केसी त्यागी/ बिशन नेहवाल
हाल ही में आए राष्ट्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वन मंत्रालय के ताजा आंकड़ों में 2023-24 की दूसरी तिमाही में भारत की 7.7 फीसद सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर एक मिश्रित तस्वीर पेश करती है। समवर्ती रूप से, जुलाई-सितंबर तिमाही के दौरान कृषि क्षेत्र की विकास दर में उल्लेखनीय मंदी, जो 2.5 फीसद से घटकर मात्र 1.2 फीसद रह गई, इस आर्थिक उछाल की स्थिरता और समावेशिता के बारे में चिंता पैदा करती है।
कृषि क्षेत्र में मंदी का सीधा असर किसानों पर पड़ता है। कम विकास दर से किसानों की आय में कमी आती है, जिससे उनकी आर्थिक कमजोरी बढ़ती है। उर्वरक और उपकरण खरीदने सहित अपने परिचालन खर्चों को पूरा करने के लिए किसानों को कर्ज पर निर्भर रहना पड़ता है। समय के साथ, अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, फसल की कीमतों में उतार-चढ़ाव और अपर्याप्त संस्थागत समर्थन के कारण कर्ज का चक्र और भी गहरा हो गया है।
हाल ही में वित्त मंत्रालय ने कृषि कर्ज पर पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए नाबार्ड से उपलब्ध जो आंकड़े पेश किए, उसके अनुसार मौजूदा समय में देश के सभी तरह के बैंकों का करीब सोलह करोड़ किसानों पर इक्कीस लाख करोड़ रुपए का कर्ज है और इन सोलह करोड़ किसानों पर इस कर्ज को बराबर में बांट दिया जाए तो प्रति किसान कर्ज 1.35 लाख रुपए हो जाता है।
राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा कर्ज राजस्थान के किसानों पर है। आंकड़ों के अनुसार 99.97 लाख किसानों ने बैंकों से कर्ज लिया है। इस कर्ज की रकम 1.47 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में 1.51 करोड़ किसानों ने बैंकों से कर्ज लिया है और उनके कर्ज की रकम 1.71 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा है। गुजरात में भी 47.51 लाख किसानों ने कर्ज लिया है, जो एक लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का है।
खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए, इस क्षेत्र में मंदी देश की बढ़ती आबादी की आहार संबंधी जरूरतों को पूरा करने की क्षमता के बारे में चिंता पैदा करती है। इससे खाद्य सुरक्षा और पोषण संबंधी कल्याण प्राप्त करने के व्यापक लक्ष्य के लिए जोखिम पैदा हो गया है।
भारत में कृषि क्षेत्र रोजगार का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। इसकी विकास दर में गिरावट न केवल किसानों को प्रभावित करती, बल्कि ग्रामीण श्रम बल पर भी व्यापक प्रभाव डालती है, जिससे संभावित रूप से बेरोजगारी और अल्परोजगार में वृद्धि होती है। 2004-05 में कृषि, वानिकी और मत्स्य पालन का कुल मिलाकर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान 21 फीसद था। पिछले अठारह वर्षों में यह घटकर लगभग सोलह फीसद रह गया है।
लेकिन खेतों में कार्यबल की संख्या में उस हिसाब से गिरावट नहीं आई है। कृषि देश में लगभग 55 फीसद कार्यबल को रोजगार देती है। इस क्षेत्र में अनुमानित 26 करोड़ लोग काम कर रहे हैं। यानी लगभग 55-57 फीसद आबादी की कृषि पर निर्भरता है, जो वर्तमान सरकार के दौरान लंबे समय से संकट में है।
मौजूदा सरकार के तमाम दावों के बावजूद किसानों को उनकी खेती से लाभकारी मूल्य तो दूर की बात, पारिश्रमिक भी नहीं मिल पा रहा है। कृषि क्षेत्र की विकास दर में उल्लेखनीय मंदी, पिछली अठारह तिमाहियों के सबसे निचले स्तर पर है, जो चिंता का विषय है। कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन का देश की समग्र व्यापक आर्थिक स्थिरता पर व्यापक प्रभाव पड़ता है।
इस महत्त्वपूर्ण क्षेत्र में मंदी उपभोक्ता भावना को कमजोर कर सकती है, जिससे व्यापक अर्थव्यवस्था में मांग और आपूर्ति की गतिशीलता प्रभावित हो सकती है। इस साल अनियमित मानसून अल-नीनो के कारण फसलों की पैदावार पर असर पड़ा है, जिसके आगे भी बने रहने की संभावना है।
