ब्रजेश कुमार तिवारी
मजबूत विनिर्माण के बिना, कोई भी बड़ा देश गरीबी से समृद्धि की ओर नहीं बढ़ पाया है। 25 सितंबर, 2014 को शुरू किए गए ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को अब नौ वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अभियान के कुछ घोषित लक्ष्य थे। मसलन, विनिर्माण क्षेत्र की विकास दर बारह से चौदह फीसद प्रति वर्ष सुनिश्चित करना; 2022 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण क्षेत्र के योगदान को पच्चीस फीसद तक बढ़ाना और 2022 तक विनिर्माण क्षेत्र में दस करोड़ नौकरियां पैदा करना। अब इन लक्ष्यों को 2025 तक बढ़ा दिया गया है। हालांकि मौजूदा गति और बुनियादी ढांचे की कमी को देखते हुए लक्ष्य को 2025 तक भी प्राप्त कर पाना संभव नहीं लगता।
पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद, भारत दुनिया के निर्यात में बमुश्किल 1.6 फीसद योगदान करता है। अभियान का एक प्राथमिक उद्देश्य 2022 तक भारतीय सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी को पच्चीस फीसद तक बढ़ाना था, हालांकि पिछले नौ वर्षों में यह चौदह से सोलह फीसद के बीच बना हुआ है।
कोरोना महामारी के दौरान इस बात का प्रचार हुआ कि जो कंपनियां चीन छोड़ेंगी, वे भारत आने वाली हैं, मगर इनमें से अधिकांश कंपनियों ने अपना आधार विएतनाम, ताइवान, थाईलैंड आदि में स्थानांतरित कर दिया है और कुछ ही भारत आई हैं। चीन, जिससे हम अपनी तुलना करना पसंद करते हैं, के जीडीपी में विनिर्माण की हिस्सेदारी उनतीस फीसद है। भारत की तुलना में जीडीपी में विनिर्माण का बड़ा हिस्सा रखने वाले अन्य एशियाई देशों में दक्षिण कोरिया (26 फीसद), जापान (21 फीसद), थाईलैंड (27 फीसद), सिंगापुर और मलेशिया (21 फीसद), इंडोनेशिया और फिलीपींस (19 फीसद) शामिल हैं।
अगर हम पिछले पांच वर्षों का हिसाब लगाएं, तो पता चलता है कि वस्तुओं और सेवाओं का कुल निर्यात वर्ष 2017-18 के 426.5 अरब डालर से बढ़ कर 2022-23 तक 767 अरब डालर हो गया। इसके भीतर, सेवा निर्यात का हिस्सा 2017-18 के 117.5 अरब डालर से बढ़ कर 2022-23 में 322.7 अरब डालर हो गया। स्पष्ट रूप से, हमारे निर्यात की वृद्धि में सेवा निर्यात का प्रमुख योगदान रहा है।
वस्तुओं के निर्यात में वृद्धि कम है, क्योंकि विनिर्माण पिछड़ रहा है और इसी कारण देश रोजगार विहीन आर्थिक विकास का अनुभव कर रहा है। दूसरी ओर, निर्यात की तुलना में आयात तेजी से बढ़ा है। नतीजतन, व्यापार घाटा (माल के आयात और निर्यात के मूल्य के बीच का अंतर) 2017-18 के 160 अरब डालर से बढ़ कर 2022-23 में 266.8 अरब डालर हो गया।
कुछ क्षेत्रों में विनिर्माण अच्छा हो रहा है, जैसे फार्मा निर्यात में 2013-14 के बाद से 103 फीसद की वृद्धि देखी गई है, जो 2013-14 के 90,415 करोड़ रुपए से बढ़ कर 2021-22 में 1,83,422 करोड़ रुपए हो गया है। 2014 में भारत का रक्षा आयात भारत के रक्षा निर्यात का चालीस गुना था। ‘मेक इन इंडिया’ के तहत यह बदल गया है। वित्तवर्ष 2021-22 के दौरान रक्षा निर्यात का मूल्य 14,000 करोड़ रुपए हो गया है।
भारत, जो परंपरागत रूप से खिलौनों का शुद्ध आयातक रहा है, अब निर्यातक बन गया है। भारत अब दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल फोन निर्माता है। आज चीन से मोबाइल फोन का आयात पचपन फीसद घट कर 2021-22 में 62.6 करोड़ डालर हो गया है, जो 2020-21 में 1.4 अरब डालर था। विश्व बैंक द्वारा जारी ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स’ में भारत ने तेजी से अपनी जगह बनाई है। वर्ष 2014 में भारत की ईडीबी रैंक 134वीं थी, यह बढ़कर तिरसठ हो गई है।
