वीरेंद्र कुमार पैन्यूली
तपती धरती को और गर्म होने से बचाया जाना चाहिए, इस पर सबकी राय लगभग एक है। पर दुनिया के राजनेता चाहते हैं कि इसकी कीमत उन्हें न चुकानी पड़े, कोई दूसरा चुकाए। हालांकि यह महत्त्वपूर्ण है कि संयुक्त राष्ट्र महासचिव और पोप अपनी ओर से राजनेताओं पर लगातार दबाव बनाए हुए हैं।
2015 में पेरिस समझौता पृथ्वी के तापमान को शताब्दी के अंत तक पूर्व औद्योगिक काल के औसत से दो डिग्री सेंटीग्रेड ऊपर तक न जाने देने के लिए हुआ था। इसमें उम्मीद की गई थी कि अगर हो सके तो इसे 1.5 सेंटीग्रेड तक ही सीमित रखने का प्रयास होना चाहिए। पर चिंताजनक है कि 2023 में ऐसे दिनों की संख्या बढ़ी हुई दर्ज हुई, जब 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की यह सीमा टूटी है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस इस समय को जलवायु आपातकाल कहते हैं। दिल्ली में जी20 सम्मेलन में भी पहुंच कर वे जलवायु और पर्यावरण सत्र में चेता गए थे कि इस जलवायु आपदा काल पर तुरंत काम किया जाना चाहिए। जो कुछ जैसा चल रहा है, उसको हम वैसा जारी नहीं रख सकते हैं। वे लगातार कह रहे हैं कि अब और तेल निकालना बंद किया जाना चाहिए।
नए तेल उत्पादन के लिए न तो लाइसेंस और न ही पैसा दिया जाना चाहिए। पिछले वर्ष जारी संयुक्त राष्ट्र की ‘यूनाइटेड इमीशन गैप’ रिपोर्ट के अनुसार पेरिस जलवायु समझौता प्रभावी रहे, इसके लिए 23 अरब टन कार्बन डाईआक्साइड की कटौती जरूरी है। जबकि अभी विभिन्न देशों के एनडीसी यानी राष्ट्रीय स्तर पर तय सारी उत्सर्जन कटौतियों की शपथों को अगर जोड़ भी दिया जाए, तो कुल उत्सर्जन कटौती दो से तीन अरब टन की ही आती है। देशों ने अपने-अपने उत्सर्जन कटौती लक्ष्य आखिरी बार 2020 में घोषित किए थे। अब उन्हें यह 2025 में करना है।
विश्व के अन्य क्षेत्रों की ही तरह धनी देशों में भी जलवायु बदलाव के कारण अप्रत्याशित बेमौसमी बाढ़, लू के थपेड़े, चक्रवाती तूफान आपदाओं में तब्दील हो रहे हैं, लेकिन धनी देश आज भी जीवाश्म ईंधनों के उपयोग को बंद करने का समर्थन नहीं करते हैं। कम करने की बात भी आधी-अधूरी ही होती है।
एक अनुमान के मुताबिक, उत्तर के पांच मुख्य धनी देश अमेरिका, कनाडा, इग्लैंड, आस्ट्रेलिया और नार्वे वे देश हैं, जहां 2050 तक आधे से ज्यादा तेल और गैस के नए कुएं खोदे जाएंगे। भारत और चीन में भी तेल और कोयला दोहन बढ़ोतरी पर है। विश्व बैंक ने भी हाल में ही इंडोनेशिया की एक बड़ी कोयला परियोजना के लिए धन मंजूर किया है।
पृथ्वी के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इसलिए जैव ईंधन रोकने को लेकर वैश्विक जन उबाल और दबाव भी बढ़ रहा है। आज पूरे विश्व में लाखों जलवायु कार्यकर्ता सक्रिय हैं। 1980 से ही पर्यावरण पर काम करने वाली कई संस्थाएं यह कर रही थीं। बीते महीने 17 से 24 सितंबर के बीच न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र की अठहत्तरवीं महासभा के पहले विश्व के राजनेताओं पर दबाव बनाने के लिए 10 सितंबर से ही यूरोप, अफ्रीका, अमेरिका, दक्षिण पूर्वी एशिया में जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर पूर्ण पाबंदी की मांग को लेकर जगह-जगह हजारों लोगों, विशेषकर युवाओं ने प्रदर्शन किए और रैलियां निकाल कर अपने-अपने देशों में नए-नए तेल और गैस के कुएं खोदने का विरोध किया। प्रदर्शन इंडोनेशिया और फिलीपींस में भी हुए थे।
आस्ट्रिया के नगर विएना में हजारों जलवायु कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रीय जलवायु संरक्षण कानून की भी मांग की। जर्मनी के बर्लिन में समाचारों के अनुसार प्रदर्शनकारियों के हाथों में ऐसी तख्ती भी थी, जिस पर लिखा था- अभी इस जुलूस में चल लो, नहीं तो बाद में तैरना होगा। यह एक तरह से जलवायु परिवर्तन में आवासीय क्षेत्रों में बाढ़ और जल प्लावन की स्थितियों पर व्यंग्य था।
