सुरेश सेठ
पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने अपने एक संदेश में कहा कि बहुत दिन तक हमने भारत को अल्पविकसित और उसके बाद विकासशील देश कह लिया। मगर जिस तरीके से अब हम तरक्की की राह पर हैं, हमें भारत को विकसित देश कहने की आदत डालनी होगी। भारत को वर्ष 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के दृष्टिकोण को साकार करना है। अभी से इसे विकसित होने की धारणा बनाएंगे तभी एक चौथाई सदी के बाद यह देश विकसित होता नजर आएगा। सबसे पहले नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने इस दृष्टिकोण को साकार करने के लिए युवाओं से सुझाव और सहयोग मांगा था।
उसके अगले दिन प्रधानमंत्री ने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों को देशभर के राजभवनों में आयोजित कार्यशालाओं में संबोधित किया और कहा कि भारत 2047 तक 30 खरब डालर की विकसित अर्थव्यवस्था बन जाएगा। लेकिन इसके लिए दृष्टिपत्र अभी से तैयार करना होगा। हम सन 2024 के जनवरी माह में इस दृष्टिपत्र को जारी कर देंगे और अपने विकसित होते इतिहास के मोड़ पर खड़ा भारत इसे अंगीकार कर अपने कर्त्तव्य पथ पर चल निकलेगा। कुलपतियों और युवा वर्ग से भी इस धारणा को स्वीकार करने के लिए सुझाव मांगे गए हैं।
बेशक पिछले कुछ दिनों में भारत में विकास की जो उपलब्धि-मीनार नजर आने लगी है, उसी से यह आशावादी दृष्टिकोण विकसित करने की धारणा बनी है। कुछ तरक्की और उपलब्धि की मंजिलें अभी हमारे सामने आई हैं। एक मंजिल तो यह है कि हमने विश्व में व्याप्त मंदी को धता बता दिया है। हमारा देश घरेलू मांग, घरेलू निवेश और विदेशी निवेश के बल पर महामंदी की इस विकट स्थिति से बच निकला है। विदेशी निवेशकों ने, जो कि इससे पहले हमारे देश से भगोड़े हो रहे थे और अमेरिकी फेडरल के परिवर्तनों से आकर्षित होकर हमारे देश में उनकी बिकवाली का माहौल बन रहा था, उन्होंने छह दिन में 26,505 करोड़ रुपए का निवेश कर दिया। यह वर्ष भारत के लिए आर्थिक दृष्टि से अच्छा है, क्योंकि हमारे पूंजी बाजार में 1.31 लाख करोड़ रुपए और ऋण बाजार में 55,867 करोड़ रुपए का निवेश हुआ है।
इस वर्ष की आखिरी तिमाही में सात फीसद की विकास दर दिखी। यह दुनिया के सभी महाबली देशों के मुकाबले में ऊंची विकास दर है। हम विकास करने में धुरंधर चीन को भी पछाड़ते नजर आ रहे हैं, क्योंकि उसकी विकास दर 4.8 फीसद पर है। जो विदेशी निवेशक भारत की आर्थिक स्थिति पर महंगाई के प्रभाव से भगोड़े हो रहे थे, वे लौटने लगे हैं। विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने अक्तूबर माह में ही नौ हजार करोड़ रुपए का शुद्ध निवेश कर दिया। जबकि अगस्त और सितंबर में इन विदेशी निवेशकों ने भारतीय बाजारों से 39,300 करोड़ रुपए की निकासी की थी। मगर धारा बदल गई।
भारत के स्थायित्व और मौद्रिक नीति द्वारा महंगाई पर सफलता प्राप्त करने और भारत द्वारा मूलभूत आर्थिक ढांचे के निर्माण को प्राथमिकता देने के कारण विदेशी निवेशकों का यह रुख पलटा है। उन्हें भारत के लंबे-चौड़े बाजार, जो 140 करोड़ की आबादी से बना है, में अपने लिए लाभ की संभावना नजर आने लगी है। देखते ही देखते अक्तूबर से लेकर आठ दिसंबर तक 26,505 करोड़ रुपए का निवेश हो गया।
निस्संदेह इसमें विधानसभा चुनावों में भाजपा सरकार की तीन राज्यों में विजय ने भी अपना योगदान दिया है। मगर उससे भी बड़ी बात यह कि जब विदेशी निवेश भगोड़ा हो रहा था, भारत के घरेलू निवेशकों ने आगे बढ़कर उसके शून्य को भरा। मौद्रिक नीति में महंगाई नियंत्रण के लिए रेपो दर पांच बार बढ़ा देने और ऋण ब्याज दरों के ऊंचा होने के बावजूद उपभोक्ताओं का भरोसा भारतीय अर्थव्यवस्था की साख में घटा नहीं। अभी गुजर रहे उत्सव और त्योहारों के दिनों में उनकी भारी मांग सामने आई है।
