चेतनादित्य आलोक
हाल के वर्षों में भारत समेत दुनिया भर में आपराधिक मामलों में आश्चर्यजनक रूप से किशोरों की संलिप्तता बढ़ी है। अपने यहां पिछले कुछ समय में ऐसी कई घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें बच्चों और किशोरों को छोटी-छोटी बातों पर हिंसक होते, यहां तक कि हत्या और बलात्कार जैसी क्रूरतम घटनाओं को अंजाम देते पाया गया है। मसलन, उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात में महज पांच साल की बच्ची के साथ सात साल के लड़के ने बलात्कार किया।
इसी प्रकार लगभग दो महीने पहले कानपुर में ही अपनी दोस्त से केवल बात करने के कारण एक तेरह वर्षीय छात्र ने अपने पंद्रह वर्षीय सहपाठी की गर्दन पर चाकू से छह वार कर किसी पेशेवर हत्यारे की तरह उसकी हत्या कर दी थी। घटना की जांच करने स्कूल पहुंचा पुलिस और फोरेंसिक दल किशोर की क्रूरता और निर्भीकता से हतप्रभ था। लगभग तीन महीने पहले उत्तर प्रदेश के ही रायबरेली लालगंज थाना इलाके में पंद्रह वर्षीय नाबालिग ने पांच लाख रुपए की फिरौती के लिए गर्मी की छुट्टी मनाने ननिहाल आए एक नौ वर्षीय बच्चे की अगवा कर हत्या कर दी थी।
दुर्भाग्य से आजकल ऐसी घटनाएं देश के अलग-अलग हिस्सों में अक्सर घटती रहती हैं। यह बेहद चिंताजनक है कि छोटे-छोटे मामलों में आजकल बच्चे दिल दहला देने वाली घटनाओं को बहुत आसानी से, बेहिचक अंजाम देने लगे हैं। छोटी उम्र के बच्चों और किशोरों के बेहद गंभीर अपराधों में शामिल होने की खबरें देश भर से अक्सर आती रहती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में दर्ज कुल 29,768 मामलों की तुलना में 2021 में देश भर में किशोरों के खिलाफ कुल 31,170 मामले दर्ज किए गए थे। यानी महज एक वर्ष के भीतर किशोर अपराध की दर 6.7 फीसद से बढ़ कर 7.0 फीसद हो गई। तात्पर्य यह कि 2021 में देश के सौ में से सात किशोर किसी न किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल थे। आंकड़ों पर गौर करें तो अपराध और कानून के उल्लंघन में शामिल सभी केंद्र शासित प्रदेशों के कुल 3129 किशोरों में से 2643 सिर्फ राजधानी दिल्ली के हैं, जबकि राजस्थान जैसे बड़े राज्य में 2757 तथा तमिलनाडु में 2212 मामले दर्ज हुए।
एनसीआरबी के अनुसार बीस लाख से अधिक जनसंख्या वाले उन्नीस महानगरों में ऐसे अपराधों की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है, जो 2019 में 6885, 2020 में 5974 और 2021 में 5828 थी, जबकि दिल्ली सर्वाधिक मामलों के साथ सूची में सबसे ऊपर बना हुआ है, जहां 2021 में 2618, 2019 में 2760 और 2020 में 2436 मामले दर्ज किए गए।
गौरतलब है कि ये तमाम आंकड़े महज पुलिस के दस्तावेज में दर्ज घटनाओं के होते हैं। इनके अलावा भी न जाने कितनी ऐसी घटनाएं देश भर में घटती होंगी, जो कभी प्रकाश में नहीं आ पातीं। जरा सोचिए कि जिस उम्र में बच्चे मिठाई, खिलौनों और बाहर खेलने जाने के लिए जिद करते हैं, उस उम्र में वे हत्या, बलात्कार और अपहरण जैसे नृशंस कृत्य को अंजाम देने लगे हैं। यह समाज के लिए खतरे की घंटी जैसी स्थिति है। निश्चित रूप से इसके लिए बच्चों की परवरिश करने वाले माता-पिता और शिक्षक ही नहीं, बल्कि हमारे पारिवारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और विद्यालयी परिवेश भी बहुत हद तक जिम्मेवार हैं। वैसे बच्चों को हिंसक बनाने में मोबाइल और टीवी की भी बहुत बड़ी भूमिका रही है।
गौरतलब है कि हिंसक होते बच्चों में से अधिकतर मोबाइल या टीवी के हिंसक दृश्यों से अभिप्रेरित होते हैं। अपने सहपाठी की बेहद बेदर्दी से हत्या करने वाले एक तेरह वर्षीय किशोर ने बिना किसी संकोच और चेहरे पर शिकन के पुलिस को बताया था कि उसने हत्या करने का तरीका आनलाइन, गूगल और यू-ट्यूब पर सर्च करके सीखा था।