सबसे ज्यादा चर्चित प्रतिरोध न्यूयार्क के रहे। गुतारेस द्वारा 20 सितंबर 2023 को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय न्यूयार्क में आहूत विशेष नई ‘क्लाइमेट एंबीशन समिट’ पर दबाव बनाने के लिए वहां 10 सितंबर से ही ‘जैव ईंधन समाप्त करने के लिए जुलूस’ आरंभ हो गए थे। मिडटाउन और मैनहटन में रैलियां हुईं।
जो बाइडेन भी नए जीवाश्म ईंधन उत्पादों को अनुमति देने के लिए निशाने पर रहे। 17 सितंबर को न्यूयार्क में भी ‘जैव इंधन समाप्त करने के लिए जुलूस’ आयोजित हुआ। इसे चार सौ वैज्ञानिकों और पांच सौ से ज्यादा संगठनों ने समर्थन दिया था। न्यूयार्क में वैसे भी कोयला, तेल और गैस पर रोक लगाने की मांग बढ़ रही है। पर फिलहाल ऐसा लगता है कि राजनेताओं पर इन दबावों का असर नहीं पड़ा। उल्टे प्रदर्शनकारियों की गिरफ्तारियां भी हुई थीं।
25 नवंबर, 2022 को भी स्वीडन में युवकों ने अपनी संस्था ‘अरोरा’ के माध्यम से प्रदर्शन करते हुए स्वीडन सरकार पर जलवायु विषयों पर कुछ नहीं करने का आरोप लगाते हुए एक मुकदमा किया था। ऐसा उस देश की न्यायिक प्रणाली में पहली बार हुआ था। न्यूयार्क में जलवायु कार्यकर्ता ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र महासचिव भी अपनी नैतिक शक्ति का उपयोग कर राजनेताओं पर लगातार दबाव बना रहे थे।
उन्होंने 20 सितंबर को न्यूयार्क में एक विशेष बैठक भी बुलाई थी, मगर वे पहले ही यह कह चुके थे कि इसमें केवल उन्हीं नेताओं को बोलने दिया जाएगा जो गर्म होती पृथ्वी को बचाने के लिए प्रभावी नई कार्यवाही कर रहे हैं और अपने-अपने देशों में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बड़े देशों को इस जलवायु विमर्श में बोलने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। यह एक तरह से बिना नाम लिए जलवायु परिवर्तन की दिशा में कुछ न करने के लिए नेताओं को आईना दिखाना भी था।
धनी देश तकनीकी और आर्थिक स्थितियों के कारण जैव ऊर्जा को त्यागने की बेहतर स्थिति में हैं। मगर वे ऐसा करने को तैयार नहीं हैं। पृथ्वी के प्रति धनी देशों की संवेदनहीनता को देखते हुए गुतारेस ने सितंबर में महासभा के पहले इन देशों को पृथ्वी को तोड़ने वाला यानी ‘अर्थ ब्रेकर’ तक कह दिया था। पोप फ्रांसिस भी पिछले सात-आठ वर्षों से पृथ्वी के हित में नैतिक ताकत बने हुए हैं। वे 2015 के ऐतिहासिक पेरिस समझौते के पहले ही तेल कंपनियों और कार्यकर्ताओं को जलवायु आपातकाल के प्रति चेता चुके थे।
इसी महीने की शुरुआत में चार अक्तूबर. 2023 को पोप फ्रांसिस ने कहा कि धनी दुनिया को जलवायु संकट से निपटने के लिए बहुत बड़े बदलाव करने होंगे। दुनिया, जिसमें हम रह रहे हैं, वह ढह रही है। टूटने के कगार पर से लौट न पाने की स्थिति में हैं। जिस तेजी से जलवायु संकट से उबरने के हमें प्रयास करने चाहिए थे, उस तेजी से हमने नहीं किए। ‘काप 28’ को देशों को ऐतिहासिक बनाना होगा। मगर ‘कार्बन कैप्चर’ और भंडारण तकनीक पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जाना चाहिए। यह बर्फ की गेंद को पहाड़ी ढलान से लुढ़काने जैसा है।
अब 30 नवंबर से 12 दिसंबर 2023 तक बड़े तेल उत्पादक संयुक्त अरब अमीरात यानी यूएई की मेजबानी में दुबई में होने वाली ‘काप 28’ को लेकर कार्यकर्ताओं की चिंता बढ़ी है। दरअसल, यूएई तेल उपयोग कटौती के बजाय तकनीकों से कार्बन उत्सर्जन की वायुमंडल में पहुंच पर कटौती और लगाम लगाने का पक्षधर है।
इसलिए इसमें जीवाश्म ईंधनों पर रोक का निर्णय तो नहीं ही आने की गुंजाइश लगती है। पर पोप को उम्मीद है कि शायद ‘काप 28’ में हम उस मानसिकता से बाहर निकलेंगे, जिसमें हम चिंता तो करते हैं, लेकिन कुछ प्रभावकारी करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। पृथ्वी गर्म ही नहीं हो रही है, उबल रही है। ऐसे में कैसे छोड़ दिया जाए ज्वर ग्रस्त पृथ्वी को?