एक अमेरिकी नागरिक प्रति वर्ष 14.5 मीट्रिक टन कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जित करता है। इसकी तुलना में एक भारतीय वर्ष भर में औसतन 2.9 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है। समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जाए, तो संपन्न वर्ग अपने वाहन, एसी, फ्रिज, कंप्यूटर आदि उपकरणों से जितने कार्बन का उत्सर्जन करता है, उतना एक तय समय में पराली जलाने से नहीं होता। मगर दिल्ली में गहरी धुंध का समूचा दोष किसान के सिर पर मढ़ दिया जाता है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में वायु प्रदूषण से जुड़े मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि ‘यह बड़ी विडंबना है कि वायु प्रदूषण के मामले में किसानों को खलनायक बनाया जा रहा है, पर सच जानने के लिए हमारे सामने किसान नहीं हैं। हम उनसे नहीं पूछ सकते कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? पंजाब सरकार संतोषजनक जवाब नहीं दे पा रही है।
केंद्र सरकार मशीनों के लिए आर्थिक मदद देती है, लेकिन वह पूरी तरह मुफ्त देने का काम नहीं कर सकती।’ सरकार का पक्ष रखते हुए जब वकील ने कहा कि ‘किसान थोड़े से लाभ के लिए पर्यावरण की चिंता नहीं कर रहे हैं।’ तब पीठ ने कहा कि ‘पराली जलाने के लिए सिर्फ माचिस की एक तीली की जरूरत होती है, जबकि उसके उचित निस्तारण के लिए मशीन, डीजल और मजदूर लगते हैं। क्या ये सुविधाएं किसानों को निशुल्क दी जा सकती हैं? अगर कुछ किसान लोगों की परवाह किए बिना पराली जला रहे हैं तो सरकार सख्ती क्यों नहीं बरत रही है।’
पराली जलाने की घटनाओं और उसके दुष्प्रभावों पर लंबे समय से वाद-विवाद और नसीहतों का दौर चल रहा है। नेता जनता की किस्मत बदलने का दावा करते हैं, लेकिन हालात कमोबेस जस के तस बने रहते हैं। दीवाली का पर्व करोड़ों घरों की समृद्धि बढ़ाता है, लेकिन इसे धूम-धड़ाके से मनाने के सह-उत्पाद के रूप में जो प्रदूषण उपजता है, आखिरकार उसका दंड, किसान, मजदूर और अन्य छोटे कामगारों को ही झेलना पड़ता है।
क्योंकि उत्सव के बाद राजधानी में जो घातक धुंध छा जाती है, उसका दोष इन्हीं लोगों पर मढ़ दिया जाता है। अदालत में स्वच्छ वायुमंडल के लिए दायर की जाने वाली जनहित याचिकाओं का लक्ष्य भी इसी लाचार वर्ग को भेदने का काम करता है। ऐसे में उन कारों को बख्श दिया जाता है, जो प्रदूषण बढ़ाने में महती भूमिका निभाती हैं।
दरअसल, उद्योगों पर नियंत्रण किया जाएगा, तो उत्पादकता घटेगी। इसका असर जीडीपी पर पड़ेगा और देश दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में अटक जाएगा। जबकि दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था वाला भारत दुनिया का आठवां सबसे ज्यादा प्रदूषित देश है। दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित तीस में से बाईस शहर अकेले भारत में हैं।
यह पहला अवसर है, जब अदालत ने किसानों को प्रोत्साहित कर पराली दहन समस्या की दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल की है। अदालत ने कहा कि पंजाब को हरियाणा से सीख लेनी चाहिए, जिसने किसानों को आर्थिक मदद देकर एक सीमा तक पराली जलाने की समस्या से निजात पाई है। पराली दहन से निपटने का यही तार्किक हल है। जुर्माना लगाना या न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल न खरीदना उस किसान को दंड देना है, जो इस समस्या का प्रत्यक्ष या एकमात्र दोषी नहीं है।
उद्योगों और वाहनों द्वारा उगला जाने वाला धुआं भी वायुमंडल को दूषित करता है। किसानों को धान के डंठल मजबूरी में जलाने पड़ते हैं, क्योंकि उसे अगली फसल के लिए खेत बुबाई के लिए तैयार करने होते हैं। मगर सड़कों पर बड़ी संख्या में वाहन शौकिया या वैभव-प्रदर्शन के लिए भी चलाए जाते हैं। नेताओं की रैलियों और रोड शो में हजारों वाहन फिजूल में उतार दिए जाते हैं। अमीरों के इस प्रदूषण से जुड़े आंकड़े प्रदूषण के कुल आंकड़ों में जोड़ने से बचा जाता है।
