तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने चेन्नई के प्रेसीडेंसी कालेज में पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की प्रतिमा का अनावरण किया। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को बतौर मेहमान बुलाया। कांग्रेस के किसी नेता को नहीं बुलाया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पत्नी और बेटों को जरूर आमंत्रित किया। स्टालिन ने पूर्व प्रधानमंत्री के बारे में कहा कि वे सामाजिक न्याय के रहनुमा थे।
मंडल आयोग की रिपोर्ट को वीपी सिंह की सरकार ने ही लागू किया था। पिछड़ों को 27 फीसद आरक्षण देने के उनके इस कदम का देश भर में विरोध भी हुआ था। उस समय तो सुप्रीम कोर्ट ने इस आरक्षण पर रोक लगा दी थी। बाद में नरसिंह राव सरकार के दौर में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने पिछड़ों के इस आरक्षण को वैध ठहराया था। तभी से विश्वनाथ प्रताप सिंह सामाजिक न्याय और पिछड़ों के मसीहा कहलाए।
मंडल समर्थक नेताओं में लालू यादव और नीतीश कुमार भी थे। स्टालिन ने उन्हें भी नहीं बुलाया। नेहरू गांधी परिवार के किसी सदस्य को नहीं बुलाने की एक वजह वीपी सिंह के प्रति इस परिवार की नाराजगी का ख्याल रखना भी हो सकती है। उन्हीं के चलते राजीव गांधी को सत्ता गंवानी पड़ी थी। हालांकि वीपी सिंह के पुत्र अजेय सिंह खुद कांग्रेस में शामिल हो गए थे। जानकार तो कह रहे हैं कि ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल क्षेत्रीय दल कांग्रेस की बांह उमेठने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
राकांपा नेता अनिल देशमुख ने एक बार फिर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अपनी गिरफ्तारी के दर्द को याद किया। उनका यही मत था कि जो केंद्र के आगे नहीं झुकेगा वह जेल जाएगा। महाराष्टÑ के पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख ने एक कार्यक्रम में आरोप लगाया कि उप मुख्यमंत्री अजित पवार को भाजपा ने शरद पवार का राजनीतिक करियर खत्म करने की सुपारी दे दी है।
देशमुख ने कहा कि पूरा महाराष्टÑ और भारत जानता है कि भोपाल में प्रधानमंत्री के भाषण के बाद अजित पवार और उनके साथी पार्टी छोड़कर आए लोग जल्दबाजी में सरकार में शामिल हो गए थे। इसके पहले अजित पवार पर 70,000 करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार में लिप्त रहने का आरोप लगाया था। देशमुख ने अपनी गिरफ्तारी का उल्लेख करते हुए कहा, क्या आप जानते हैं कि अजित पवार ने अलग रास्ता क्यों अपनाया? अजित वो परेशानी नहीं झेलना चाहते थे जो मैंने सही।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की राह के कांटे अभी भी कम होते नजर नहीं आ रहे हैं। जैसा कि कयास लगाए जा रहे थे केंद्र सरकार ने दिल्ली के वर्तमान मुख्य सचिव नरेश कुमार की सेवाओं को छह महीने का और विस्तार दे दिया है। नरेश कुमार उपराज्यपाल के करीबी हैं और यह इस शीतयुद्ध की सबसे बड़ी वजह है।
अब तक इस तरह का सेवा विस्तार विभिन्न बोर्ड या आयोग के पदों के रूप में देखा जाता रहा है। सवाल खड़े नहीं हों इसलिए इस व्यवस्था को लागू करने से पूर्व देश के अन्य राज्यों में भी इस प्रकार के सेवा विस्तार की व्यवस्था को लागू किया गया है। ताकि आसानी से इस प्रक्रिया को आधार बनाकर प्रशासिनक अधिकारियों को आगे सेवा देने का मौका दिया जा सके।
चुनाव सर्वेक्षण ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में भाजपा नेताओं की बेचैनी बढ़ा दी है। राजस्थान में हालांकि मुकाबला कांटे का दिखाया गया है, पर मध्यप्रदेश में ज्यादातर चुनावी सर्वेक्षण ने भाजपा की बढ़त दिखाई है। परिणाम तो बेशक तीन दिसंबर को ही सामने आएंगे पर मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर दांव-पेच शुरू हो गए हैं, और इस पर किसी का बस भी नहीं।
भाजपा ने इस बार पांचों ही राज्यों में किसी को भी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव नहीं लड़ा। पर, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे सत्ता के खुद को स्वाभाविक दावेदार मान रहे हैं। राजनीति में यों तो कुछ भी स्पष्ट नहीं होता। कई बार मुख्यमंत्री का ख्वाब देखने वाले अपना विधानसभा चुनाव तक हार चुके हैं। राजस्थान में सीपी जोशी और हिमाचल में पे्रम कुमार धूमल की मिसाल मौजूद हैं।
लेकिन भाजपा आलाकमान का लक्ष्य तो अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में इन राज्यों से ज्यादा सीटें जीतना है। पर दोनों दावेदार वसुंधरा राजे और शिवराज चौहान तो यही चाहेंगे कि पार्टी बहुमत से कुछ पीछे रह जाए। तभी तो बहुमत के जुगाड़ के अपने हुनर के बूते मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना दावा पेश कर पाएंगे और जरूरत पड़ी तो आलाकमान को बगावत की धमकी भी दे पाएंगे। देखते हैं कि तीन दिसंबर को राजस्थान और मध्यप्रदेश के क्या नतीजे आते हैं। पर ‘चेहरों’ की तैयारी तो पूरी है।
डीके शिवकुमार फिर सुर्खियों में हैं। कर्नाटक कांग्रेस के इस करामाती नेता के पास इस समय दोहरी जिम्मेदारी है। पार्टी के सूबेदार तो हैं ही सरकार में उपमुख्यमंत्री भी हैं। कांग्रेस के विधायकों ने जब मध्यप्रदेश और राजस्थान में बगावत की थी तो डीके शिवकुमार ने ही उन्हें खरीद-फरोख्त से बचाने का जिम्मा लिया था। कर्नाटक में पार्टी के विधायकों को एक साथ रखा गया था।
हालांकि इस चक्कर में डीके शिवकुमार की ईडी और आयकर जैसी केंद्रीय एजंसियों के फंदे में फंसने की नौबत भी आ गई थी। इस बार मध्यप्रदेश और राजस्थान को लेकर पार्टी नेतृत्व पहले से चौकन्ना है। शिवकुमार के लिए अनुकूलता यह है कि अब कर्नाटक में उनकी अपनी सरकार है। इस नाते पार्टी के विधायकों को सुरक्षित रख पाना ज्यादा जटिल नहीं होगा।
दल-बदल कानून के कारण अब किसी पार्टी के विधायक टूटकर दूसरी पार्टी में तो शामिल नहीं हो पाते पर अपनी विधानसभा सदस्यता से त्यागपत्र देकर दूसरी पार्टी के सत्ता में आने की राह जरूर आसान बना देते हैं। त्रिशंकु विधानसभा की नौबत आई तो डीके शिवकुमार की भूमिका अहम जरूर हो जाएगी।
संकलन : मृणाल वल्लरी