सुप्रीम कोर्ट में 26 सप्ताह की गर्भावस्था का एक मामला पहुंचा था। पीड़िता ने अपनी आर्थिक स्थिति और बीमारी को देखते हुए अबॉर्शन की इजाजत मांगी थी। मामला न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना की अदालत में पहुंचा। यहां लंबी बहस भी चली लेकिन मामले का कोई हल नहीं निकल सका। सुनवाई के दौरान कोर्ट के सामने यह प्रश्न खड़ा हो गया कि क्या किसी जीवित भ्रूण को नष्ट कर दिया जाए या ऐसे समय में उसे किसी भी प्रकार से लाइफ सपोर्ट दिया जा सकता है।
यह मामला 27 साल की एक महिला का है। उसके पहले से 2 बच्चे हैं। महिला प्रसवोत्तर अवसाद (Postpartum Depression) से पीड़ित है। बता दें कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (MTP Act) के तहत गर्भपात के लिए 24 सप्ताह तक की इजाजत है। महिला इस अवधि को पूरा कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ता की ओर से कहा गया कि पीड़िता लैक्टेशनल एमेनोरिया से पीड़ित है। इस बीमारी में स्तनपान कराने वाली महिलाओं के मासिक धर्म अनुपस्थित रह सकते हैं। पीड़िता को भी इसी वजह से पता नहीं चला कि उसे 5 महीने से उसके पीरियड मिस हो रहे हैं।
यह मामला जब पहली बार कोर्ट के सामने पहुंचा तो उसने एम्स के मेडिकल बोर्ड को इस पर विचार करने को कहा। केंद्र सरकार की ओर से पेश अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (ASG) ऐश्वर्या भाटी ने एक मेडिकल बोर्ड के तत्काल गठन की सिफारिश की थी। सोमवार को जस्टिस कोहली और जस्टिस नागरत्न की पीठ ने महिला को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति दी। एएसजी भाटी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ के समक्ष मामले का उल्लेख किया और केंद्र सरकार की ओर से तत्कालीन अप्रकाशित रिकॉल आवेदन को तत्काल सूचीबद्ध करने की मांग की। 9 अक्टूबर को बेंच ने गर्भपात की इजाजत दे दी थी।
वर्तमान मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी कानून के मुताबिक 20 सप्ताह तक की गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है। इसके अलावा भी अगर महिला की जान को खतरा हो, उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर असर पड़ता हो, अगर भ्रूण में असामान्यताएं हों या गर्भनिरोधक की विफलता के कारण गर्भावस्था हुई हो। यौन उत्पीड़न या अनाचार से पीड़ित महिलाओं, नाबालिगों, शारीरिक या मानसिक विकलांगता वाली महिलाओं या वैवाहिक स्थिति में बदलाव सहित अन्य महिलाओं को दो डॉक्टरों की राय पर 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है।