रामानुज पाठक
इस समय दुनिया में लगभग सात हजार ऐसे रोग हैं, जिन्हें दुर्लभ रोग माना जाता है। विज्ञान में प्रगति और रोग आनुवंशिकी की बढ़ती समझ के कारण विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हुए हैं कि अनुमानित दस हजार से अधिक दुर्लभ बीमारियां संयुक्त राज्य अमेरिका में लगभग तीन लाख लोगों को प्रभावित कर रही हैं। इनमें से अधिकतर प्रभावित बच्चे हैं। दुर्लभ रोगों में कुछ प्रचलित नाम हैं- सिस्टिक फाइब्रोसिस, जो श्वसन तंत्र और पाचन तंत्र को प्रभावित करता है। हटिंगटन्स रोग, जो मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करता है। मस्क्युलर डिस्ट्राफी, जो मांसपेशियों को प्रभावित करते हैं।
इन रोगों से जुड़ी एक समस्या यह भी है कि दुनिया भर में अन्य रोगों की तरह इनके लिए कोई एक नीति नहीं है। हर देश इन्हें अपने हिसाब से देखता और तय करता है कि कोई रोग दुर्लभ कहा जाए या नहीं। इसीलिए जो रोग एक देश में दुर्लभ कहा जाता है, जरूरी नहीं कि वह दूसरे देश में भी दुर्लभ माना जाए। यूरोप में मानक है कि अगर दो हजार लोगों में किसी एक व्यक्ति में कोई रोग पाया जाता है, तो वह दुर्लभ रोग कहा जाएगा, वहीं अमेरिका में यह संख्या डेढ़ हजार लोगों में एक है।
चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक, अस्सी फीसद दुर्लभ रोगों की वजह आनुवंशिक होती है। बाकी दुर्लभ रोगों के कारण जीवाणु, विषाणु संक्रमण और एलर्जी होते हैं। दुर्लभ रोग से ग्रस्त दो मरीजों के सभी लक्षण जरूरी नहीं कि एक जैसे हों। कुछ लक्षण तो इतने सामान्य हैं कि रोग का पता लगने में काफी विलंब हो जाता है। इस वजह से इनके इलाज में भी परेशानी आती है। दुर्लभ रोग पूरे जीवन को प्रभावित करते हैं। चूंकि ऐसी बीमारियों के लिए बहुत कम या लगभग कोई मौजूदा इलाज या उपाय नहीं है, इसलिए रोगियों का दर्द, कष्ट और भी बढ़ जाता है। चूंकि इन रोगों के बारे में समाज में अधिकांश लोगों को कोई जानकारी नहीं होती है, इसलिए इनके रोगियों को सामाजिक भेदभाव समेत अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
यह सर्वमान्य है कि अन्य विकासशील देशों की तरह भारत में भी दुर्लभ रोगों को ठीक ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है। इनसे संबंधित वास्तविक आंकड़े भी उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए यह भी जानना मुश्किल है कि कितने लोग भारत में इस बीमारी से पीड़ित हैं और कितने लोगों की मृत्यु दुर्लभ रोगों के कारण हुई है। अगर अंतरराष्ट्रीय मानकों की बात करें तो प्रत्येक देश की छह से लेकर आठ फीसद आबादी दुर्लभ रोगों से पीड़ित है। तृतीयक श्रेणी के अस्पताल (जहां प्राथमिक और द्वितीयक श्रेणी के अस्पताल से इलाज न हो पाने के कारण भेजा जाता है) से उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार भारत में 450 से 500 प्रकार के दुर्लभ रोग पाए जाते हैं। इनमें अधिकतर संख्या हीमोफिलिया, थैलेसीमिया, सिकल-सेल एनिमिया, बच्चों में प्राथमिक प्रतिरोधकता की कमी, लिसोसोमल स्टोरेज डिसआर्डर (एलएसडी) जैसे कि पोम्पे रोग, हिर्स्बसुंग रोग, गौचर रोग, सिस्टिक फाइब्रोसिस, हेमांगी ओमास और अन्य प्रकार के पेशीय अपविकास के रोगों की है।
दुर्लभ रोगों की पहचान करने में वर्षों लग जाते हैं, क्योंकि इससे संबंधित नैदानिक तौर-तरीके अपेक्षित नहीं हैं और चिकित्सकों में इससे संबंधित जानकारी का भी अभाव है। अधिकतर दुर्लभ बीमारियों से संबंधित अनुसंधान और शोध में सबसे बड़ी चुनौती उस बीमारी के इतिहास की कम जानकारी होना है। दुर्लभ बीमारियों का इलाज इसलिए भी दुष्कर है, क्योंकि इससे पीड़ित रोगियों की संख्या काफी कम है और उनका इलाज भी ठीक ढंग से नहीं किया जाता है।
