यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी की मार झेल रहे ज्यादातर बच्चे उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया के नागरिक हैं। उप-सहारा अफ्रीका में गरीबी की मार झेल रहे बच्चों की दर दुनिया में सबसे ज्यादा, चालीस फीसद, है। वहीं दक्षिण एशिया में यह दर 9.7 फीसद है। दोनों क्षेत्रों में दुनिया के नब्बे फीसद बेहद गरीब बच्चे रहते हैं। जाहिर तौर पर ये बच्चे उन विकासशील देशों में रहते हैं, जहां सेहत संबंधी समस्याएं बहुत ज्यादा हैं।
विश्व बैंक और यूनिसेफ द्वारा किए गए हाल के शोध से पता चला है कि दुनिया में विकट गरीबी की मार झेल रहे लोगों में आधे से ज्यादा यानी 52.5 फीसद बच्चे हैं। यानी विकट गरीबी में बसर करने वाला हर दूसरा इंसान एक बच्चा है। रिपोर्ट बताती है कि 2013 में इनकी आबादी 47.3 फीसद थी। वैश्विक स्तर पर 2022 में बच्चों की 6.6 फीसद आबादी ऐसे घरों में रह रही थी, जो बेहद गरीबी का शिकार थी।
भारत में 5.2 करोड़ यानी 11.5 फीसद बच्चे बेहद गरीब घरों में रह रहे थे। हैरानी की बात है कि पांच वर्ष से छोटी उम्र के बच्चों में गरीबी की दर सबसे ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक विकट गरीबी की मार झेल रहे घरों में रहने वाले करीब 18.3 फीसद यानी 9.9 करोड़ बच्चों की उम्र पांच वर्ष या उससे कम है।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक गरीबी की मार झेल रहे ज्यादातर बच्चे उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया के नागरिक हैं। उप-सहारा अफ्रीका में गरीबी की मार झेल रहे बच्चों की दर दुनिया में सबसे ज्यादा, चालीस फीसद, है। वहीं दक्षिण एशिया में यह दर 9.7 फीसद है। दोनों क्षेत्रों में दुनिया के नब्बे फीसद बेहद गरीब बच्चे रहते हैं।
जाहिर तौर पर ये बच्चे उन विकासशील देशों में रहते हैं, जहां सेहत संबंधी समस्याएं बहुत ज्यादा हैं। वहीं दूसरी तरफ बच्चों और किशोरों पर अत्याचार, हिंसा, अन्याय, क्रूरता और शोषण दुनिया में लगातार हो रहा है। भारत में जो बच्चे काम करते हैं उनकी हालत दयनीय है। यह समस्या दुनिया भर के देशों में देखने को मिलती है। ऐसा नहीं कि बच्चों को न्याय दिलाने के लिए कोई कानून नहीं है।
दुनिया के तमाम मुल्कों में बच्चों के शोषण के खिलाफ कानून हैं। मगर ये कानून बच्चों को शोषण, जुल्म, हिंसा और अपहरण से बचाने में नाकाम रहे हैं। खासकर विकासशील देशों में, जहां गरीबी सबसे ज्यादा है, बच्चों को अनेक प्रकार की समस्याओं और हिंसक व्यवहारों का सामना करना पड़ता है।
लगभग चार दशक पहले भारत में बाल शोषण, अन्याय और क्रूरता रोकने के लिए कानून बनाया गया। बालश्रम को गैरकानूनी घोषित करने वाला कानून 1986 में बनाया गया था। इससे बंधुआ मजदूरी में पिस रहे बाल मजदूरों को मुक्त कराने में मदद मिली। मगर घरों, भट्ठों, कृषि-फार्मों, खेतों, बगीचों, कारखानों आदि में काम करते और शहर के चौराहों पर भीख मांगते बच्चों की जिंदगी आज भी मजलूमों जैसी है।
केवल दिल्ली में तकरीबन एक लाख भीख मांगने वाले रहते हैं, जिनमें लगभग आधे बच्चे हैं। शिक्षा पाने की उम्र में गरीबी की वजह से बच्चे पेट भरने या परिवार की मदद करने के लिए ऐसे तमाम कार्य करने को मजबूर होते हैं, जिसे वयस्क भी आम जिंदगी में करने से बचते हैं। खासकर हिंसा, जोखिम और विकट परिस्थितियों में भी गरीब परिवारों के ये बच्चे आठ से अठारह घंटे बिना रुके काम करते हैं।
दुनिया में करोड़ों छोटे बच्चों को हिंसक हालात में रहते हुए देखा जा सकता है। इससे उनका बचपन ही खत्म नहीं होता, बल्कि सेहत और संवेदना भी धीरे-धीरे खत्म होती रहती है। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक बच्चों के खिलाफ हिंसा उनकी मासूम जिंदगी को ही तहस-नहस नहीं कर रही है, बल्कि उनका आने वाला कल भी विकल बनता जा रहा है। यूनीसेफ की रपट के मुताबिक दुनिया के आधे से अधिक बच्चे गंभीर हिंसा सहने को अभिशप्त हैं।
