राकेश सिन्हा
दुनिया बदल रही है। बदलती दुनिया में हमारी भौतिक भूख बढ़ती जा रही है। पृथ्वी के संसाधनों का हम उपयोग कर रहे हैं। जो जितना कर पा रहा है, वह उतना ही ‘आधुनिक’ कहलाने का तमगा लटकाता है। यह जितना समुदाय और राष्ट्र पर लागू होता है उतना ही अकेले व्यक्ति पर भी। आधुनिक और भौतिकता एक दूसरे का पर्याय बन चुके हैं।
भौतिकता की खासियत के रूप में तीसरा आयाम है-व्यक्तिवाद। भौतिकता पिरामिड का सतह होता है जो फैला रहता है और व्यक्तिवाद उसका ऊपरी सिरा है, जो सिमटा हुआ रहता है। भौतिकता का भारतीय अनुभव चार्वाकी संस्कृति और दर्शन है। लगभग दो सौ वर्षों तक भारतीय समाज ने इस चकाचौंध के प्रयोग को झेला। चकाचौंध में अंधेरा है। इसका प्रमाण और परिणाम हमारे सामने है। सबसे विकसित कहे जाने वाले और आधुनिकता का नेतृत्व करने वाले देशों की जीवन शैली से उत्पन्न विकार अत्यंत ही भयावह हैं।
अमेरिका में 18 फीसद वयस्क नींद की दवा ले रहे हैं। पूरी आबादी में तीन में एक व्यक्ति को नींद की दवा लेनी पड़ रही है। 32 फीसद लोग फ्रांस में इस व्याधि के शिकार हैं। स्वीडन में तो 2000 से 2022 के बीच वयस्कों में इस बीमारी में 71 फीसद की वृद्धि हुई है। फ्रांस में संख्या 32 फीसद है। कोई धनी देश नहीं है जो इस संकट से नहीं गुजर रहा। आंकड़ों में ऊपर-नीचे हो सकता है, क्योंकि अलग-अलग संस्थाएं शोध कर इसे प्रकाशित करती हैं पर इसकी व्याप्तता पर विवाद नहीं है।
समुदाय अपनी जीवनशैली के अनुसार जीता है। इसका असर साफ दिखाई पड़ता है। अमेरिका में नींद की दवा खाने वालों में श्वेत 10.4 फीसद, अश्वेत 6.1 फीसद है। एशियाई लोगों में मात्र 2.8 फीसद है। पूरी दुनिया में नींद से जुड़ा कारोबार तेजी से बढ़ रहा है।अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर, मलेशिया, भारत आदि देशों में मानसिक और व्यवहार संबंधी असंतुलन तेजी से बढ़ रहा है। पूरी दुनिया में 20 फीसद बच्चे इसके शिकार हैं। पिछले दशक की तुलना में इस व्याधि में तेरह फीसद की वृद्धि हुई है। आस्ट्रेलिया में 45 फीसद वयस्क इस बीमारी से ग्रस्त हैं। मलेशिया में 2.92 फीसद नौजवान इससे जूझ रहे हैं।
समस्या से जूझने की तैयारी भी चल रही है। चिकित्सक, दवा, मनोवैज्ञानिकों की संख्या बढ़ाई जा रही है ताकि ऐसे लोगों को राहत दी जा सके। इस बीमारी का परिणाम आत्महत्या और मृत्यु भी है। दुनिया में कुल मृत्यु में 3.7 फीसद इसी के कारण होता है। भारत इस बीमारी और उसके परिणाम में पीछे नहीं है। कुछ शिक्षण संस्थाओं, जहां बच्चों के करिअर को संवारने भेजा जाता है, वे उन्हें संभाल नहीं पा रहे हैं। आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं। क्वींसलैंड ब्रेन इंस्टीट्यूट का शोध चौंकानेवाला है। इसके अनुसार, दुनिया की आधी आबादी इस मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो जाएगी।
