विधानसभा चुनावों की बिसात बिछने के बाद जीत के लिए समीकरण तैयार करने की प्रक्रिया सभी दलों में शुरू हो चुकी है। इस क्रम में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भारतीय जनता पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के लिए प्रत्याशी चाहे घोषित न किया हो, पर राज्य में उनके असर के मद्देनजर उनको खारिज करना उतना भी आसान नहीं था।
जिस तरह से पार्टी के कई शीर्ष नेता अब उनकी अगुआई का डंका पीटना शुरू कर चुके हैं, उससे यह साफ है कि इस चुनाव में उनका महत्त्व कायम है। हालांकि पार्टी के इस बदले हुए रुख से विधानसभा चुनाव में उतारे गए मंत्रियों, सांसदों और अन्य वरिष्ठ नेताओं को अपनी उम्मीदों पर पानी फिरता दिख रहा है।
कहीं निराशा झलकने लगी है तो कहीं एक खलबली-सी मच गई है। पार्टी सूत्रों का कहना है कि यह एक मजबूरी भी थी, क्योंकि सभी आधिकारिक और अनधिकृत सर्वेक्षणों में शिवराज ही मुख्यमंत्री पद के लिए पहली पसंद थे। सूत्रों का यह भी कहना है कि यह सब चुनाव जीतने की कवायद में किया जा रहा है, असल में शिवराज दौड़ से बाहर हो चुके हैं।
चंद महल इब्राहिम ने एचडी कुमारस्वामी को पार्टी से निकालने की धमकी दी थी। पर हुआ उल्टा। जनता दल (सेकु) के मुखिया और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने गुरुवार को इब्राहिम को ही पार्टी से निष्कासित कर दिया। इतना ही नहीं, कर्नाटक प्रदेश की कार्यसमिति को भंग करने का भी एलान कर दिया। अपने बेटे कुमारस्वामी को प्रदेश जनता दल (सेकु) का तदर्थ अध्यक्ष भी बना दिया।
अब इब्राहिम कह रहे हैं कि चुनाव आयोग से पार्टी के संविधान का हवाला देते हुए शिकायत करेंगे या फिर अदालत भी जाएंगे। यों झगड़ा इब्राहिम का कुमारस्वामी से रहा है, एचडी देवेगौड़ा से नहीं। पर अगला लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ने का फैसला तो खुद देवेगौड़ा ने लिया था। इब्राहिम ने अपने निष्कासन की भूमिका सोमवार को चिंतन मनन बैठक के आयोजन से ही लिख ली थी।
बैनर पर कुमारस्वामी का फोटो तक नहीं लगाया था। पत्रकारों से कहा था कि वे भाजपा के साथ तालमेल के फैसले पर पुनर्विचार के लिए देवगौड़ा से अनुरोध करेंगे। भाजपा से तालमेल किया तो फिर पार्टी के नाम में जुड़े ‘सेक्युलर’ शब्द का कोई औचित्य नहीं बचेगा। कुमारस्वामी ने इब्राहिम के बागी तेवर देख टिप्पणी की थी कि वे केवल मुसलमान वोट के लिए राजनीति में नहीं हैं। वाकयुद्ध में इब्राहीम ने यह भी धमकी दी थी कि भाजपा से तालमेल किया तो पार्टी टूट जाएगी।
दरअसल, अपने सियासी करिअर की शुरुआत कांग्रेस से करने वाले इब्राहीम बाद में देवगौड़ा के साथ जनता दल में शामिल हो गए थे। देवगौड़ा 1996 में जब प्रधानमंत्री बने तो दिल्ली के सियासी गलियारों में सीएम इब्राहीम को ही उनका सबसे करीबी माना जाता था। इब्राहीम 2008 में कांग्रेस में चले गए थे, लेकिन कुछ दिन बाद फिर देवगौड़ा के साथ आ गए। देवगौड़ा ने 2016 में उन्हें एमएलसी बनाया। कुमारस्वामी की मानें तो इब्राहीम कांग्रेस और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दोनों का खेल खेल रहे हैं। उनके निष्कासन का पार्टी पर क्या असर होगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
अब तो यह यकीन भी नहीं आता कि कभी आम आदमी पार्टी के नेता दुहाई देते फिर रहे थे कि बंगला नहीं लेंगे, गाड़ी नहीं लेंगे। अब जिस तरह से बंगले के लिए कोर्ट-कचहरी की जा रही है, ऐसा लगता है कि ये तो शायद आए ही इस सबके लिए थे। शुरुआती दौर के सादगी के वे दावे हवा होते दिख रहे हैं, जिन पर दिल्ली में मतदाताओं का एक बड़ा तबका रीझ गया था। अब पार्टी नेताओं से लेकर समूची पार्टी का अलग चेहरा सामने आ रहा है। हर दूसरे विभाग में भ्रष्टाचार की शिकायतें आ रहीं हैं। मंत्री, सांसद जेल में पड़े हैं। कई और लाइन में लगे हैं। दरअसल, पार्टी के अगुआ ही जब इस सब के लिए मारामारी मचाए हुए हैं तो बाकी का तो कहना ही क्या!
