लोकसभा में ऐतिहासिक महिला आरक्षण बिल प्रचंड बहुमत के साथ पारित कर दिया गया है। इस बिल के पक्ष में 454 वोट पड़े, वहीं विरोध में सिर्फ दो वोट रहे। अभी तो सरकार ने लोकसभा से इसे पास करवाया है, जैसा माहौल है, माना जा रहा है कि राज्यसभा से भी इसे निकाल दिया जाएगा। लेकिन सवाल ये कि अगर महिला आरक्षण बिल कानून बन भी जाए, अगर इससे महिलाओं की राजनीति में भागीदारी ज्यादा हो भी जाए, लेकिन क्या इसका असर आम महिलाओं पर पड़ेगा, क्या उन्हें भी इससे फायदा हो पाएगा? अब इस सवाल के दो नजरिए से जवाब मिल सकते हैं। एक नजरिया तो वो है जहां पर यूएन की कई रिपोर्ट बात रही हैं कि महिला भागीदारी दूसरी महिलाओं के लिए राह आसान बना रही है। वहीं दूसरी तरफ इसका मनोवैज्ञानिक एंगल भी है जहां पर एक महिला दूसरी महिला को कितना आगे बढ़ाएगी, इस पर संशय रहता है।
अब यूएन की रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पहले के तुलना में बढ़ी है, लेकिन जिस रफ्तार से उसे होना चाहिए था, वो नहीं देखने को मिला है। इसी वजह से एक्सपर्ट मानते हैं कि सियासत में ऊंचे पदों पर आने वाले 130 सालों में भी महिलाओं को वो समान अधिकार नहीं मिल पाएंगे। वर्तमान में पूरी दुनिया में मात्र 26 ऐसे देश हैं जहां पर 28 महिलाएं राज्य या सरकार की प्रमुख के रूप में काम कर रही हैं। यहां भी किसी भी सरकार के कैबिनेट में महिलाओं की भागीदारी 22.8 फीसदी चल रही है। सिर्फ 13 ऐसे देश हैं जहां पर 50 प्रतिशत के करीब महिलाओं को भी कैबिनेट में जगह दी गई है।
अब यूएन की ये रिपोर्ट भारत का उत्साह जरूर बढ़ा सकती है। इसका कारण है वो सबूत जो बताते हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी से जमीन पर स्थिति सही मायनों में बदल सकती है। यूएन ने जब भारत की पंचायतों का सर्वे किया, ये साफ पता चला कि जहां पर भी महिला प्रधान थी, उन इलाकों में पीने के पानी की ज्यादा सफल योजनाएं चल रही थीं। भारत की पंचायतों में ये आंकड़ा 62 फीसदी के करीब पाया गया। पूरी दुनिया की बात करें तो सर्वे ने इस ओर भी इशारा किया जहां भी महिलाओं की भागीदारी ज्यादा रहती है,वहां लिंग आधारित हिंसा, पेरेंटल लीव और बच्चे की देखभाल, पेंशन जैसे मुद्दों पर ज्यादा असरदार पॉलिसी बनाई जाती हैं। यानी कि महिलाओं को क्योंकि स्वभाव से ज्यादा संवेदनशील माना जाता है, ऐसे में सियासत में उनकी भागीदारी बढ़ने से समाज के उन मुद्दों पर भी नेताओं की नजर रहेगी जो वैसे नजरअंदाज रह जाते हैं।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि महिलाएं जब खुद को राजनीति में साबित करेंगी, उनकी सशक्त छवि दूसरी महिलाओं को भी आगे बढ़ने के लिए प्रात्साहित करेगी। ये सियासी महिलाएं ही आगे चलकर दूसरी आम महिलाओं की कई उन अड़चनों को भी दूर कर सकती हैं जो पुरुष प्रधान समाज में नजाने कितने सालों से अपनी जड़े जमा चुकी हैं। अब भारत के लिहाज से इसे समझें तो यहां पर वर्तमान में दो तरह की सीटों से महिलाओं को ज्यादा उतारा जाता है, या कह सकते हैं कि महिलाएं उतरना पसंद करती हैं।