यह विडंबना ही है कि आज सर्वत्र हिंसा का तत्त्व प्रभावी हो गया है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बच्चों के मानस को प्रभावित कर रहा है। अब तो जहां देखें वहीं हिंसा का आचरण दिखाई देता है। चाहे सिनेमा हो या टीवी, मोबाइल हो या वीडियो गेम, सर्वत्र हिंसा का ही बोलबाला है। इंटरनेट की विस्तृत दुनिया भी हिंसक दृश्यों और कार्यक्रमों से अटी पड़ी है। यहां तक कि आजकल समाचारों और विज्ञापनों में भी हिंसा वाले दृश्यों की भरमार होती है। एक दौर था, जब घर के बड़े बच्चों को समाचार देखने-सुनने के लिए कहते थे, ताकि वे देश-दुनिया की घटनाओं से अवगत हो सकें। विभिन्न प्रतियोगिताओं की तैयारी में लगे बच्चों को अपना सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिए समाचार देखना-सुनना जरूरी होता था।
इसी तरह पहले टीवी के विज्ञापन बड़े रोचक होते थे। कई बार तो ये कार्यक्रमों से भी बेहतर लगते थे, लेकिन अब इनमें भी कूट-कूटकर हिंसा भरी जाने लगी है। मच्छर, तिलचट्टा आदि मारने वाले उत्पादों के विज्ञापन तो इतने हिंसक होते हैं कि बच्चे सपने में भी कभी इन कीड़ों के प्रति सामान्य व्यवहार नहीं कर पाते, कारुणिक होना तो दूर की बात है। ऐसे में भला बच्चों को हिंसक दृश्यों और आचरणों से कैसे बचाकर रखा जा सकता है।
मनोरोग विशेषज्ञ भी मानते हैं कि दिमाग के अनुकूलन की वजह से बच्चे सिनेमा, वीडियो गेम और टीवी कार्यक्रमों के चरित्रों से सुगमता से प्रभावित होकर उन्हें अपना नायक मान लेते और स्वयं भी उन नायकों जैसा ही व्यवहार करने लगते हैं।
जाहिर है कि बच्चे असली और नकली दुनिया में फर्क नहीं कर पाते और असली जिंदगी में वे अपने नायकों के हिंसक आचरण को दोहराते हैं। जितनी सहजता से उनके नायक बंदूक को खिलौने की तरह चलाते हुए किसी को भी मार देते हैं, उससे बच्चों को लगता है कि किसी को बंदूक से मार देना उनके खेलने जैसा ही बिल्कुल सामान्य व्यवहार है। धीरे-धीरे यह व्यवहार उनका स्वभाव बन जाता है, जिसे छोड़ पाना उनके वश में नहीं रहता।
ऐसे में जब कोई उन्हें वीडियो गेम खेलने या टीवी देखने से रोकता है, तो वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण खोकर हिंसक हो जाते हैं। दरअसल, आपराधिक दृश्यों को अधिक देखने के कारण बच्चों में धैर्य रखने की क्षमता तेजी से घट रही है। इसके परिणामस्वरूप वे अत्यधिक चिड़चिड़े और क्रोधी होने लगे हैं।
यों, बच्चों में हिंसा की भावना सिर्फ हिंसक दृश्यों को देखने से नहीं पनपती, बल्कि इर्द-गिर्द के वातावरण तथा मानवीय व्यवहारों में होने वाले परिवर्तनों को जब उनका मस्तिष्क स्वीकार नहीं कर पाता, तब भी उनमें हिंसक प्रवृत्ति पनपती है। जाहिर है कि इस तेजी से बदलती दुनिया के रंग-ढंग और वातावरण की बेतरतीबी का भी बच्चों के व्यवहार पर काफी प्रभाव पड़ता है।
वहीं, कई बार दूसरे बच्चों की देखादेखी महंगे शौक और लड़की मित्रों को महंगे उपहार देने की इच्छा रखने वाले बच्चों की जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, तब उनके भीतर पल रही मनोवैज्ञानिक कुंठा और दबाव के कारण भी उनमें क्रोध पनपता है। तात्पर्य यह कि बच्चे कभी-कभी हिंसक व्यवहार से अपने भीतर का उद्गार भी प्रकट करते हैं।
बहरहाल, कारण कोई भी हो, माता-पिता और अभिभावकों का प्यार, उनकी निकटता और भावनात्मक सहयोग बच्चों के व्यवहार में बदलाव ला सकता है। सर्वेक्षणों में यह सिद्ध हो चुका है कि माता-पिता और अभिभावकों से दूरी भी बच्चों को खूंखार बनाती है। दुर्भाग्य से आजकल माता-पिता और अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है।