एक जमाने में कभी बनियों और सवर्ण जाति की पार्टी कहीं जाने वाली बीजेपी अब उस तमगे से पूरी तरह मुक्त हो चुकी है। 2014 के बाद से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की दिल्ली एंट्री ने बीजेपी की तकदीर को भी बदलने का काम किया है। जो पार्टी पहले एक वोटबैंक के छिटकते ही बड़े नुकसान के अंदेशे से डर जाती थी, अब वो खुद को ओबीसी की पार्टी भी बता सकती है, आदिवासियों का मसीहा कह सकती है और सवर्ण वोट उसने अपने पास एकमुश्त रखा ही है। यानी कि समय के साथ बीजेपी का विस्तार हुआ है, उसका वोटबेस बढ़ा है और कहीं ना कहीं उसने मंडल और कमंडल, दोनों प्रकार की सियासत को साथ लेकर चलने का काम किया है।
2024 का लोकसभा चुनाव नजदीक है, माना जा रहा है कि अगले पांच महीनों में देश पूरी तरह चुनावी मोड में आ जाएगा और सबसे बड़े रण की शुरुआत हो जाएगी। उस रण में इस बार बीजेपी के सामने एक बड़ी चुनौती पेश आने वाली है। ये चुनौती इंडिया गठबंधन की रहने वाली है क्योंकि तमाम पार्टियां जब एकजुट होने का काम करेंगी, वोटों का बिखराव कम होगा और इसका सियासी नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ सकता है। इसी वजह से जरूरी हो गया है कि बीजेपी भी अपने वोटरबेस को और ज्यादा बढ़ाए, इतने समुदायों तक अपनी पैठ जमाए कि एकमुश्त विपक्ष उसके जनाधार को ज्यादा नुकसान ना पहुंचा सके। इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है- मंडल+ कमंडल।
पिछले कुछ समय की घटनाओं पर नजर दौड़ाई जाए तो पता चलता है कि बीजेपी की हिंदुत्व वाली राजनीति को नई धार मिल गई है। इस धार के पीछे पार्टी की खुद की रणनीति तो है ही, इसके साथ-साथ कोर्ट के कुछ फैसलों ने भी उसकी विचारधारा को एक सहमति देने का काम कर दिया है। इसकी शुरुआत हुई थी ज्ञानवापी मामले से जब सुप्रीम कोर्ट ने वहां सर्वे करने को लेकर हरी झंडी दिखा दी थी। सरल शब्दों में कहें तो ज्ञानवापी मस्जिद वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर से सटी हुई है। हिंदू पक्ष का दावा है कि औरंगजेब ने वहां भगवान शिव के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का निर्माण करवाया। इसी मामले में सर्वे हुआ है और इस पर राजनीति भी चल रही है। सीएम योगी आदित्यनाथ तो एक बयान में कह चुके हैं कि प्रस्ताव मुस्लिम पक्ष की तरफ से आना चाहिए और ऐतिहासिक गलती का समाधान होना चाहिए।
अब ज्ञानवापी का सर्वे बीजेपी के हिंदुत्व को बूस्ट करने का काम करता है तो हाल ही में शाही-ईदगाह में भी सर्वे के फैसले ने पार्टी के चेहरे पर मुस्कान ला दी है।