चुनौतियां तब और कठिन हो जाती हैं जब दुर्लभ रोग बहुत घातक प्रकृति का होता है, क्योंकि इसमें काफी लंबे समय तक बीमारी को परीक्षण के लिए रखा जाता है, लेकिन घातक होने के कारण शीघ्र ही रोगी की मृत्यु हो जाती है। दुर्लभ रोग से पीड़ित रोगियों की संख्या काफी कम होने के कारण दवा उत्पादक कंपनियां इन रोगों के लिए दवाएं नहीं बनाती हैं, क्योंकि इनकी बिक्री बहुत कम होती है। अगर दवाएं बनाई भी जाती हैं, तो उनका मूल्य काफी अधिक होता है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में प्रस्ताव था कि 2025 तक स्वास्थ्य खर्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 2.5 फीसद तक बढ़ाया जाए और राज्यों द्वारा 2020 तक स्वास्थ्य पर अपने बजट का आठ फीसद खर्च बढ़ाया जाएगा। कुछ राज्यों ने ऐसा किया भी, पर अब भी राज्यों का स्वास्थ्य पर खर्च भिन्न-भिन्न है और अधिकांश राज्य स्वास्थ्य पर अपने बजट का पांच फीसद ही खर्च करते हैं।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 का प्रमुख उद्देश्य स्वास्थ्य प्रणाली के सभी आयामों यथा स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश, स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं के व्यवस्थापन और वित्त पोषण, रोगों की रोकथाम, प्रौद्योगिकियों तक पहुंच, मानव संसाधन विकास, विभिन्न चिकित्सीय प्रणाली को प्रोत्साहन, बेहतर स्वास्थ्य हेतु अपेक्षित ज्ञान आधार तैयार करना रहा है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने दुर्लभ रोग के रोगियों के इलाज हेतु वर्ष 2021 में ‘राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति’ की शुरुआत की थी, जिसका मुख्य उद्देश्य दवाओं के लिए स्वदेशी अनुसंधान और स्थानीय उत्पादन पर ध्यान बढ़ाना, दुर्लभ रोगों के उपचार की लागत को कम करना, शुरुआती चरणों में दुर्लभ रोगों की पहचान और पता लगाना था।
राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति में दुर्लभ रोगों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है। समूह एक-एक बार उपचार की आवश्यकता वाले विकार। समूह दो, दीर्घकालिक या आजीवन उपचार की आवश्यकता वाले विकार। समूह तीन, ऐसे रोग, जिनके लिए निश्चित उपचार उपलब्ध है, लेकिन इनके उपचार की लागत बहुत अधिक है। जो लोग समूह एक के तहत सूचीबद्ध दुर्लभ रोगों से पीड़ित हैं, उन्हें राष्ट्रीय आरोग्य निधि योजना के अंतर्गत बीस लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता दिए जाने का प्रावधान है।
वहीं राष्ट्रीय आरोग्य निधि का उद्देश्य गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) जीवनयापन करने वाले ऐसे रोगियों को वित्तीय सहायता प्रदान करना है, जो गंभीर बीमारियों से पीड़ित हैं, ताकि वे सरकारी अस्पतालों में उपचार की सुविधा प्राप्त कर सकें। इस योजना के अंतर्गत गंभीर रोगों से ग्रस्त लोगों को ‘सुपर स्पेशिलिटी’ अस्पतालों और सरकारी अस्पतालों में उपचार की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। ऐसी वित्तीय सहायता प्राप्त करने के लिए लाभार्थी गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों तक सीमित नहीं होंगे, बल्कि इसे लगभग चालीस फीसद ऐसी आबादी तक बढ़ाया जाएगा, जो केवल सरकारी तृतीयक अस्पतालों में इलाज के लिए प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई) के मानदंडों के अनुसार पात्र हैं।
दुर्भाग्यवश भारत की अब तक की उपेक्षित दुर्लभ रोग नीति ने यही रेखांकित किया है कि, सार्वजनिक स्वास्थ्य संख्याओं का खेल है, जीवन का नहीं, जो कि उचित नहीं है। दुर्लभ रोगों से मुक्ति सरकारों के लिए चुनौती है, इसलिए सुनियोजित तरीके से सरकारों को ही समयबद्ध कार्यक्रम बनाकर इन रहस्यमयी बीमारियों से लड़ना पड़ेगा। कितना महंगा उपचार है दुर्लभ रोगों का, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक दुर्लभ रोग है- ‘स्पाइनल मस्कुलर एट्राफी’ टाइप वन।
इस बीमारी में एक इंजेक्शन लगाया जाता है। यह इंजेक्शन सिर्फ अमेरिका में मिलता है, जिसकी कीमत सोलह करोड़ रुपए है। इतनी बड़ी रकम खर्च करना भारत में आम जन के वश की बात नहीं है। यहां यह स्पष्ट है कि लगभग पंचानबे फीसद दुर्लभ बीमारियों का कोई प्रमाणित उपचार उपलब्ध नहीं है और इनसे प्रभावित सिर्फ दस में से एक रोगी का ही रोग-विशिष्ट उपचार हो पाता है। ऐसे में सरकार को बाजार प्रणाली पर दुर्लभ रोगों को नहीं छोड़ना चाहिए। दुर्लभ रोग सार्वभौमिक स्वास्थ्य का जटिल मुद्दा है।