दूसरी ओर, मौद्रिक नीति की सफलता की घोषणा भी हो गई। क्योंकि जहां थोक महंगाई दर शून्य से नीचे चली गई थी, वहां खुदरा महंगाई दर भी छह फीसद की सुरक्षित दर से नीचे आ गई। विदेशी निवेशकों द्वारा भारतीय आर्थिकी के सबल होने में नई आस्था जगी है। साथ ही एक बड़ा कारण यह भी है कि मूलभूत आर्थिक ढांचे के निर्माण के लिए सरकारी खर्च में राज्यों और केंद्र के स्तर पर भारी निवेश किया जा रहा है।
इसके पीछे अगले वर्ष होने वाले आम चुनावों से पहले सार्थक परिणाम दिखाने की मजबूरी भी हो सकती है। मगर लाभ तो आम जनता को मिला है। वह मंदी, उससे पैदा होने वाली आसन्न बेरोजगारी से बच निकली है। इसके साथ शेयर बाजार का इन दिनों में अभूतपूर्व स्तर पर ऊंचा होना भी यह दिखाता है कि निवेशकों का विश्वास भारत में बढ़ रहा है। राजनीतिक तनातनी के कारण निवेशकों का जो धन पहले चीन में निवेश हो रहा था, अब ‘चीन प्लस’ का रुख ले रहा है। यानी चीन के अलावा कहीं और भी निवेश का मार्ग ढूंढ़ा जा रहा है। निस्संदेह भारत के स्थायित्व भरे माहौल ने यह धरातल दिया है। इसीलिए कहा जा रहा है कि भारत को विकसित राष्ट्र कहने की आदत बना लीजिए।
बेशक आर्थिक विशारदों द्वारा इक्कीसवीं सदी को भारत की सदी माना जा रहा है। देश में नई शिक्षा नीति, सेहत के लिए सस्ती उपचार सुविधा का माडल, ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सहकारिता की भावना द्वारा एक नई जान फूंकने की कोशिश है। अब सहकारिता को एक अलग विभाग घोषित कर दिया गया है। बेशक सहकारिता छोटी जोतों की खेती का मुक्तिमार्ग है। इससे पहले भी सहकारी आंदोलन को सफल बनाने के नारे उठते रहे हैं, लेकिन भ्रष्ट आयोजकों और नियोजकों द्वारा उसका चेहरा गंदला कर दिया गया। अब जिस सहकारी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की बात कही जा रही है, वह आम आदमी और किसान के लिए नवजीवन का संदेश देगा और धनी इस आंदोलन को अपनी जेब भरने का चोर साधन नहीं बनाएंगे। पिछले वर्ष से भारत की वित्तमंत्री ने सार्वजनिक बुनियादी ढांचे में अभूतपूर्व विस्तार की बात कही है। इस दिशा में काम भी हुआ है।
भारत में तरक्की नजर आ रही है। इसी अभूतपूर्व विस्तार के दम पर भारत में विदेशी निवेशक आकर्षित हो रहे हैं। जहां तक खेती और निर्माण उद्योगों में अत्याधुनिक रास्तों को अपनाने की बात है, भारत को डिजिटल देश बनाकर इंटरनेट शक्ति से लैस कर दिया गया है और अब कृत्रिम मेधा का इस्तेमाल भी हमसे दूर नहीं। परंपरा से हटना ही भारत के लिए नई शक्ति का विस्तार होगा। लेकिन इस विस्तार में वंचित, प्रवंचित न रह जाएं। देखा गया है कि जितनी तरक्की भारत की जीडीपी में होती है, उतनी आम आदमी की जेब में आने वाले वेतन या कमाई की नहीं होती।
अमीर और गरीब का भेद बढ़ता जा रहा है। जो तरक्की समतावादी नहीं है, उसका सार्वजनीन कल्याण के उद्देश्य पर उतरना मुश्किल हो जाता है। इसके लिए जो नया खाका बनाया जा रहा है, उसमें रोजगारपरक शिक्षा नीति, समतावादी कर ढांचा और व्यावहारिक उद्यम नीति का पालन ही वह सीधा रास्ता हो सकता है, जिसमें हम भारत को विकसित कहते हुए भी निर्धन व्यक्ति के प्रति क्षमाप्रार्थी नहीं होंगे। देश तरक्की करेगा तो उन्हें भी सही ढंग से जीने का पूरा-पूरा हक मिलेगा। ऐसा होना भी चाहिए।