उद्भव शांडल्य
कर्णप्रयाग, जोशीमठ में आई दरारें, हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन एवं बादल फटने के कारण तबाही और अब सिक्किम की प्राकृतिक आपदा। इन जगहों पर मानवीय हस्तक्षेप प्राकृतिक तत्त्वों पर हावी है। हिमालय का अपना पृथक सामरिक, सांस्कृतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक महत्त्व है। चिकित्सा एवं पर्यटन की दृष्टि से हिमालय बेहद ही समृद्ध है। लेकिन हिमालय का इस तरीके से नाजुक एवं भंगुर होना, क्या कोई बड़ी कहानी कह रहा है जिससे अब तक हम सभी अनभिज्ञ हैं?
बीते दिनों हिमाचल में भारी बारिश और भूस्खलन के कारण तबाही अपने जोरों पर थी। अब पूर्वी हिमालय का सिक्किम ऐसी तबाही के दंश झेल रहा है। बादल का फटना हो या भूस्खलन, भूकम्प हो या बाढ़ – उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अब सिक्किम में इन समस्याओं ने विकराल रूप धारण कर लिया है।
सिक्किम में मची तबाही का कारण उत्तरी क्षेत्र में लगभग पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित दक्षिण ल्होनक झील का टूटना बताया जा रहा है। मोरेन निर्मित इस झील में बादल फटने के कारण हलचल पैदा हुई, जिसके फलस्वरूप नीचे तीस्ता नदी पर बना चुंगथांग बांध बर्बाद हो गया और तीस्ता नदी ने विकराल रूप धारण कर लिया। जान-माल का काफी नुकसान हुआ है।
गांतोक, पाकयोंग, मंगन एवं नामची जैसे स्थान सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। अत्यधिक गर्मी के कारण जब ग्लेशियर पिघलने लगते हैं तब वहां से निकली हुए धाराएं ऊपर ही जमा होकर झीलों का निर्माण करती हैं जिन्हें हम भूगोल की भाषा में हिमानी झील तथा इनमें उठी हलचलों के कारण मची तबाही को हिमानी झील विस्फोट जनित बाढ़ (ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड, जीएलओएफ) कहते हैं। नदी, पवन एवं समुद्र की भांति ग्लेशियर की अपनी अपरदन शक्ति होती है, जो बेहद धीमी एवं सूक्ष्म होती है जिसे नंगी आंखों से नहीं देखा जा सकता।
अपरदन प्रक्रिया के दौरान पिघले हुए ग्लेशियर में छोटे-छोटे शिला के कण भी होते है जो अपघर्षण सन्निघर्षण की प्रक्रिया के द्वारा हिमोढ़ की सहायता से झील का निर्माण करते हैं, जिसे हम अग्रहिमनदी झील कहते हैं। हालांकि कई एक संदर्भों में अग्रहिमनदी झीलें विवर्तनिक कारणों से भी बनती हैं। इस अस्थिर झील में ऊपर ग्लेशियर से पिघलकर आने वाला जल एकत्रित होता है।
यह झील बहुत ही नाजुक एवं अस्थिर होती है, अत: इसमें थोड़ी सी भी हलचल एकत्रित जल को अपने सामान्य स्तर से उठा देती है, जिससे बाढ़ जैसी स्थिति उत्पन्न होती है। उत्तराखंड के चमोली जिले के रैणी गांव में आई भीषण त्रासदी अग्रहिमनदी झील में हलचल के कारण हुई थी। ग्लेशियर के टूटने के कारण ऐसा हुआ।
महज एक या दो दशकों में प्रगाढ़ रूप से दिख रहे हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और अब सिक्किम की इन भीषण त्रासदियों का कारण सिर्फ प्राकृतिक ही नहीं, मानवीय क्रियाकलाप भी हैं। पहाड़ों का अंधाधुंध दोहन, वनों की बेतहाशा कटाई, प्रकृति को वश में करने की चाह, सांस्कृतिक क्रियाकलापों का बहाने पारिस्थितिकी तंत्र को नष्ट करने की गंदी मानसिकता तथा जलवायु परिवर्तन जैसे अनेक तत्त्व हैं, जिनके कारण ऐसी आपदाएं सामने आ रही हैं।
नेपाल स्थित एकीकृत पर्वतीय विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय केंद्र (आइसीआइएमओडी) के आंकड़ों के मुताबिक हिंदुकुश हिमालय एवं पश्चिम हिमालय के क्षेत्रों में उष्मीकरण वैश्विक औसत से भी ज्यादा है। इस कारण इन क्षेत्रों में हमें अत्यंत विनाशकारी प्राकृतिक घटनाएं देखने को मिल रही हैं। भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान, पुणे में किए गए अध्ययन बताते हैं कि इस शताब्दी के अंत तक पूर्वी तिब्बत एवं मध्य हिमालय क्षेत्रों में मानसून जनित वर्षा में बीस फीसद तक कमी आएगी। दूसरी तरफ कुनलुन, पश्चिम हिमालय, पंजाब एवं नेपाल के हिमालयी क्षेत्रों में बीस से तीस फीसद तक वर्षा में वृद्धि हो सकती है।
