राकेश सिंहा
चुनाव कई राजनेताओं के लिए ऊटपटांग बोलने में उत्प्रेरक का काम करता है। ऐसा ही उदयनिधि स्टालिन के साथ हुआ। सनातन धर्म के अनुयायियों की तुलना डेंगू-मलेरिया के मच्छरों से कर उन्हें समाप्त करने की बात कही। फिर इस पर जंग छिड़ना स्वाभाविक था। शब्दों की हिंसा दैहिक हिंसा से कई अर्थों में अधिक घातक होती है। बिना नपा-तुला बोला गया शब्द काल की सीमा को लांघकर विचरण करता रहता है। उसका क्षरण आसानी से नहीं होता है।
समकालीन भारतीय समाज ऊटपटांगवादी विमर्श का शिकार है। एक सतही बयान किसी नेता को सुर्खियों में ले आता है और समाज व बुद्धिजीवी पक्ष-विपक्ष में बंटकर बौद्धिक व्यायाम शुरू कर देते हैं। ऐसा विमर्श न तो सुधार को आगे बढ़ाता है न ही नवजागरण को जन्म देता है। परंतु यह सत्य है कि समाज सोते से जागता है। जैसा कि समाज सुधारक महादेव गोविंद राणाडे (1842-1901) ने कहा था, ‘इतिहास में भारतीयता पर हर हमला भारत को अनुशासित बनाता है और इसके चरित्र में विकास करता है।’
स्टालिन के बयान पर गौर करने से पूर्व अब और राणाडे युग के बीच के अंतर को समझना आवश्यक है। तब विमर्श की शैली में ‘स्व’ का ‘यथार्थ’ से अनुभूति की बात केंद्र में होती थी। राजनेता या सुधारक विचारों को कर्म की ध्वनि से निर्मित करते थे। इसलिए हर राजनेता या सुधारक अपने आप में एक आंदोलन या संस्था की तरह होता था।
महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद 1932-33 में अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान चलाया था जिसे ‘हरिजन यात्रा’ के नाम से जाना जाता है। वे बारह हजार मील चले। पुणे में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और उनके मित्र आगरकर में राजनीति एवं समाज सुधार के बीच वरीयता देने को लेकर तीखा विमर्श हुआ, जो पठनीय है और आज भी मन बुद्धि विवेक को झकझोरता है।
मदन मोहन मालवीय, राजगोपालाचारी, बाबा साहब आम्बेडकर ऐसे अनेक नाम हैं जो राजनीति में सक्रिय होते हुए अपने सामाजिक दृष्टिकोण के आधार पर भारत का भविष्य ढूंढ़ते थे। स्वाध्याय और समाज के यथार्थ के साथ साक्षात्कार उस काल की राजनीति की विशेषता थी। यह विचार, दल राजनीति स्वार्थ सभी सीमाओं को गौण कर देता था।
परंतु स्वतंत्रता के पश्चात यह चरित्र विलुप्त होता गया। उसी का उदाहरण सनातन धर्म पर दिया गया प्रतिक्रियावादी बयान है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक बाला साहब देवरस इसे सत्तावादी राजनीति का दुष्परिणाम कहते थे। स्टालिन के बयान के मकसद और उसका प्रतिकार राजनीतिक प्रक्रिया का अंश हैं। लेकिन सनातन पर हमला पहली बार नहीं हुआ है।
सामाजिक बुराइयों के मार्फत सनातन धर्म को हीन, प्रगति-विरोधी, समानता-निषेध करने वाला साबित करने के सफल प्रयासों का दौर समय-समय पर चलता रहा है। भारत का विचार सनातन धर्म की बुनियाद पर है। यह चेतना को उस शिखर पर ले जाने का आदर्शवादी प्रयास है, जिसमें न सिर्फ मनुष्य हित बल्कि जड़-चेतन के बीच संतुलन, संबंध और समानता स्थापित किया जाता है।
किसी भी दर्शन या धर्म में इस आदर्श को केंद्र तो दूर सतह पर भी नहीं रखा गया है। सनातन पीढ़ियों को जड़ता का शिकार नहीं बनाता। उसे संस्थाओं के जकड़न में नहीं बांधता। राम और कृष्ण राजा भी थे। आदर्श छोड़ गए। भगवान बुद्ध संस्था से आगे विचारों को रखते रहे। पीढ़ियां उन आदर्शों, उदाहरणों एवं नायकों के आईने में अपनी संरचना स्वयं खड़ा करती रही है।
सनातन में जड़ता नहीं है। उपनिषद के दो शब्द ‘नेति, नेति’ भारतीय समाज के चरित्र को परिभाषित करते हैं। अर्थात प्रतिकार को प्रगति के लिए परमावश्यक पथ माना गया है। इसीलिए सनातन धर्म प्रकारांतर में विकसित सामाजिक संरचनाओं, कर्मकांडों या सामाजिक गतिरोधों के विरुद्ध स्वर को स्वीकारता है। कोई भी समाज पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं होता। अमेरिकी समाज में श्वेत-अश्वेत और भूतकाल में दास प्रथा का प्रचलन अफ्रीकी समाज में नस्लीय भेदभाव रंगभेद आदि के उदाहरण विद्यमान हैं।