आखिर वह हो ही गया, जिसकी पहले दिन से आशंका थी। इंडिया गठबंधन में दरार आ ही गई। इस पर सबसे पहले समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव मुखर हुए हैं। इससे पहले आम आदमी पार्टी की सुगबुगाहट की खबरें भी आती रहींं, पर वह दबा-दबा ही था। विरोधाभास तो पहले से ही झलक रहे थे, पर दोनों पार्टियां मौका संभाले हुए थीं। जब मामला अवसर और इसके हाथ से निकल जाने की आशंका से जुड़ा हो तो इच्छाएं और सवाल कब तक कैसे संभलतीं? अखिलेश का मुद्दा भी गलत नहीं लगता कि गठबंधन सिर्फ लोकसभा के लिए होगा, पर राज्यों के लिए नहीं।
इससे प्रादेशिक पार्टियों को क्या लाभ होगा? राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर पार्टियों के बीच राजनीतिक समीकरण आमतौर पर अलग होते हैं। आज नहीं तो कल यह मुद्दा अखिलेश की तरह गठबंधन के बाकी घटक भी उठा सकते हैं। नीतीश कुमार एकाधिक बार खफा-खफा दिखाई दे ही चुके हैं। भले ही उनकी बात दबती रही है, लेकिन उसके पीछे कोई तो वजह होगी ही। ऐसे ही चलता रहा तो कहीं भाजपा की भविष्यवाणी सच ही न हो जाए कि भानुमति का यह कुनबा चुनाव से पहले ही बिखर जाएगा!
भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा के बीच नोकझोंक कोई नई बात नहीं। दोनों अक्सर एक्स यानी ट्विटर पर आपस में भिड़ते रहते हैं। अब तक यह मसला आरोप-प्रत्यारोप की शक्ल में ही सार्वजनिक मंचों पर बहस का केंद्र बनता रहा है, लेकिन इस बार यह लड़ाई दूर तक चली गई है। महुआ दरअसल निशिकांत पर उनकी डिग्री को लेकर हमलावर रहती हैं।
स्वाभाविक ही अपने बचाव में निशिकांत भी कई तरफ से उन पर आक्रमण करते रहे हैं। मगर आरोप और तथ्य के जद्दोजहद में विवाद ने इस स्तर पर तूल नहीं पकड़ा था। इस बार दुबे ने महुआ को जिस तरह घेरा है, उस चक्रव्यूह से निकलना शायद इतना भी आसान नहीं होगा।
इसके अलावा, महुआ के मामले में जिस तरह हीरानंदानी ने अपना बयान दिया है, उसके आधार पर देखा जाए, तो फिलहाल केवल खंडन के जरिए पार पाना मुश्किल होगा, क्योंकि डिजिटल माध्यमों से यह पता लगाना इतना भी कठिन नहीं होता है कि क्या वाकई महुआ ने अपना पासवर्ड साझा किया था। अभी तक के हालात में तो तृणमूल सांसद साफ-साफ मुश्किल में दिखाई दे रही हैं। अब आगे देखना है कि यह मुद्दा कौन-सा रास्ता अख्तियार करता है।
संकलन : मृणाल वल्लरी