हिमालय क्षेत्र नवीन वलित पर्वत है जो प्रतिवर्ष लगभग पांच सेंटीमीटर बढ़ रहा है। इस कारण हिमालयी क्षेत्रों में भूसंचलन, भूस्खलन, भूकम्प जैसी घटनाएं आम हैं। भूवैज्ञानिकों के अनुसार तो सिक्किम में आठ रिक्टर स्केल पर भूकम्प आने की प्रबल संभावना है और यह भूकम्प के जोन-4 में आता है।
हिमालयी क्षेत्रों में भवनों के निर्माण उचित मानकों पर नहीं हुए हैं, विकास कार्यक्रमों के नाम पर पहाड़ों का भरपूर दोहन किया जा रहा है। अनेक जलविद्युत परियोजनाओं का कार्यान्वयन, बड़े-बड़े बांधों का निर्माण, सड़कों को चौड़ा करने के लिए पहाड़ों का काटना, सुरंग निर्माण, रोपवे के कारण हिमालय की स्थिरता को गंभीर चुनौती मिली है।
हिमालय के लिए बड़ी चुनौती है पर्यटन। बीते दशकों में हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। पहाड़ों की एक वहन क्षमता है, जिसे बहुत पहले हम सब पार कर चुके हैं। पहाड़ों पर पर्यावरण एवं सांस्कृतिक प्रदूषण वास्तव में चिंता का विषय हैं। पर्यटन के बहाने पेड़ों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा चक्र भी प्रभावित हुआ है जिसका परिणाम हम सभी के समक्ष है। वर्ष 2004 से 2017 के बीच हिमालय में भूस्खलन की 580 घटनाएं हुर्इं जिनमें से 477 वर्षा जनित थीं।
पहाड़ों में वर्षा का चक्र ऐसा बदला है कि दो-तीन महीनों तक चलने वाली बारिश अब मात्र पंद्रह से बीस दिनों में निपट जा रही है। वर्षा की तीव्रता में भी अनपेक्षित बदलाव देखने को मिल रहा है। हमने क्षेत्रीय अध्ययन तथा प्रशासनिक क्रियाकलापों के लिए भले ही हिमालय को बाह्य, मध्य तथा आंतरिक हिमालय में विभाजित कर दिया है।
नदियों का आधार लेकर हमने भले ही हिमालय को कश्मीर, पंजाब, कुमाऊं, नेपाल तथा असम हिमालय में बांटा है लेकिन ये अलग नहीं हैं। पूरा का पूरा हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र एक-दूसरे से सम्बद्ध है। इसका प्रभाव सिर्फ हिमालय के क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं होता। समतल में निवास करने वाली जनसंख्या भी इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होती है।
हिमालय को बचाने के लिए हमें अपनी नीतियों को ज्यादा दूरदर्शी एवं परिष्कृत बनाने की आवश्यकता है। यह तब ही हो सकता है जब हम अपने निगरानी एवं संचार प्रणाली को सुदृढ़ करेंगे। हम निगरानी के लिए सुदूर संवेदन एवं भौगोलिक सूचना प्रणाली का समुचित प्रयोग कर सकते हैं। यही नहीं कृत्रिम बुद्धिमता एवं मशीन लर्निंग के माध्यम से हम आंकड़ों का उपयोग कर भविष्य की नीतियों को भी निर्धारित कर सकते हैं। हमें सर्वेक्षण विधि एवं नीति पर और ज्यादा बल देना होगा। इसके माध्यम से संवेदनशील तथा अतिसंवेदनशील क्षेत्रों की सहजता से पहचान की जा सकती है।
सर्वेक्षणों के आधार पर जोखिम वाले क्षेत्रों को भी चिन्हित किया जा सकता है। हिमालय को बचाने के लिए हमें अपनी पर्यटन नीति में भी बदलाव लाना होगा। पहाड़ों की वहन क्षमता के अनुसार ही वहां पर्यटकों को जाने की अनुमति मिलनी चाहिए। इन क्षेत्रों में प्लास्टिक के प्रयोग को कड़ाई से बंद कर देना चाहिए। पहाड़ों में इससे अपवाह तंत्र तथा भोजन शृंखला में अप्रत्याशित बदलाव देखने को मिल रहा है। हमें प्रकृति से तालमेल बनाना ही होगा, अन्यथा परिणाम ज्यादा भयावह होंगे।