अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी
कंप्यूटर प्रणाली का प्रभाव समाज की वैज्ञानिक विकास प्रक्रिया का क्रांतिकारी चरण रहा है। इसी क्रम में इंटरनेट का प्रभाव समाज में आया, जिसने विभिन्न वेबसाइटों, एप आदि के माध्यम से लोगों को परस्पर जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य किया। इसका अगला क्रांतिकारी चरण यानी इंटरनेट का स्मार्टफोन के माध्यम से लोगों की हथेली तक पहुंच जाना है। इसी सक्रियता के प्रत्युत्पाद के रूप में कृत्रिम मेधा की सामाजिक उपस्थिति हो चुकी है।
व्यक्तिगत डेटा के मुक्त दोहन की बुनियाद पर वैश्विक डिजिटल कंपनियां अपने विस्तार में लगी हैं, बल्कि इन्हीं डेटा से दूसरी कंपनियों के लाभ का उपक्रम भी बन रहा है। इसे विपणन कंपनियां अपना प्रमुख उपकरण बना चुकी हैं। इन सबमें सबसे खतरनाक है कि ये सभी धूर्तताएं पहले टेलीविजन के पर्दे, अखबार के पन्नों, रेलवे-बस स्टेशन की दीवारों पर दिखता था।
जहां तक पहुंचने में बाजार को कुछ हद तक नियामक-तंत्र या दूसरे सामाजिक दबावों से गुजरना पड़ता था, लेकिन वर्तमान डिजिटल मीडिया के वितान में उसकी व्याप्ति के लिए ऐसा कोई प्रभावी नियामक बन नहीं पाया है। यहां सब कुछ इतना गतिमान है कि उसको नियंत्रित करना आसान भी नहीं है। दूसरी तरफ भारत में बड़ी तेजी से सूचनाओं के मिथ्या, शरारतपूर्ण और भ्रमपूर्ण होने के बावजूद उसकी खपत बढ़ी है।
दूसरी तरफ बाजार अपने उत्पाद के विस्तार को लेकर अब सूक्ष्म योजना पर काम भी करने लगा है। डिजिटल मीडिया और कृत्रिम मेधा के तालमेल से बाजार को लोगों की अभिरुचि के आधार पर उनकी हथेली से आगे बढ़कर उनके मनो-मस्तिष्क तक पहुंचना बहुत आसान हो चुका है। डिजिटल माध्यमों के साथ समाज की जो अंतरंगता बन चुकी है, वह बाजार का एक नया चक्रव्यूह है, जिसे उपभोक्ता बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेता है। अगर कंप्यूटर संजाल को इस खिड़की से देखा जाएगा, तो एक सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या यह समाज पर एक बोझ बन चुकी है? क्योंकि यह अब सटीक सूचना नहीं, बल्कि सायास भ्रम का साधन भी बन रही है। हाल के ‘डीपफेक’ की घटना में एक अभिनेत्री का वीडियो इसका प्रमाण है।
ऐसे में सवाल है कि क्या इस सबके लिए जिम्मेदार कंप्यूटर प्रणाली या उसके डिजिटल उत्पाद हैं? शायद नहीं, क्योंकि आजकल डिजिटल मीडिया में जो विकार आए हैं, वे सब दरअसल हमारी अपनी विकृतियों के कोष हैं। एक समाज के रूप में हम जो कर रहे हैं, वही वहां एकत्रित हो रहा है। इस पूरी प्रक्रिया में यह भी नहीं भूलना चाहिए कि डिजिटल मीडिया ने अनेक सकारात्मक बदलावों को सहेजा और सहयोग दिया है, जिनसे समाज आगे भी बढ़ा है, साथ ही पारदर्शिता बढ़ी है। बल्कि यह भी स्वीकार करना चाहिए कि उन्हीं झंझावातों से गुजरकर समाज परिपक्व भी हो रहा है।
लेकिन डिजिटल मीडिया ने अगर लोगों की वेदना को स्वर दिया है, तो उनकी कानाफूसियों और चुहलबाजियों को भी स्वर दिया है। यह हमारी जिम्मेदारी है कि वैयक्तिकता और सामाजिकता में अंतर करें। हम तो वेदना के साथ कानाफूसी को भी समान समझ कर इंटरनेट पर परोस रहे हैं। यहां तक आते-आते ‘कम्प्यूटिंग’ जैसी विधा में जो सब कुछ नियमबद्ध और व्यवस्थित होता है, वही व्यापक अवैज्ञानिकताओं और अराजकताओं की शरणस्थली बन बैठा है। इसमें बाजार अपना लाभ बना लेता है।
इसी क्रम में त्रिआयामी यानी थ्री-डी प्रिंटिंग प्रौद्योगिकी भारत जैसे विकासशील देश में विनिर्माण के क्षेत्र में एक आमूलचूल बदलावों की पहल कर सकती है। जाहिर है इसमें लागत और समय दोनों कम लगेंगे। सुदूर और दुर्गम स्थानों पर विनिर्माण का काम न्यूनतम जोखिम के साथ संपन्न किया जा सकता है। ढांचागत विकास के साथ ही यह प्रौद्योगिकी लघु एवं कुटीर उद्योग को नया रूप दे सकती है।
