉप को ठीक करके तुरंत ठीक कर लिया गया। इसलिए भले ही कुछ जगहों पर चट्टान टूटी या नाजुक हो लेकिन इसे ठीक करने के लिए टेक्निकल सॉल्यूशन भी मौजूद है। एक और बात यह कि सुरंगें किसी पहाड़ की इकोलॉजी प्रभावित नहीं करतीं। टनल बनाने की तकनीक करीब 200 साल पुरानी है और अगर इन्हें सही से इस्तेमाल किया जाए तो सुरंगें खतरनाक नहीं होती हैं।