निधि शर्मा
आमतौर पर ज्यादातर लोगों के आसपास कोई ऐसा मध्यवर्गीय परिवार जरूर होगा, जो अपनी बेटी की शादी के लिए बैंक से उठाए कर्ज या फिर किसी अन्य मद में लिए गए ऋण को किस्तों में चुका रहा होगा। किसी बैंक से कर्ज लेकर चुकाने की कहानी किसी एक परिवार की नहीं, बल्कि ऐसे बहुत सारे परिवारों की है, जो कई बार अपने बच्चों की जिद के आगे रिश्तेदारों और समाज के आगे रुतबा बनाने के लिए या लड़के वालों की मांग के अनुसार अपनी चादर से ज्यादा शादी में खर्च कर देते हैं। इसका खमियाजा कई वर्षों तक उन परिवार को भुगतना पड़ता है।
बेशक शादी करने का तरीका सभी का अपना निजी निर्णय होता है, लेकिन दुर्भाग्यवश इन दिनों की शादियां भावनात्मक कम, दिखावटी ज्यादा लगने लगी हैं। इस संदर्भ में किसी धारावाहिक फिल्म का एक संवाद है- ‘इंडिया में शादी, शादी नहीं, त्योहार है।’ इस त्योहार को मनाने में भारतीय कोई कसर नहीं छोड़ रहे। यही कारण है कि आज यह देश का चौथा सबसे बड़ा ‘उद्योग’ बन गया है। जबकि पिछली सदी के नब्बे के दशक से पहले शादियों में निभाए जाने वाले रीति-रिवाजों को सबसे अधिक तवज्जो दी जाती थी।
उबटन से लेकर सात फेरों तक की सभी प्रक्रिया में स्पष्ट विधि, चलन और तौर-तरीकों को उपयुक्त समय दिया जाता था। लेकिन आज वह समय कुछ कम कर फोटोग्राफी, सोशल मीडिया पर प्रचार और अन्य सौंदर्य प्रधान कार्यों को दिया जा रहा है। कई बार ऐसा लगता है कि यह सब हो भी क्यों नहीं! शादी में सबसे अधिक खर्चा शादी करने वाले स्थान, खानपान, फोटोग्राफी, आभूषण व अन्य प्रदर्शनपूर्ण कामों में हो रहा है तो उस खर्चे की प्रदर्शनी बहुत जरूरी है। एक आंकड़े के मुताबिक, इस प्रकार की बड़े बजट की शादियों से हर साल साठ हजार करोड़ आभूषण का कारोबार और पांच हजार करोड़ होटल उद्योग का कारोबार होने के साथ-साथ पौने चार लाख करोड़ का शादी उद्योग हो चुका है, जो सालाना पच्चीस से तीस फीसद विकास के साथ तेजी से आगे बढ़ रहा है।
बेशक इससे लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोजगार मिल रहा हो, लेकिन फिर वही बात कि शादी में सिर्फ शादी हो, उसे व्यापार नहीं लगना चाहिए। जब इन्हीं शादियों के शुरुआती चरणों में परिवारों के विचार-विमर्श की मेज पर सुनते हैं कि आप कितना खर्च करेंगे, शादी का स्थान कहां होगा, कितने स्टाल लगेंगे और क्या-क्या तोहफे एक दूसरे को दिए जाएंगे? इन सब मुद्दों पर दोनों परिवारों के एकमत होने पर निर्धारित किया जाता है कि शादी सफल होगी या नहीं। इस बात का कितना औचित्य है?
शायद दोनों परिवारों की हैसियत तो मिल जाए, लेकिन शादी के लिए जरूरी मूल्य और विचारों पर तो कोई बात ही नहीं करता। ऐसा मान लिया जाता है कि वह तो लड़की को पता ही होगा, लेकिन यह समझना होगा कि लड़की भी संपन्न परिवार से आई हो सकती है, जिसे लड़के वालों ने संपन्नता के कारण अपनाया है। ऐसे मामले में शादी धन देखकर की जाती है, न कि परिवार की अहमियत या कद देखकर। दुर्भाग्यवश दहेज के मामले भी इन्हीं संपन्न परिवारों में सबसे ज्यादा देखने को मिल रहे हैं। हाल में ही पश्चिम बंगाल के एक समृद्ध परिवार की लड़की ने ससुराल वालों की दहेज की प्रताड़ना के कारण आत्महत्या कर ली।
हालांकि उसके परिवार ने शादी में लगभग दस करोड़ रुपए खर्च किए थे। एक रपट के मुताबिक, दहेज निषेध अधिनियम, 1961 होने के बावजूद लाखों मुकदमे पंजीकृत हो रहे हैं। यह सोचने का मामला है। एक अन्य पहलू भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह भी है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक के मुताबिक भारत एक सौ सत्ताईस देशों में से एक सौ सातवें स्थान पर है। जहां बीस करोड़ लोग रोजाना खाली पेट भूखे सोते हैं, ऐसे देश में समृद्ध शादियों के नाम पर चालीस फीसद बना हुआ खाना शादियों में बर्बाद हो जाता है। देश को वे दिन जरूर याद रखने चाहिए जब कभी हम अनाज के लिए अन्य देशों पर निर्भर थे। आज अन्न की आत्मनिर्भरता विशेषकर संपन्न और मध्यवर्गीय परिवारों को बेलगाम बना रही है।
हमारी इन्हीं अनदेखी के कारण भारतीय शादियों की शानोशौकत की आलोचना की जाती है। शादियों में दिखावे के लिए देश में कोई महंगी अलग जगह चुनने से लेकर विदेश जाकर शादियां करने जैसे मामले सामने आते रहते हैं। लेकिन अब भारतीयों को अपने आसपास के स्थानों, संसाधनों और स्थानीय संस्कृति के माध्यम से शादियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा, ताकि कम खर्च में सांस्कृतिक शादियों का आनंद उठाया जा सके। शादी धन का नहीं, आपसी समझ से कायम किया गया रिश्ता है।