राकेश सिंहा
संसदीय जनतंत्र से जुड़े किसी भी आयाम पर जब भी चर्चा होती है तब भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का हवाला दिया जाता है। दशकों से विश्लेषकों ने उन्हें इसका एक तरह से मानक बना दिया है। यहां तक कि भारत में संसदीय जनतंत्र की सफलता का श्रेय भी उन्हीं को दिया जाता रहा है।
हाल के वर्षों में कांग्रेस नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर प्रहार करती रही है कि नेहरू को मिटाने का काम कर रहे हैं। इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं होगी यदि यह कहा जाए कि नेहरू को भारतीय संसदीय जनतंत्र का पर्याय मान लिया गया। यह कितना सत्य है, इसे परखने की जरूरत है। यह भी उतना ही सत्य है कि जांच पड़ताल के निष्कर्ष भी लोगों के पूर्वग्रह को समाप्त नहीं कर पाते हैं।
इसका बड़ा कारण है। भारत में राजनीतिक नेतृत्व ने आजादी के पूर्व से ही भावनात्मक पक्ष को व्यवस्थित रूप से बढ़ाया है। उसी का परिणाम है कि हकीकत जानने के बाद भी राजनीतिक कार्यकर्ता अपनी जगह डटा रहता है। अतिशय भावना का प्रवाह विवेक और विज्ञान की भ्रूणहत्या कर देता है। राजनीति में विवेकवाद और वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने की कोशिशें भी कम हुई हैं। इसलिए भावनाएं विभिन्न रूपों में कार्यकर्ताओं और सामान्य जनता दोनों पर हावी रही है। नेहरू के संदर्भ में भी यही हुआ है।
नेहरू विद्वान थे एवं तार्किकता में विश्वास करते थे। परंतु यह किसी के लोकतंत्र निष्ठ होने की गारंटी नहीं हो सकती है। इसे स्वयं उन्होंने कोलकाता से प्रकाशित प्रतिष्ठित पत्रिका ‘माडर्न रिव्यू’ में छद्म नाम से लेख लिखकर देश दुनिया को बताया था। इस पत्रिका के संपादक रामानंद चटर्जी थे। नवंबर 1937 में ‘राष्ट्रपति’ के शीर्षक से छद्म नाम से लिखे लेख में नेहरू ने अपने आप में तानाशाह होने की पूर्ण संभावना से समकालीन राजनीति को चेताया था। कुछ लोगों यह नेहरू का साहित्यिक कारनामा लगा था। साधारणतया बुद्धिजीवियों में यह चरित्र रहता है। परंतु नेहरू सिर्फ बुद्धिजीवी नहीं थे। वे उससे कहीं अधिक राजनेता थे।
स्वतंत्रता के पश्चात उन्होंने सर्वस्ववादी बनने का अभियान शुरू किया, जो कांग्रेस के मूल चरित्र के प्रतिकूल था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कांग्रेस ने विविध सोच एवं अभिव्यक्ति के लोगों को बराबर का स्थान दिया था। इससे कांग्रेस को अखिल भारतीय बनने में मदद मिली थी। नेहरू ने इस पर आघात किया। ऐसा करने में उन्होंने तर्क का सहारा नहीं लेकर अपने आभामंडल का उपयोग किया।
इसका उदाहरण 1950 में कांग्रेस के भीतर संगठनात्मक चुनाव था। अध्यक्ष पद पर पुरुषोत्तम दास टंडन और जेबी कृपलानी आमने-सामने थे। नेहरू ने कृपलानी को अपना उम्मीदवार घोषित किया था। टंडन को 1306 और कृपलानी को 1092 मत मिले। तब कांग्रेस के मतदाता स्वतंत्रता आंदोलन के मंजे हुए परिपक्व राजनीतिक कार्यकर्ता थे। हार नेहरू को बर्दाश्त नहीं हुई। उन्होंने टंडन के साथ पूर्ण असहयोग शुरू किया।
इसी बीच, 15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल की मृत्यु हो गई। इससे नेहरू का पलड़ा भारी हो गया। अंतत: चुने हुए टंडन को इस्तीफा देना पड़ा। नेहरू ने वही किया, जो 1939 में सुभाष चंद्र बोस के साथ महात्मा गांधी ने किया था। 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में बोस को 1580 मत मिले थे, जबकि पट्टाभि सीतारमैया को 1377 मत मिले थे। पट्टाभि को महात्मा गांधी का समर्थन प्राप्त था।
गांधी ने इसे अपनी हार करार देकर बोस को बेहद असहाय बना दिया। अंतत: त्रिपुरी (मध्य प्रदेश) में कांग्रेस के अधिवेशन में उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा। जैसे बोस के जाते ही कांग्रेस द्वंद्व मुक्त होकर गांधी के साथ खड़ी हो गई, ठीक उसी प्रकार टंडन के हटने के बाद कांग्रेस पूरी तरह से नेहरू के सामने नतमस्तक हो गई।
नेहरू के बारे में एक धारणा है कि उन्होंने विरोधियों को अपने मंत्रिपरिषद में स्थान दिया। पर यह उनकी रणनीति थी। वे वास्तव में वैचारिक और राजनीतिक विरोध को अंकुरित होने से पूर्व ही मार देना चाहते थे। वे असहमति के प्रति अत्यंत ही असहिष्णु थे। निर्णय प्रक्रिया में वे पूर्ण रूप से स्व के पिंजरे में बंद थे। तभी तो डा श्यामा प्रसाद मुखर्जी को नेहरू-लियाकत समझौते के विरुद्ध आवाज उठाने के कारण मंत्रिपद से हाथ धोना पड़ा था।
यह समझौता मंत्रिमंडल की सहमति के बगैर नेहरू ने किया, जिसके परिणामों को लेकर डा मुखर्जी चिंतित थे। यह अकेली घटना होती तो अपवाद माना जाता, परंतु प्रतिभावान और रीढ़ वाले नेताओं को नेहरू ने रास्ता दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जान मथाई का मत योजना आयोग के बारे में नेहरू से भिन्न था और उन्हें त्यागपत्र देना पड़ा था। चिंतामन द्वारकानाथ देशमुख का मत राज्य पुनर्गठन के संबंध में नेहरू से भिन्न था। और उन्हें मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र देना पड़ा।
भारत के प्रथम कानून मंत्री भीमराव आंबेडकर को अपनी सोच में दृढ़ता के कारण हटना पड़ा। भाई रघुवीर एक विद्वान राजनेता थे। वे नेहरू की चीन नीति के आलोचक थे। उन्हें अलग-थलग करने की मुहिम शुरू हुई, जिसे भांपकर वे स्वयं कांग्रेस से अलग हो गए। इसके पूर्व की दो घटनाएं कांग्रेस में पनप रही अधिनायकवादी प्रवृत्ति के नेतृत्व की ओर इशारा करती हैं।
पहली घटना 1946 की है, जब नेहरू चाहते थे कि आंध्र प्रदेश का कांग्रेस विधायक दल राजा जी को नेता चुने। परंतु इस प्रस्ताव के समर्थन में 38 मत मिले और विरोध में 148 मत। टी प्रकाशम मुख्यमंत्री तो बन गए, पर कुछ ही महीनों में सरकार गिरा दी गई। दूसरी घटना 1951 की है। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक 11 अगस्त 1950 को थी। इस बैठक से पूर्व हरेकृष्ण मेहताब का आश्चर्य में डालने वाला वक्तव्य आया। उन्होंने तर्क दिया, ‘यह व्यक्ति पूजा नहीं है, बल्कि व्यवहारिक पक्ष को ध्यान में रखकर किया गया है।’
भारतीय राजनीति में संसदीय जनतंत्र को आरंभिक काल में ही राजनीतिक अपयश का सामना करना पड़ा। नेहरू काल में इसके उत्कर्ष से पूर्व ही पराभव शुरू हो गया। नेहरू ने अपने पूर्वाग्रह और विश्व दृष्टि के सामने जनतंत्र की मर्यादा का न सिर्फ उल्लंघन किया, बल्कि संसदीय दल और संगठन को एकरूपता के पिंजरे में बंद कर दिया।