कृषि क्षेत्र में सुस्त वृद्धि के लिए कई कारकों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। अनियमित मौसम पैटर्न, अपर्याप्त सिंचाई सुविधाएं और आपूर्ति शृंखला में चुनौतियों ने सामूहिक रूप से सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में लगातार योगदान देने की कृषि क्षेत्र की क्षमता में बाधा उत्पन्न की है। इसके अलावा, लागत और उत्पादन में लगातार बढ़ता अंतर, वाजिब न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलना, किसानों का बढ़ता कर्ज और आत्महत्याएं भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं।
सरकार के तमाम दावों के बावजूद परिवहन और भंडारण सुविधाओं सहित अपर्याप्त बुनियादी ढांचा, कृषि आपूर्ति शृंखला में एक बाधा बना हुआ है। इन कमियों के कारण फसल कटाई के बाद, किसान को स्थानीय व्यापारियों और बिचौलियों को कम दाम पर अपनी फसल बेचने को बाध्य होना पड़ता है। इससे किसानों को न केवल आर्थिक नुकसान होता, बल्कि क्षेत्र की समग्र विकास क्षमता में बाधा आती है।
कृषि आपूर्ति शृंखला में बुनियादी ढांचे की कमियों को दूर करना अत्यावश्यक है। भंडारण सुविधाओं, परिवहन नेटवर्क और सिंचाई प्रणालियों में निवेश से क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ सकती है और फसल के बाद के नुकसान को कम किया जा सकता है। अनियमित मौसम पैटर्न के प्रभाव को कम करने के लिए जलवायु-नमनीय कृषि पद्धतियों को लागू करना महत्त्वपूर्ण है। दीर्घकालिक लचीलेपन के लिए सूखा प्रतिरोधी फसलों, कुशल जल प्रबंधन और टिकाऊ कृषि तकनीकों में अनुसंधान और विकास आवश्यक है।
नीति क्रियान्वयन को सुव्यवस्थित करना और कृषि क्षेत्र में प्रमुख सुधारों में तेजी लाना सर्वोपरि है। इसमें भूमि स्वामित्व के मुद्दों को संबोधित करना, पारदर्शी खरीद प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करना, न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाना और किसान-अनुकूल नीतियों को बढ़ावा देना शामिल है, जो बेहतर आय की सुविधा प्रदान करते हैं। आज किसानों को कर्ज से ज्यादा प्रोत्साहन राशि की जरूरत है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंतर्संबंध को देखते हुए, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में रणनीतिक जुड़ाव महत्त्वपूर्ण है, लेकिन यह संबंध स्थानीय किसान हितों को ध्यान में रखते हुए हों। निर्यात बाजारों में विविधता लाना और व्यापार संबंधों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करना वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद आर्थिक स्थिरता में योगदान दे सकता है। कृषि में प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने से इस क्षेत्र में क्रांति आ सकती है। सटीक खेती, फसल की निगरानी के लिए ड्रोन का उपयोग और बाजार तक पहुंच के लिए डिजिटल मंचों को अपनाना ऐसे नवाचार हैं जो उत्पादकता और दक्षता बढ़ा सकते हैं।
आज कृषि श्रमिकों को रोजगार के अन्य माध्यमों पर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। कौशल विकास और ग्रामीण आजीविका के विविधीकरण पर केंद्रित पहल रोजगार पर कृषि मंदी के प्रभाव को कम कर सकती है। इसमें कृषि-प्रसंस्करण उद्योगों को बढ़ावा देना और ग्रामीण क्षेत्रों में उद्यमशीलता को बढ़ावा देना शामिल है। समुदाय-आधारित दृष्टिकोण, जैसे साझा खेती और समुदाय-समर्थित कृषि को प्रोत्साहित करना, किसानों को सशक्त और उनकी सौदेबाजी की शक्ति को बढ़ा सकता है। जमीनी स्तर पर सहयोगात्मक प्रयास सतत विकास में योगदान दे सकते हैं।
भारत के आर्थिक परिदृश्य की जटिलताओं से निपटने के लिए कृषि जैसे प्रमुख क्षेत्रों के सामने आने वाली चुनौतियों की सूक्ष्म समझ जरूरी है। सुस्त कृषि क्षेत्र के साथ मजबूत जीडीपी विकास दर के विरोधाभास पर तत्काल ध्यान देने और लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता है। मूल कारणों को संबोधित करना, प्रभावों को कम करना और व्यापक सुधारों और निवेशों के साथ आगे बढ़ने का रास्ता तैयार करना भारत के लिए अधिक लचीले, समावेशी और टिकाऊ आर्थिक भविष्य का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। सामूहिक रूप से ऐसी नीतियों और प्रथाओं को आकार देना महत्त्वपूर्ण है, जो समाज के हर वर्ग की समृद्धि सुनिश्चित करें, जिससे आर्थिक प्रगति की यात्रा में कोई भी पीछे न रहे।