विश्व आर्थिक मंच द्वारा प्रकाशित वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता रपट सूचकांक में भारत तैंतालीसवें स्थान पर है, जो 2014 में साठवें स्थान पर था। भारतीय कंपनियों द्वारा कोरोना टीकों का निर्माण घरेलू स्तर पर एक शानदार उदाहरण है। आज डब्लूएचओ के सत्तर फीसद टीके भारत से प्राप्त होते हैं। साथ ही भारत ने पिछले बाईस वर्षों में अब तक का सबसे अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) दर्ज किया है। हालांकि यहां यह गौर करने की बात है कि ई-कामर्स, जिसका विनिर्माण या ‘मेक इन इंडिया’ से कोई लेना-देना नहीं है, एफडीआइ के प्रमुख क्षेत्रों में से एक है।
इस प्रगति के बावजूद, विनिर्माण क्षेत्र केवल एक स्थिर कार्यक्षेत्र रहा है। पिछले चार दशकों में यह सकल घरेलू उत्पाद के तेरह से सत्रह फीसद पर बना हुआ है। हर साल करोड़ों लैपटाप, डेस्कटाप और सर्वर भारत में बिकते हैं, जिनमें मदरबोर्ड, मेमोरी माडल और चिप आयात करके लगाए जा रहे हैं। हम इनके लिए दूसरे देशो पर निर्भर हैं।
आज भी ज्यादातर वस्तुओं का उत्पादन न होकर उनकी ‘असेंबलिंग’ हो रही है। ‘हार्मोनाइज्ड सिस्टम’ उत्पादों (एचएस-84, परमाणु रिएक्टर, बायलर, यांत्रिक उपकरण और उनके हिस्से), एचएस-85 (इलेक्ट्रिकल मशीनरी) के आयात का कोई औचित्य नहीं है, क्योंकि इनमें से अधिकांश वस्तुओं का उत्पादन स्थानीय स्तर पर किया जा सकता है।
यह सच है कि सरकार निरंतर आर्थिक विकास को समर्थन देने और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इसके महत्त्व को बढ़ाने के लिए एक प्रतिस्पर्धी, गतिशील वातावरण बनाने के लिए काम कर रही है। पीएम गति शक्ति, नेशनल सिंगल विंडो क्लीयरेंस, जीआइएस-मैप्ड लैंड बैंक, उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआइ) योजना जैसी नीतियों के कार्यान्वयन से विनिर्माण क्षेत्र को लाभ होने का अनुमान है।
निर्यात बढ़ाने के लिए पीएलआइ योजनाओं को एमएसएमइ और उभरते उद्योगों तक बढ़ाया जाना चाहिए। विनिर्माण में नए निवेश के लिए पंद्रह फीसद कार्पोरेट कर की दर को सेवा क्षेत्र सहित सभी उद्योगों तक बढ़ाया जाए। कृत्रिम मेधा (एआइ), इंटरनेट आफ थिंग्स (आइओटी) और मशीन लर्निंग (एमएल) जैसे नए युग के प्रौद्योगिकी अनुप्रयोगों के विस्तार और उपयोग के लिए पूंजी या परिचालन व्यय पर कर प्रोत्साहन की आवश्यकता है।
सरकार को ‘लाजिस्टिक’ लागत को सकल घरेलू उत्पाद के छह से आठ फीसद तक कम करना चाहिए, जो अभी तक चौदह फीसद है। अच्छी बात है कि हाल ही में जी-20 शिखर सम्मलेन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक गलियारा स्थापित करने की बात हुई है। भारत में विनिर्माण उद्योग देश के खराब बुनियादी ढांचे के कारण अब भी दोषपूर्ण बना हुआ है। चीन की तुलना में, जो बुनियादी ढांचे के विकास पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का बीस फीसद खर्च करता है, वहीं हमारा देश केवल तीन फीसद।
ऐसे में ‘मेक इन इंडिया’ की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाती है। भारत भविष्य में खुद को अगला वैश्विक विनिर्माण केंद्र बना सकता है। यह वैसे भी चीन से तंग आ चुका है और वैकल्पिक विनिर्माण केंद्र की तलाश में है। विनिर्माण क्षेत्र को बोझिल नियमों से मुक्त करने की जरूरत है। विनिर्माण क्षेत्र, बड़ी मात्रा में कागजी कार्रवाई, श्रम, भूमि और पर्यावरण मंजूरी आदि से संबंधित कठिन नियमों और नीतियों से विवश है।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) के अनुसार, भारत को 2030 तक लगभग 2.9 करोड़ कुशल कर्मियों की कमी का सामना करना पड़ सकता है। 2021 में आइडीसी की एक रपट में पाया गया कि लगभग चौहत्तर फीसद उद्यमों में अब भी कौशल की कमी है, जो समग्र नवाचार में बाधा डालता है। अर्थव्यवस्था को विनिर्माण गतिविधि बढ़ाने के लिए नीतिगत ‘साज-सज्जा’ से कहीं अधिक की आवश्यकता है। हमें यह समझने की जरूरत है कि सिर्फ विधेयक पारित करना और निवेशक सम्मेलन आयोजित करना, उद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त नहीं होगा।