उद्योगों की एक ही सांचे से बढ़े पैमाने पर उत्पादन की प्रवृत्ति पर नए सिरे से विचार करने हेतु उपभोक्ताओं का दबाव बढ़ेगा। ऐसे में कृत्रिम मेधा आधारित थ्री-डी प्रिंटिंग के एक नई औद्योगिक क्रांति के आधार बनने की पूरी संभावना है। अंकटाड की प्रौद्योगिकी और नवाचार रपट- 2023 में कहा गया है कि थ्री-डी प्रिंटिंग बाजार तेजी से बढ़ रहा है।
वैश्विक स्तर पर 2020 में इसका मूल्य बारह अरब डालर था, जो 2030 तक बढ़कर इक्यावन अरब डालर होने की उम्मीद है। साथ ही यह उद्योग कुल मिलाकर तीस से पचास लाख नई कुशल नौकरियां पैदा करेगा। इस क्रम में सहायक नौकरियों की भी मांग तेजी से बढ़ रही है, क्योंकि उद्योग को इंजीनियरों, साफ्टवेयर विकासकर्ता, सामग्री वैज्ञानिकों के साथ बिक्री, विपणन और अन्य विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ेगी।
आज कृत्रिम मेधा की व्यावसायिक संलिप्तता लगभग हर उद्योग के विकास और स्वचालन में देखी जा सकती है। इसलिए देश में इसकी व्यापकता के आंकड़ों का सटीक अनुमान लगाना तो कठिन है, लेकिन गत फरवरी में ‘नैसकाम’ के हवाले से सरकार ने संसद में बताया है कि भारत में कृत्रिम मेधा से लगभग 4,16,000 पेशेवरों के लिए रोजगार सृजन का अनुमान है।
इसके अलावा 2035 तक कृत्रिम मेधा द्वारा भारत की अर्थव्यवस्था में 957 अरब अमेरिकी डालर के अतिरिक्त योगदान देने की उम्मीद है। इसके वर्तमान वैश्विक बाजार में 2020 की तुलना में 2021 में निजी निवेश 103 फीसद बढ़ कर 96.5 अरब डालर हो गया था। अकेले अमेरिका में उद्योगों और व्यवसायों में कृत्रिम मेधा आधारित कुशल लोगों की मांग तेजी से बढ़ी है और 2010 और 2019 के बीच ऐसे लोगों की मांग में दस गुना वृद्धि हुई। हालांकि भारतीय संदर्भों में इससे सतर्क रहने की भी आवश्यकता है, क्योंकि इन स्थितियों में कुशल कामगारों की जरूरत तो बनी रहेगी, लेकिन अकुशल कामगारों के रोजगार का संघर्ष और बढ़ेगा।
एक माध्यम के तौर पर कृत्रिम मेधा का नकारात्मक उपयोग भी समानांतर रूप से चल ही रहा है। थ्री-डी प्रिंटिंग प्रौद्योगिकी की सहायता से हम फोरेंसिक साक्ष्य तैयार और कृत्रिम मेधा से इनका तथ्यगत विश्लेषण कर सकते हैं। इससे अपराध को रोकने में सहायता मिल सकती है, लेकिन इन्हीं माध्यमों से शातिर अपराधों को भी बढ़ावा मिल रहा है।
सेंसर आधारित ड्रोन से किसी मरीज तक जल्दी से दवा पहुंचाई जा रही है, लेकिन ऐसे ही ड्रोनों से हथियारों और नशीले पदार्थों की तस्करी आज एक चुनौती बन कर उभरी है। दूसरी तरफ, यह सोचने का भी समय यही है कि हमारी ही डिजिटल उपस्थिति से प्राप्त डेटा इन शोधों के विकास में सहायक ‘मशीन लर्निंग’ में केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं, लेकिन हम इन सब प्रक्रियाओं से पूरी तरह या तो अनभिज्ञ हैं या इसके लिए कुछ कर पाने में असमर्थ।
डिजिटल दुनिया में नित्य बदलाव हो रहे हैं, लेकिन इसके नियमन का काम आज भी सन 2000 में बने नियमों से चलाया जा रहा था। हालांकि अभी डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023 पास हुआ है, जिसमें भारतीय डेटा संरक्षण बोर्ड बनाने की बात की गई है। यह बोर्ड कैसे भारतीय डिजिटल डेटा का संसाधन और निजता की सुरक्षा करता है, यह तो समय बताएगा।
मगर कृत्रिम मेधा से तेजी से बन रहे बाजार में हमारी मौलिक भागीदारी किस रूप में हो रही है, यह विचारणीय है, ताकि विश्व में सबसे बड़ी आबादी, सबसे अधिक इंटरनेट डेटा खपत करने वाले देश के रूप में हमारी भूमिका सिर्फ मजदूर या खरीददार तक सीमित न रहे। अगर आज इन उपायों पर तेजी से अमल नहीं किया गया, तो यह न तो समय के साथ न्याय होगा और न ही हमारी क्षमताओं की अलग से वैश्विक पहचान।