पहली तो वो सीटे हैं जहां पर महिलाओं की तुलना में परुषों की संख्या ज्यादा है। इस ट्रेंड के पीछे का मनोविज्ञान ये है कि महिलाओं को लगेगा कि ये पुरुष प्रधान समाज भी उनकी बातों को सुन रहा है, वहां भी वे अपनी आवाज को बुलंद कर सकती हैं। वहीं दूसरी सीटें वो रहती हैं जो असल में एससी या फिर एसटी समुदाय के लिए रिजर्व मानी जाती हैं। अब इन सीटों से ज्यादा महिला उम्मीदवारों को उतारने का कारण ये रहता है कि राजनीतिक दलों पर भी ये दबाव तो रहता है कि उन्हें कुछ महिलाओं को भी टिकट देना है। ऐसे में इन आरक्षित सीटों पर पुरुष की जगह महिला को उतारना ज्यादा आसान विकल्प माना जाता है।
CSDS की रिपोर्ट इस बात का भी खुलासा करती है कि राजनीति में वर्तमान में महिलाओं की कम भागीदारी का कारण ये है कि उन्हें सियासत में एंट्री के दौरान कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वे एक बार के लिए अब इतनी शिक्षित जरूर हो चुकी हैं कि चुनावी चंदे, प्रचार में अपनी सक्रिय भूमिका निभा सकती हैं, लेकिन उन्हें सीधे चुनाव के लिए टिकट मिल जाए, ऐसा मुश्किल रहता है। भारत में तो एक ट्रेंड ये भी बताता है कि ज्यादातर उन महिलाओं को टिकट देना सही माना जाता है जो किसी पॉलिटिकल फैमिली से आती हैं या फिर जिस घर में उनके पिता, पति या कोई दूसरा पुरुष रिश्तेदार भी बड़ा नेता हो। इस ट्रेंड को जितना ज्यादा बल मिलेगा, उस स्थिति में आम महिलाओं तक सशक्तिकरण का असल फायदा कभी नहीं पहुंच पाएगा।
अब जैसा शुरुआत में बताया था कि इस पूरे मुद्दे को मनोविज्ञान की दृष्टि से भी समझा जा सकता है। असल में साइकोलॉजी कहती है कि एक महिला दूसरी महिला की कई मौकों पर मदद नहीं करती है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जब भी दो महिलाओं के बीच में पावर का डिसबैलेंस हो जाता है, या दूसरे शब्दों में बोले तो एक अगर ज्यादा सफल हो जाए और दूसरी पीछे छूट जाए, उस स्थिति में ज्यादा सफल महिला दूसरी को कमतर आकने लगती है, कुछ मौकों पर दूसरों के सामने उसकी बुराई भी की जा सकती है। मनोविज्ञान में ही इस ट्रेंड का एक दूसरा बड़ा कारण ये बताया गया है कि जो महिलाएं बड़े पद पर पहुंच जाती हैं, वो और ज्यादा पुरुषों की तरह व्यवहार करने की कोशिश करती हैं। दूसरे शब्दों में वे खुद को ज्यादा कठोर दिखाने की कोशिश करती हैं। इससे पुरुषों के बीच मैसेज ये जाता है कि ये महिला दूसरी आम महिलाओं जैसी नहीं हैं।
इस ट्रेंड को साइकोलॉजी में Queen Bee Syndrome कहते हैं जहां पर दूसरी महिलाओं के प्रति बड़े पद पर आसीन महिला की संवेदना कुछ कम हो जाती है या कह सकते हैं कि वो उसे समझ ही नहीं पाती है। अब ऐसा नहीं है कि भारत में हर जगह ऐसा ही हो रहा है, ये सिर्फ दिमागी साइकोलॉजी का एक पहलू है जो कुछ मौकों पर सही भी साबित हो सकता है। अभी के लिए भारत में एक नई शुरुआत होने को है, जब महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मिल जाएगा, उस स्थिति में ना सिर्फ उनकी भागीदारी बढ़ेगी, बल्कि सामान्य घर की दूसरी महिलाओं को भी आगे बढ़कर काम करने की प्रेरणा मिलेगी।