इसमें से चौंसठ फीसद बच्चे दक्षिण एशिया में रहते हैं। भारत से हर साल अपहरण किए हुए या खरीदे हुए हजारों बच्चे कुछ खास देशों में बेच दिए जाते हैं। इन बच्चों का उन देशों में यौन शोषण किया जाता है, मगर यह कभी संवेदना या चर्चा का विषय नहीं बनता। बच्चों के खिलाफ होने वाले इस अमानवीय कृत्य के खिलाफ प्राथमिकियां बहुत कम लिखाई जाती हैं, जिससे इनकी सही संख्या का पता नहीं चल पाता है।
ऐसा भी नहीं कि सरकारों ने बाल मजदूरों को विकास की मुख्यधारा में लाने की कोई कोशिश नहीं की है। भारत सरकार ने कोशिशें की हैं और हजारों की संख्या में बाल मजदूरों को मुक्त भी कराया जा चुका है, लेकिन उनका पुनर्वास आज तक मुकम्मल नहीं हो पाया है। अब भी लाखों की तादाद में बाल मजदूर शोषण और अन्याय की चक्की में पिस रहे हैं। लाखों अपहृत या गायब हुए बच्चे लौटकर घर नहीं आते, उनके बारे में सरकार के पास आधी-अधूरी जानकारी होती है। जब तक शासन-प्रशासन के स्तर पर ऐसे बच्चों के बारे में पूरी जानकारी नहीं होगी, तब तक बच्चों के शोषण, अन्याय और प्रताड़ना का चक्र चलता रहेगा।
भारत ही नहीं, विश्व स्तर पर प्राप्त कई अनुभव बताते हैं कि बच्चों के साथ होने वाले हिंसक व्यवहारों की रोकथाम से ही हिंसा में कमी लाई जा सकती है। इसके लिए कानून की मदद से जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है। इसमें बच्चों में व्यक्तिगत सुरक्षा को बढ़ावा देना, स्कूलों में बाल संरक्षण नीतियों को कारगर ढंग से लागू करना और बच्चों के यौन शोषण को रोकने के लिए माता-पिता में जागरूकता पैदा करना शामिल है।
बहुत छोटे बच्चे अपनी सुरक्षा करने में सक्षम नहीं होते हैं। ऐसे बच्चों की तादाद दुनिया में करोड़ों में है। इन्हें सुरक्षा देना सबसे बड़ी चुनौती है। इसमें सरकारी, गैर-सरकारी संगठनों और संस्थाओं, सिविल सोसाइटियों और बाल सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध समाज सेवियों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ यूनिसेफ बाल संरक्षण प्रणालियों, वित्त, कानून, मानक, शासन, निगरानी और सेवाओं को भी मजबूत करने तथा बढ़ावा देने की जरूरत है।
शोध बताते हैं कि जिन वजहों से बच्चों की दुर्दशा होती और उनका जीवन असुरक्षित रहता है, उन वजहों पर बारीकी से नजर रखना जरूरी है। शायद असल कारणों को समझ कर हिंसा, शोषण और जुल्म को पहले ही रोक दिया जाए, तो करोड़ों बच्चों की जिंदगी को सुरक्षित किया जा सकता है। दूसरी बात, बच्चों के खिलाफ सभी तरह की हिंसा और शोषण को रोकने और प्रतिक्रिया देने के लिए, मानव अधिकारों, नैतिक और आर्थिक नजरिए से बाल संरक्षण प्रणालियों में निवेश करना महत्त्वपूर्ण सुरक्षात्मक प्रक्रिया है। बच्चों को सुरक्षा देने में पुलिस की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है।
इसलिए पुलिस को बच्चों की सुरक्षा पर खास तवज्जो देते हुए इस तरह प्रशिक्षण देना चाहिए, जिससे पुलिस की सुरक्षा में हर व्यक्ति को यकीन हो और बच्चे हर स्तर पर सुरक्षित महसूस कर सकें। दूसरी बात, पुलिस और जनता के संबंध एक-दूसरे के प्रति विश्वास बढ़ाने वाला हो। जनता पुलिस को अपना दोस्त समझे और पुलिस जनता को अपना दोस्त माने। इससे हर परिवार का बच्चा अपहरण और तस्करी से बच सकेगा।
मगर सबसे महत्त्वपूर्ण है जन जागरूकता को बढ़ावा देना और जिन वजहों से बच्चों को हिंसा, शोषण और अपहरण का शिकार होना पड़ता है, उनको समझते हुए शासन-प्रशासन के साथ सहयोगी बनना। उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया में बच्चों की सुरक्षा को लेकर यूनिसेफ, सिविल सोसाइटी और स्वयंसेवी संगठन अधिक कारगर भूमिका में आएंगे। जिस तरह दुनिया में बच्चों के प्रति उपेक्षा की भावना बढ़ी है, उससे बच्चों से ताल्लुक रखने वाली समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं। इसलिए बच्चों के प्रति अधिक संवेदना बढ़ाने की जरूरत है, ताकि बचपन की सुरक्षा मुकम्मल हो सके और हिंसा, शोषण और अपहरण की घटनाएं खत्म हो जाएं।