इसका समाधान करने में चिकित्सा व्यवस्था तो परम आवश्यक है। प्रश्न उठता है आखिर सुविधाओं, आकांक्षाओं और भौतिक प्रवृत्तियों में वृद्धि के साथ मनुष्य अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण क्यों खो रहा है? नव उदारवादी भौतिकता ने प्रतिस्पर्धात्मक जीवन को बाजारू जीवन के साथ जोड़ दिया है। बाहर की दुनिया, जिसमें बाजार सबसे प्रमुख है, हमारी जीवन संस्कृति को निर्धारित कर रही है।
जरूरतों के अनुसार बाजार और भौतिक संसाधनों को तय किया जाता था। अब बाजार और अतिशय भौतिकता की भूख हमारी जरूरतों की कृत्रिम जीवन संस्कृति पैदा कर रही है। हमारा परिवेश धनी हो रहा है और अंतर्मन ‘निर्धन’। समाज का यह एकांगी स्वरूप क्यों उपज रहा है? समाज की चेतना, आध्यात्मिक संवेदना और स्थानीयता से लबालब संस्कृति के उन्नयन को बढ़ाना इस राक्षसी समस्या का वास्तिक समाधान है। लोगों में आध्यात्म से अरुचि का कारण आध्यात्मिक जगत में कर्मकांडी स्वरूप का विकास है।
अमेरिका में 4500 प्रोटेस्टेंट चर्च 2019 में बंद हो गए। जर्मनी में पांच लाख से अधिक लोगों ने 2022 में चर्च जाना बंद कर दिया। आस्ट्रेलिया में कुल 9500 स्कूल हैं और 13000 चर्च हैं। 1971 में 86.2 फीसद लोग अपने को ईसाई मानते थे। अब यह संख्या घटकर 43.9 फीसद रह गई है। सामुदायिक जीवन, सत्संग, साहित्य सृजन और सांस्कृतिक प्रवाह जिन समुदायों में है, उन्होंने सभी सामाजिक-आर्थिक विरोधाभासों के बीच इस व्याधि को रोक रखा है।
अफ्रीका का दार्शनिक वाक्य है ‘उबंतु’। अर्थात मेरा आस्तित्व तुम्हारे आस्तित्व से जुड़ा है। भारत में ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का भाव दर्शन के रूप में है। प्राचीन काल से प्रवचन, कीर्तन, सत्संग और सामुदायिक जीवन ने संतुलन बनाए रखा, परंतु नव उदारवाद का आक्रामक स्वरूप चुनौती प्रस्तुत कर रहा है। भारत में सार्वजनिक स्थान यूरोप-अमेरिका की तरह समाप्त हो रहे हैं। छोटी चाय की दुकान या सार्वजनिक स्थलों पर लोग आदतन एकत्रित होकर अनौपचारिक संवाद करते थे। ये स्थान बड़े-बड़े चाय की दुकानों में तब्दील हो रहे हैं। सामुदायिकता को बचाए रखने की जरूरत है। ऐश्वर्य का प्रदर्शन उसका पर्याय नहीं हो सकता।
हिंदूू परंपरा से आध्यात्मिकता प्राकृतिक चेतना से जुड़ी है। इसका संवर्धन तुरुप के इक्के की तरह है। आज हम गोर्की से लेकर प्रेमचंद को ढूंढ रहे हैं। साहित्य सृजन में उस गंभीरता और वर्तमान को संबोधित करने की क्षमता की अल्पता को कैसे दूर करें, यह चुनौती सबके सामने है। भारत के पास अध्यात्म, परिवार संस्कृति, सामुदायिकता की पूंजी है। इसका उपयोग कैसे नवउदारवादी संस्कृति में हो, इसकी चेतना जागृत करने की आवश्यकता है। रामचंद्र शुक्ल ने ‘गेहूं और गुलाब’ निबंध लिखा था। गेहूं पेट के लिए गुलाब मन मस्तिष्क के लिए। गेहूं की पर्याप्तता के बीच दुनिया गुलाब की अल्पता से जूझ रही है।