भारतीय समाज में प्रकारांतर में आई जातिवादी सोच, अस्पृश्यता एवं दूसरी बुराइयां सनातन धर्म पर आंतरिक हमले की तरह थीं। परंतु सनातन की प्रतिरोधक क्षमता ने इन्हें बुराइयां मानकर प्रहार किया। उदाहरण के रूप में 1921 की जनगणना ने समाज की आंखें खोल दीं। शून्य से एक वर्ष और एक से दो वर्ष की क्रमश: 597 और 494 बच्चियों को विधवा पाया गया।
उम्र के साथ यह संख्या बढ़ती गई। इसके विरुद्ध स्वामी श्रद्धानंद सहित धर्मगुरु, समाज सुधारक कूद गए। ईश्वरचंद विद्यासागर और राधाकांत देव के बीच विवाद हुआ। विद्यासागर विधवा विवाह के समर्थक थे, तो देव विरोधी। समाज ने विद्यासागर को स्वीकारा, देव को खारिज किया।
भारतीय समाज ने किसी ऐसे दार्शनिक को महिमामंडित नहीं किया जो भेदभाव को वैधानिकता देता है। पश्चिम में प्लेटो सम्मानित चिंतक है। वह दास प्रथा को समाज का आवश्यक, अभिन्न और स्वाभाविक हिस्सा मानता था। भारत में अस्पृश्यता को कुछ नासमझ लोगों ने धर्म का हिस्सा बताना शुरू किया तो प्रगितशील प्रवृत्तियों ने उसे ध्वस्त कर दिया।
कर्नाटक के उडुपी में 1969 में धर्माचार्यों का सम्मेलन उल्लेखनीय है। एक मंच पर सभी हिंदू धर्माचार्य आए और अस्पृश्यता को धर्म विरोधी घोषित करते हुए इसे मिटाने का संकल्प लिया। इस सम्मेलन के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवलकर (श्री गुरुजी) थे। नासिक के जिस मंदिर में डा आम्बेडकर को प्रवेश करने से रोका गया था, 1912 में उसी मंदिर में पुरोहित के पोते ने दलितों को गर्भगृह में पूजा करने का अवसर देकर अतीत की घटना को कलंक बताया। देवरस ने 1974 में पुणे के वसंत व्याख्यानमाला में कहा था कि ‘अगर अस्पृश्यता गलत नहीं है तो कुछ भी गलत नहीं है।’
अस्पृश्यता या जातिवादी बोध अनंतकाल तक चलने वाला उपक्रम नहीं हो सकता है। समाज के भीतर सामंती सोच का अंत ही सनातन बोध को समृद्ध करना है। सनातन धर्म को हिंदू संस्कृति से अलग नहीं किया जा सकता है। सनातन धर्म की अभिव्यक्ति हिंदू संस्कृति है। औपनिवेशिक काल में समाज के भीतर विद्यमान विरोधाभासों को आगे रखकर मिशनरियों एवं औपनिवेशिक प्रशासन दोनों का प्रहार होता था जिसका उद्देश्य हिंदू समाज को क्षत-विक्षत कर देना था।
लंदन में स्थित मुसलिम लीग के नेता ने सरकार को ज्ञापन देकर अनुसूचित जाति को हिंदू नहीं मानने का तर्क दिया था। वर्ष 1910 में राष्ट्रीय जनगणना आयुक्त ईए गैट ने सर्कुलर निकाला, जिसमें एक प्रश्नावली थी। इसे भरने के बाद यह निर्णय होता कि कौन हिंदू है और कौन नहीं। लाला लाजपत राय सहित सैकड़ों चिंतकों ने विरोध किया।
सबसे कारगर विरोध कर्नल (सेवानिवृत्त) यूएन मुखर्जी का था। उन्होंने एक पुस्तक लिख प्रतिकार किया। गैट को सर्कुलर वापस लेना पड़ा। मुखर्जी ने अपनी पहली पुस्तक ‘हिंदू- ए डाइंग रेस’ में हिंदू समाज को सचेत किया कि समाज के भीतर आर्थिक विषमता और सामाजिक असमानता बाह्य ताकतों को हिंदू धर्म पर हमला करने का अवसर देती है।
समकालीन भारत में राजनीति का एक कोना हिंसात्मक, उत्तेजनात्मक और सतहीपन द्वारा अपनी प्रासंगिकता बनाकर रखना चाहता है। इसका निदान नवजागरण ही है। सुदृढ़ समाज गैट और स्टालिन जैसे नेताओं को हाशिये पर रखता है। यह तभी संभव है जब समाज में सकारात्मक क्रियाशीलता का अनुपात अधिक हो। मोहन भागवत ने ठीक ही कुछ वर्ष पहले सामाजिक-बौद्धिक आलस्य को सबसे अधिक नुकसानदायक बताया था। सनातन धर्म की रक्षा और संवर्धन उसी आलस्य को त्यागने में है। यह एकमात्र धर्म है, जो प्रयोगधर्मिता और प्रगतिशीलता को जड़-चेतन के बीच एक्य और सद्भाव में देखता है।
(लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं)