राहुल गांधी की बातों पर मैं कम ध्यान देती हूं अक्सर क्योंकि बचकानी लगती हैं। लेकिन पिछले सप्ताह उन्होंने एक बात कही जो मुझे अच्छी लगी और जिसके साथ मैं पूरी तरह सहमत हूं। जब उनको टीवी पत्रकारों ने घेर कर पूछा कि उन्होंने क्यों उस सांसद का वीडियो बनाया जो उपराष्ट्रपति का मजाक बना रहे थे तो उन्होंने थोड़े गुस्से में आकर कहा, ‘क्या यही समाचार है आपके लिए? विपक्ष के आधे से ज्यादा सांसद संसद के बाहर फेंक दिए गए हैं और आपको उसकी चिंता नहीं है?’
बिल्कुल ठीक कहा है इस बार कांग्रेस पार्टी के पूर्व-अध्यक्ष और सदैव युवराज ने। सच पूछिए तो मैंने भी जब देखा कि बड़े बड़े टीवी एंकरों ने उपराष्ट्रपति के इस तथाकथित अपमान को अपनी चर्चाओं का विषय बनाया तो मैं हैरान रह गई। जब राष्ट्रपति महोदय, प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री ने भी इस ‘अपमान’ को राष्ट्र के अपमान के बराबर माना तो मैं और भी हैरान हुई। अपने ये बड़े राजनेता कई बार विदेशों में घूमने जाते हैं और खास तौर पर उन पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों में जाते हैं जहां इस देश के आम लोग जाना पसंद करते हैं। इन देशों के बच्चे भी जानते हैं कि लोकतंत्र में राष्ट्रपति का मजाक तकरीबन रोज होता है अखबारों में और टीवी के समाचारों में।
मिसाल के तौर पर जब हर साल वाइट हाउस में पत्रकारों के लिए अमेरिका के राष्ट्रपति दावत देते हैं राष्ट्रपति के सामने उनका मजाक उड़ाया जाता है। इतनी बेरहमी से यह मजाक होता है कि जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बने तो उन्होंने इस दावत को देना ही बंद कर दिया था। उनका रिश्ता मीडिया के साथ बहुत वर्षों तक कड़वा रहा। तो ना उनको आलोचना पसंद थी ना मजाक। सीएनएन के साथ उनको खास दुश्मनी थी तो उनकी प्रेस वार्ताओं में जब इस चैनल का कोई पत्रकार दिखता था उसको, बाहर जाने को कहते थे या स्पष्ट शब्दों में कहते थे कि उनके सवालों का कोई जवाब नहीं मिलने वाला है। ट्रंप के बारे में आज उनके समर्थक भी मानते हैं कि उनका स्वभाव तानाशाही है, लोकतांत्रिक नहीं।
पिछले सप्ताह सबसे बड़ी खबर थी कि विपक्ष के आधा से ज्यादा विपक्षी सांसदों को संसद से निकाल दिया गया था। इसलिए कि उन्होंने संसद में हाल के घुसपैठ पर जवाब मांगने की कोशिश की थी। माना कि कइयों ने संसद की मर्यादा की परवाह ना करके हल्ला-गुल्ला किया और तख्तियां लेकर अंदर आए थे, लेकिन इस मुद्दे को उठाना जरूरी था। छोटी बात नहीं है कि संसद के अंदर घुसना इतना आसान था उनके लिए। रंगीन धुआं के बदले अगर उन्होंने कनस्तरों से जहरीली गैस छोड़ी होती तो हो सकता है कि जितने भी सांसद उस दिन मौजूद थे, मर जाते।
ऊपर से इसपर भी ध्यान देना चाहिए कि इस हमले को किया गया था, उसी तारीख को, जब बीस साल पहले संसद पर पाकिस्तानी आतंकवादियों ने हमला किया था। जो नौजवान पकड़े गए हैं सब हिंदुस्तानी हैं। इतनी बड़ी साजिश के पीछे क्या कोई और नहीं हो सकता है? कोई आतंकवादी संस्था? कोई दुश्मन मुल्क? क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि यह रिहर्सल था जिसके आधार पर अब इससे कहीं ज्यादा बड़ा हमला हो सकता है?
मोदी सरकार की आदत है जवाबदेही से दूर भागना। सो इस बार प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने संसद में जवाब देने से इनकार किया, लेकिन खुशी से संसद के बाहर अपनी बात रखने में लग गए। गृह मंत्री ने पत्रकारों से बातें की और प्रधानमंत्री ने भारतीय जनता पार्टी के सांसदों के साथ बात करते हुए कहा कि चूक तो हुई है और इसको गंभीरता से लेना होगा। क्या यही बातें संसद के भीतर नहीं कही जा सकती थीं? क्या प्रधानमंत्री जी आपका दायित्व नहीं है संसद के सामने आकर ये बातें कहना? क्या इतने सारे विपक्षी सांसदों को निलंबित करने के बदले बेहतर नहीं होता उनके सवालों के जवाब संसद के भीतर देना, ताकि पूरी बहस हो सके?
चलिए अब बात करते हैं मीडिया की जिम्मेदारी की। एक पत्रकार होने के नाते मुझे बहुत अजीब और गैर-जिम्मेदाराना लगा कि उपराष्ट्रपति के तथाकथित अपमान पर इतना ध्यान दिया गया और सांसदों को बेदखल किए जाने पर इतना कम। उनको निलंबित करने के बाद सरकार ने कई अति-महत्त्वपूर्ण कानून पारित किए बिना बहस के, जिनमें न्याय प्रणाली से जुड़े तीन कानून भी शामिल हैं।
बाद में पूर्व कानून मंत्री चिदंबरम ने ध्यान दिलाया कि इन नए कानूनों में 95 फीसद से ज्यादा वही प्रावधान हैं जो पुराने कानूनों में थे। यह चिंता का विषय है और अच्छा होता अगर चिदंबरम अपनी बात बहस दौरान संसद के अंदर कह सकते। इस तरह बहुमत का बुलडोजर चला कर कानून पारित करना किसी भी हाल में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता। मीडिया अपनी जिम्मेदारी निभा रहा होता तो इस बात पर भी हम ध्यान आकर्षित करते कि मोदी सरकार की आदत बन गई है कठिन सवालों से भागना।
समझ में नहीं आता है ऐसा क्यों है। वर्तमान स्थिति यह है कि मोदी का कद इतना ऊंचा है मतदाताओं की नजर में कि उनके साए में भी दूर तक उनको चुनौती देने वाला कोई नहीं दिखता है। राहुल गांधी का कद उनके सामने बौने जैसा है, लेकिन उन्होंने जो सवाल पूछा पिछले सप्ताह उसका जवाब मिलना जरूरी है क्योंकि राष्ट्र की सुरक्षा का मामला है। इतने बचकाने अंदाज में ना पूछते तो हो सकता है उसकी गंभीरता सबको दिखती। लेकिन निष्कासित सांसदों के मुद्दे के साथ वे अन्य विषयों को जोड़ने में लग गए। अडाणी आ गए बीच में, रफाल की बात हुई और सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे की अहमियत खुद कम कर बैठे।