वायु प्रदूषण में बड़ा योगदान शीतल पेय और बोतलबंद पानी बनाने वाली कंपनियों का भी है। इन कंपनियों के पास प्लास्टिक की बोतलों के कारगर निस्तारण का कोई उपाय नहीं है। ये बोतलें जल निकासी में रुकावट पैदा करने के साथ, जल प्रदूषण भी बढ़ाती हैं। बड़ी संख्या में खराब और कुचली बोतलों को कचरे के साथ जला भी दिया जाता है, जो वायु प्रदूषण का बड़ा कारण बनती हैं।
दिल्ली के सभी ढलाव क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में प्लास्टिक जलाया जाता है। मगर इसे प्रदूषण बढ़ाने के कारकों में रेखांकित नहीं किया जाता। ई-कचरा, जिसमें कंप्यूटर, टेबलेट, मोबाइल और अन्य उपकरण शामिल हैं, उनसे उत्सर्जित प्रदूषण को भी नजरअंदाज किया जाता है। इस लिहाज से अकेले किसान को कानून के डंडे से हांकना कितना कानून-सम्मत है? किसी भी मानवीय समस्या का समाधान परस्पर समन्वय से ही निकाला जा सकता है।
दुनिया भर में वायुमंडल में जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जित होने वाली गैसें चरम स्तर पर पहुंच गई हैं। 2022 में कार्बन डाइआक्साइड का औसत स्तर 417.9 पीपीएम दर्ज किया गया था। यह रिपोर्ट विश्व मौसम विज्ञान संगठन (डब्लूएमओ) ने जारी की थी। औद्योगिक काल के पहले की तुलना में कार्बन का स्तर 50 फीसद बढ़ चुका है। यह पिछले साल अपने सबसे उच्चतम स्तर पर था।
हालांकि इस साल नवंबर तक कार्बन का मानक स्तर 420 पीपीएम तक पहुंच चुका है, जो एक नया कीर्तिमान है। मीथेन और नाइट्रस आक्साइड के स्तर में भी बढ़ोतरी हुई है। डब्लूएमओ के महासचिव ने कहा है कि दशकों से विज्ञान-सम्मत चेतावनियों के बावजूद अब भी देश गलत दिशा में बढ़ रहे हैं। जीवाश्म ईंधन का उपयोग समाप्त करने के लिए तत्काल ठोस पहल की जरूरत है।
विकसित देशों ने कार्बन कम करने के उपायों को अमल में लाने से जुड़े बजट को बहुत कम कर दिया है। इस कारण भी कार्बन का उत्सर्जन दुनिया में बढ़ रहा है। यह तो प्रकृति का ही कमाल है कि उत्सर्जित होते कार्बन डाईआक्साइड का आधे से भी कम हिस्सा वायुमंडल में रह पाता है। क्योंकि इसके एक चौथाई से ज्यादा भाग को समुद्र द्वारा सोख लिया जाता है। वहीं तीस फीसद भाग को जंगल और जमीन का पारिस्थितिक तंत्र अवशोषित कर लेता है।
कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन के दहन और सीमेंट उत्पादन से सबसे ज्यादा होती है। दुनिया भर में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में जिम्मेवार गैसें एचएफसी 01 फीसद, एचसीएफसी 02, एनटूओ 06, सीएफसी 08, मीथेन 19 और कार्बन डाईआक्साइड 64 फीसद हैं। इन गैसों के ज्यादा उत्सर्जन होते रहने से जलवायु में बदलाव आएगा। बाढ़, आंधी, तूफान और लू जैसी घटनाएं सामान्य से अधिक देखने में तो आएंगी ही, इनकी आवृत्ति भी बढ़ जाएगी।
अगर हम ‘स्टेट आफ ग्लोबल एयर-2020’ रपट की बात करें तो वायु प्रदूषण से भारत में प्रतिदिन 539 बच्चों की मौत होती है। जहरीली वायु के चलते हमारे यहां 1.16 लाख से भी ज्यादा नवजात शिशुओं की मौत 27 दिन के भीतर हो जाती है। वायु प्रदूषण का सबसे ज्यादा विपरीत प्रभाव शिशुओं, बालकों और वृद्धों पर पड़ता है। इनमें भी अभावग्रस्त, यानी गरीब या सुविधाओं से वंचित लोगों को सबसे ज्यादा प्रदूषण का प्रभाव झेलना पड़ता है। अब तक की हकीकत यह है कि इस संकट के प्रमुख दोषी विकसित देश हैं, लेकिन ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ दिया जाता है।
विकसित देश सन 1950 से 2022 के बीच पृथ्वी पर 1.5 खरब मीट्रिक टन कार्बन डाइआक्साइड उत्सर्जित करके वायुमंडल में पहुंचा चुके हैं। इसमें करीब 90 फीसद भाग यूरोप और उत्तरी अमेरिका का है। आज भी एक अमेरिकी नागरिक प्रति वर्ष 14.5 मीट्रिक टन कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जित करता है।
इसकी तुलना में एक भारतीय वर्ष भर में औसतन 2.9 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जित करता है। समूचे भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहा जाए, तो संपन्न वर्ग अपने वाहन, एसी, फ्रिज, कंप्यूटर आदि उपकरणों से जितने कार्बन का उत्सर्जन करता है, उतना एक तय समय में पराली जलाने से नहीं होता। मगर दिल्ली में गहरी धुंध का समूचा दोष किसान के सिर पर मढ़ दिया जाता है।