भारत सहित दुनिया के सभी पहाड़ी देशों में पहाड़ों के धीरे-धीरे खत्म होने से पैदा हो रही समस्याओं और चुनौतियों पर गंभीरता से विचार हो रहा है। हर देश की अलग-अलग समस्याएं हैं। जहां पर्वतों का दोहन ज्यादा हुआ है या हो रहा है, उन देशों में अधिक ध्यान देने की जरूरत बताई जा रही है।पर्वतीय जलवायु की सेहत सीधे तौर पर वैश्विक जलवायु से जुड़ी हुई है। इसलिए वैश्विक जलवायु की स्थिति पर दुनिया के सभी देशों को गौर करने की जरूरत है।
नए विकास ने मानवता को अनेक सहूलियतें प्रदान की हैं, तो इस दौरान कई नुकसान भी हुए हैं। विज्ञान की उन्नति ने जिंदगी का मकसद और शैली बदल दी है। इसी के साथ लोगों में संसाधनों को इकट्ठा करने और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की आदत हवस में बदल गई है। जंगल, पानी, वनस्पतियों, खनिज पदार्थों के साथ पहाड़ों के बेतहाशा दोहन से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया है, जो अनेक समस्याओं का कारण बन गया है।
धरती का सत्ताईस फीसद हिस्सा पहाड़ों से ढंका हुआ है। दुनिया की पंद्रह फीसद आबादी पहाड़ों पर रहती है और दुनिया के लगभग आधे जैव विविधता वाले स्थान भी पहाड़ों पर हैं। दुनिया की आधी आबादी की रोजमर्रा की जरूरत का पानी पहाड़ उपलब्ध कराते हैं। कृषि, बागवानी, पीने का पानी, स्वच्छ ऊर्जा और दवाओं की आपूर्ति पहाड़ों के जरिए होती है।
दुनिया के अस्सी फीसद भोजन की आपूर्ति करने वाली बीस पौधों की प्रजातियों में से छह की उत्पत्ति और विविधता पहाड़ों से जुड़ी है। आलू, जौ, मक्का, टमाटर, ज्वार और सेब जैसे अत्यंत उपयोगी आहारों की उत्पत्ति के केंद्र पहाड़ हैं। हजारों नदियों का स्रोत पहाड़ हैं। इसलिए पहाड़ों को बचाकर हम नदियों को भी बचाएंगे। भारत में नदियों की ही नहीं, अनेक पहाड़ों की भी पूजा होती है। अनेक चामत्कारिक घटनाएं पहाड़ों से जुड़ी हैं। अनेक तरह की सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत पहाड़ों से जुड़ी हैं।
सृष्टि के साथ सागर और पहाड़ दोनों मानवता के विकास के आधार रहे हैं। मगर जैसे-जैसे नई सभ्यता और संस्कृति के साथ विज्ञान का विकास होता गया, वैसे-वैसे पहाड़ और सागर दोनों प्रदूषित किए जाने लगे। आज हालत यह हो गई है कि पहाड़ और सागर दोनों का वैभव लगातार खत्म होता जा रहा है। जैसे-जैसे वैश्विक जलवायु गर्म होती जा रही है, पर्वतीय ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे जैव विविधता पर असर पड़ रहा है, ताजे पानी के स्रोत और औषधियां लुप्त हो रही हैं। पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र बढ़ते प्रदूषण की वजह से खतरे में है।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के अनुसार, 84 फीसद तक स्थानिक पर्वतीय प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। संयुक्त राष्ट्र 2030 तक प्रकृति की गिरावट को रोकने और वापस लाने को संकल्पबद्ध है। यह योजना राजनीतिक समर्थन, वैज्ञानिक अनुसंधान और वित्तीय संसाधनों को एक साथ लाने का अवसर है, ताकि पुनर्स्थापन को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ाया और पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के क्षरण को रोका जा सके।
पहाड़ों के संरक्षण को लेकर विश्व का ध्यान 1992 में गया, जब पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में एजंडा 21 के अध्याय 13 ‘नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र का प्रबंधन: सतत पर्वतीय विकास’ पर जोर दिया गया। इस तरह के व्यापक समर्थन के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2002 को अंतरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष घोषित किया।
अंतरराष्ट्रीय पर्वत दिवस मनाने की परंपरा 2003 में शुरू होने के बाद पिछले दस सालों में पर्वतीय पर्यटन तेजी से बढ़ा है। भारत में भी इसका असर देखा जा रहा है। इससे जहां आर्थिक संवृद्धि हुई, लोगों को रोजगार मिले हैं, लेकिन इसके साथ कुछ समस्याएं बढ़ी हैं। पर्यटकों की लापरवाही से पर्यावरण का नुकसान हुआ और पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र को खतरा बढ़ा है। इस तरह पर्यटकों को ध्यान देने की जरूरत है, साथ ही पर्वतों के अगल-बगल रहने वाले लोगों को पर्वतों की प्राकृतिक दशा को बरकरार रखने, इनकी सुरक्षा के लिए आगे आना चाहिए।
