उत्तरकाशी के सुरंग में 41 मजदूर पिछले 16 दिनों से फंसे हुए हैं, उन्हें बाहर निकालने का हर संभव प्रयास जारी है। इस बीच सोमवार को एनएचआईडीसीएल के प्रबंध निदेशक महमूद अहमद ने बताया कि सुरंग में वर्टीकल ड्रिलिंग का काम 30 नवंबर तक पूरा हो जाएगा। अब मजदूरों को बाहर निकालने की इस कोशिश में रैट माइनर्स को काम पर लगाया गया है और यह मलबा हटाने और रास्ता बनाने का काम करेंगे। हम इस स्टोरी में जानेंगे कि रैट माइनर्स कौन होते हैं और किस तरह काम करते हैं। रैट माइनर्स को कुछ वक्त के लिए प्रातिबंधित भी कर दिया गया था।
इस बचाव अभियान में सहायता करने के लिए सिल्क्यारा पहुंचे रैट माइनर्स में से एक झांसी के रहने वाले परसादी लोधी ने कहा कि वह पाइपों के जरिए भीतर जाएंगे और मलबे को साफ करेंगे, उनके हाथों में कुदाल जैसे उपकरण होंगे, यह काफी गंभीर तरीका भी माना जाता रहा है। उन्होंने कहा, “मैं पिछले 10 सालों से दिल्ली और अहमदाबाद में यह काम कर रहा हूं। लेकिन फंसे हुए लोगों को बचाने का काम मेरे लिए सबसे पहले होगा, हमारे लिए डरने का कोई कारण नहीं है। यह 800 मिमी चौड़ा पाइप है और हमने 600 मिमी छेद में काम किया है। वहां करीब 12 मीटर तक मलबा है, अगर यह सिर्फ मिट्टी है, तो इसमें लगभग 24 घंटे लगेंगे, लेकिन अगर चट्टानें हैं, तो इसमें 32 घंटे या उससे ज्यादा समय लग सकता है।” झाँसी से आए विपिन राजपूत ने कहा कि वह पिछले 2-3 सालों से यह काम कर रहे हैं। यह कोयला निकालने की एक विधि है। जिसे चूहे के बिल बनाने और मलबा खोदने के तरीके से लिया गया है। ठीक चूहे की तरह एक आदमी के जरिए मलबा निकाला जाता है।
शिलांग में नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी (एनईएचयू) में पर्यावरण अध्ययन के प्रोफेसर ओपी सिंह ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि रेट माइनिंग आमतौर पर दो तरह की होती है। एक साइड कटिंग प्रोसेस और एक बॉक्स-कटिंग का तरीका होता है। दूसरे तरीके में जिसे 100 से 400 फीट गहरा एक गड्ढा खोदा जाता है। एक बार कोयले की परत मिल जाने के बाद चूहे के बिल के आकार की सुरंगें खोदी जाती हैं।
रैट माइनिंग के इस तरीके को काफी खतरनाक माना जाता रहा है और माना जाता रहा है कि इससे पर्यावरणीय खतरे पैदा होते हैं। क्योंकि खदानें आम तौर पर अनियमित होती हैं, जिनमें उचित वेंटिलेशन और सुरक्षा उपायों का अभाव होता है।
जो मजदूर भीतर गए होते हैं उनके लिए भी कई तरह के खतरों की संभावना बनी होती है। खनन के इस तरीके को कई घटनाओं के सामने आने के बाद काफी खतरनाक माना जाता रहा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने 2014 में इस पर प्रतिबंध लगा दिया था एनजीटी का कहना था कि ऐसे कई मामले हैं जहां बरसात के मौसम के दौरान कई मजदूर मारे गए हैं।