आम आदमी पार्टी ने भारत की राजनीति में अपने 11 साल पूरे कर लिए हैं। टिपिकल पॉलिटिक्स से अलग राजनीति को बढ़ावा देने वाली इस पार्टी का उदय एक आंदोलन के साथ हुआ था। उस आंदोलन की अगुवाई अन्ना हजारे ने की थी। यूपीए का दूसरा कार्यकाल चल रहा था, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे और भ्रष्टाचार के कई गंभीर मामलों ने सरकार को बुरी तरह फंसा रखा था। 2011 आते-आते भ्रष्टाचार का मुद्दा हर किसी की जुबान पर था, विदेशी बैंको में जमा काला धन आम आदमी की चर्चा का विषय बन चुका था।
ये वो आंदोलन था जो आने वाले सालों में आम आदमी पार्टी की नींव बनने जा रही थी। अन्ना हजारे ने तो राजनीति में आने से साफ मना कर दिया था, लेकिन उन्हीं के आंदोलन के साथ जुड़े एक गुट को राजनीति में आने की जरूरत लगने लगी थी। उस गुट का तर्क था कि जब तक राजनीति में कूदा नहीं जाएगा, जमीन पर असल बदलाव नहीं हो सकते। इसी वजह से एक समय अन्ना हजारे के साथ आंदोलन करने वाले अरविंद केजरीवाल ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर आम आदमी पार्टी का गठन किया। ये तारीख थी 26 नवंबर, 2013, यानी कि अन्ना आंदोलन के 2 साल बाद।
2013 में ही आम आदमी पार्टी ने अपना पहला चुनाव भी लड़ा था। उस समय राजनीति का कोई अनुभव नहीं था, लेकिन कुछ मुद्दे थे जिनके सहारे जनता के बीच पैठ बनाने की कोशिश थी। बिजली बिल का ज्यादा आना, पानी टैंकर माफिया जैसे मुद्दों के सहारे दिल्ली में सक्रिय होने की कवायद दिखी। जब नतीजे आए दिल्ली में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी आम आदमी पार्टी रही। उसने तब कांग्रेस के बाहर से मिले समर्थन के सहारे पहली बार में ही सरकार भी बना डाली।
लेकिन सवाल कई थे, जिस कांग्रेस के खिलाफ आंदोलन चलाकर आम आदमी पार्टी का गठन किया गया, उसी पार्टी ने अब कांग्रेस की मदद से सरकार बनाई। ये सवाल अरविंद केजरीवाल का पीछा नहीं छोड़ा, कार्यकर्ताओं में भी कुछ रोष दिखा। केजरीवाल की कार्यशैली से कांग्रेस में भी असमंजस की स्थिति रही और 49 दिनों में ही सरकार गिर गई। उस एक इस्तीफे ने अरविंद केजरीवाल को बता दिया था कि अगर दिल्ली पर राज करना है तो अपनी खुद की राजनीति शुरू करनी होगी, ऐसी राजनीति जहां पर किसी दूसरे पर निर्भर ना होना पड़े, जहां पर सही मायनों में एक विकल्प खड़ा किया जा सके।
अब 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव ने आम आदमी पार्टी की वो कसर दूर कर दी। उस चुनाव ने दिल्ली की राजनीति को एक अप्रत्याशित घटना दी। पूर्ण रूप से अरविंद केजरीवाल का उदय हुआ और आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत लीं। कांग्रेस का आंकड़ा तो शून्य पर पहुंच गया तो वहीं बीजेपी महज 3 सीटें जीत पाईं। उस चुनाव ने अरविंद केजरीवाल की लोकप्रियत का अहसास सभी को करवा दिया था। 2015 के बाद से ही दिल्ली में केजरीवाल मॉडल की शुरुआत हुई और शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ-साथ गुड गर्वनेंस पर जोर दिया गया।
दो साल पुरानी इस पार्टी ने दिल्ली में तो कमाल का प्रदर्शन कर दिखाया था, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर धमक दिखाना बाकी था। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो 400 सीटों पर उम्मीदवार उतारने वाली इस केजरीवाल की पार्टी को अपनी सबसे बुरी हार देखनी पड़ी थी। आंकड़ा तो शून्य रहा ही, कई सीटों पर जमानत तक जब्त हो गई। इस बीच दिल्ली के अलावा एक दूसरे राज्य में आम आदमी पार्टी की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ रही थी। ये राज्य था पंजाब जिसने सिर्फ दो ही पार्टियों को सत्ता में आते देखा- अकाली दल और कांग्रेस।
2017 का विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली के बाहर विस्तार करने का पहला मौका लाया था। शुरुआती दौर में तो इतनी हवा बना दी गई थी कि आम आदमी पार्टी को एक विकल्प के तौर पर देखा जाए, लेकिन चुनाव आते-आते पार्टी की हवा निकल गई और वो मात्र 20 सीटें ही जीत पाई। लेकिन उस हार से पार्टी ने सीखा और ठीक पांच साल बाद प्रचंड बहुमत के साथ पंजाब में भी सरकार बनाई। इस समय पंजाब में भगवंत मान मुख्यमंत्री बने हुए हैं।
उन बीते पांच सालों में दिल्ली में भी 2020 में विधानसभा चुनाव हो गए थे। केजरीवाल की सरकार ने प्रचंड बहुमत के साथ फिर वापसी की थी। दिल्ली मॉडल पर दिल्ली वालों ने अपनी मुहर लगा दी थी और कांग्रेस और बीजेपी दोनों को बाहर का रास्ता दिखाया गया। अब दिल्ली-पंजाब के बाद आम आदमी पार्टी को गुजरात में भी कुछ सफलता प्राप्त हुई, उसे जो राष्ट्रीय पार्टी का तमगा मिला, उसमें भी इसी राज्य का योगदान रहा। 12 फीसदी से ज्यादा वोट प्राप्त करते ही गुजरात में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर देने का काम किया। सरकार बीजेपी की बनी, लेकिन आप के प्रदर्शन ने बता दिया कि आने वाले सालों में मुकाबला किनके बीच रहने वाला है।
अब अगर आम आदमी पार्टी ने पिछले 11 सालों में अपना विस्तार किया है, उसके सामने कई बड़ी चुनौतियां भी आई हैं। इन चुनौतियों में डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया का शराब घोटाले में जेल जाना, उसी मामले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग केस में संजय सिंह को सजा होना पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका साबित हुआ है। मनी लॉन्ड्रिंग के ही दूसरे मामले में दिल्ली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहे सत्येंद्र जैन भी जेल में हैं। मेडिकल ग्राउंड पर वे बाहर जरूर हैं, लेकिन अभी सजा जारी है।
इसके ऊपर अरविंद केजरीवाल की केंद्र की मोदी सरकार के साथ चल रही तल्खी ने भी सभी का ध्यान खींचा है। कभी अधिकारों की लड़ाई तो कभी एलजी संग तकरार ने भी विवादों को मजबूत करने का काम किया है। अभी के लिए आम आदमी पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए इंडिया गठबंधन के साथ जुड़ी हुई है। एक बार फिर वो खुद को दिल्ली-पंजाब के बाहर मजबूत करना चाहती है, कितना सफल रहेगी, ये आने वाले दिनों में साफ होगा।