पहाड़ी इलाकों के निवासियों को रोजगार जंगल और पहाड़ से मिलता है। खासकर महिलाओं के लिए पहाड़ किसी खेती से कम नहीं हैं। युवाओं के लिए पर्वतीय जैव विविधता का संबंध आज अधिक विश्वसनीय है। आजीविका और प्राकृतिक आहार पहाड़ों से जितना अच्छा मिलता है, उतना शायद और कहीं से नहीं मिलता।
ईंधन, औषधियों और लता वाली तरकारियां पहाड़ के दर्रों में उगती हैं। बहुत सारे जीव-जंतुओं का आवास स्थल पहाड़ हैं। पहाड़ों का दोहन या क्षरण का मतलब जीव-जंतुओं, बहुमूल्य वनस्पतियों, औषधियों और खनिज-रत्नों से महरूम होना है। इसलिए पहाड़ों की सुरक्षा और संरक्षण का दायित्व जितना सरकारों का है उतना ही स्थानीय लोगों का भी है।
मानव सभ्यता में सांस्कृतिक, सामाजिक, कलात्मक सृजन तथा संरक्षण का खास महत्त्व है। वर्षा, जलचक्र, ऋतुचक्र, तापमान का ऋतु-अनुकूल बनाए रखने की तमाम क्रियाएं पहाड़ों से चलती हैं। पहाड़ों से आने वाला पानी जल विद्युत का बेहतर स्रोत है। इसी तरह विकासशील देशों में भोजन बनाने, घर बनाने और दूसरे कार्यों के आधार पहाड़ से पैदा होने वाली वनस्पतियां, फल और सब्जियां ही हैं। पहाड़ों से पैदा होने वाली कई चीजें शहरी क्षेत्रों की जरूरतें पूरा करती हैं। पारंपरिक ज्ञान, प्राथमिक प्रबंधन और पारंपरिक चिकित्सा का स्रोत पहाड़ रहे हैं और आज भी हैं। पहाड़ी चिकित्सा से दुनिया भर में लाखों लोग जुड़े हुए हैं।
भारत में पहाड़ों के संरक्षण के कार्य केंद्र सरकार कर रही है। दुबई में काप-28 बैठक में भारत ने मुख्य विचार-विमर्श से अलग और अहम विषय पर एक चर्चा आयोजित की। यह चर्चा पर्वतों की पर्यावरणीय सेहत, खासकर हिमालय के बारे में थी। इस चर्चा में कहा गया कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते दुष्प्रभावों से निपटने की तत्काल जरूरत है।
गौरतलब है कि हिमालयी क्षेत्र बीते दो दशक में जलवायु परिवर्तन के कारण गंभीर संकट का सामना कर रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि करीब दो अरब लोग पहाड़ों की तलहटी में बसे हुए हैं। ग्लेशियर का असर पहाड़ों के अलावा मैदानी इलाकों में भी हो रहा है। इसलिए जरूरी है कि संवेदनशील पर्वतीय पारिस्थितिकी की सुरक्षा की जाए। भारत सहित दुनिया के सभी पहाड़ी देशों में पहाड़ों के धीरे-धीरे खत्म होने से पैदा हो रही समस्याओं और चुनौतियों पर गंभीरता से विचार हो रहा है।
हर देश की अलग-अलग समस्याएं हैं। जहां पर्वतों का दोहन ज्यादा हुआ है या हो रहा है, उन देशों में अधिक ध्यान देने की जरूरत बताई जा रही है। पर्वतीय जलवायु की सेहत सीधे तौर पर वैश्विक जलवायु से जुड़ी हुई है। इसलिए वैश्विक जलवायु की स्थिति पर दुनिया के सभी देशों को गौर करने की जरूरत है।
भारत में विकास ने पर्वतों और जंगलों को काफी नुकसान पहुंचाया है। अरावली की पहाड़ियों को जिस तरह वर्षों से समाप्त करने के लिए माफिया लगे हुए हैं, उससे बहुत बड़े पैमाने पर जैव विविधता और खनिजों को खत्म करने का काम हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से केंद्र और राज्य सरकारों ने सख्त कदम उठाए हैं, जिससे माफिया पर नकेल कसी जा सकी है, लेकिन छोटी पहाड़ियों, हिमालयी क्षेत्र में आने वाले छोटे और बड़े पहाड़ों को विकास का मुहरा जिस तरह से बनाया गया, उससे पिछले तीस-चालीस वर्षों में जितना नुकसान हुआ उतना पिछले पांच सौ वर्षों में नहीं हुआ।
पहाड़ों में विस्फोट, भारी मशीनों का इस्तेमाल और विकास के लिए बनाई जा रहीं सुरंगें, राजमार्ग और सड़कों से कई छोटी पहाड़ियों का अस्तित्व ही खत्म होने को है। यह भारत में हर उस जगह हुआ है, जहां पहाड़ों के साथ जंगल और मैदानी इलाके भी हैं। हिमाचल प्रदेश के 11-12 जिलों में कुदरत के कहर से पहाड़ का पोर-पोर धंस रहा है।
बहुत बड़ी आबादी का नुकसान हुआ है। इसी तरह असम, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक में भी पहाड़ों के साथ खूब अनर्थ हुआ है। इस अनर्थ को रोकने के लिए सरकारों, पर्यावरण संरक्षकों और आम लोगों को आगे आना होगा। तभी पहाड़ों के क्षरण को रोका जा सकता है।