भारतीय दंड संहिता (आइपीसी), 1860, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 और दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 आपराधिक कानूनों की तिकड़ी हैं। भारतीय दंड संहिता के रचयिता पहले विधि आयोग के अध्यक्ष रहे थामस बबिंगटन मैकाले थे। सर जेम्स फिट्जजेम्स स्टीफन साक्ष्य अधिनियम के लेखक थे। 1898 की पहली सीआरपीसी को 1973 के अधिनियम के पारित होने के बाद निरस्त कर दिया गया था।
ये तीनों कानून देश भर की सैकड़ों अदालतों में हर रोज लागू किए जाते हैं। हजारों न्यायाधीश और डेढ़ लाख से अधिक वकील (जिनमें से अधिकांश आपराधिक पक्ष की ओर से वकालत करते हैं) व्यावहारिक रूप से हर दिन इन तीन अधिनियमों से रूबरू होते हैं। हर न्यायाधीश या वकील को यह पता है कि आइपीसी की धारा 302 ‘हत्या की सजा’ है।
वे जानते हैं कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के तहत किसी पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया कबूलनामा किसी आरोपी के खिलाफ साबित नहीं किया जा सकता है। उन्हें यह भी मालूम है कि अग्रिम जमानत और जमानत के प्रावधान सीआरपीसी की धारा 437, 438 और 439 में निहित हैं। इन तीनों अधिनियमों के कई दर्जन ऐसे प्रावधान हैं, जिन्हें न्यायाधीश और वकील ‘कंठस्थ’ रखते हैं।
कानूनों में सुधार करना एक नेक विचार है, लेकिन किसी कानून में सुधार का मतलब मौजूदा प्रावधानों को फिर से व्यवस्थित करना या उनके क्रम में अदल-बदल करना भर नहीं है। मौजूदा वक्त और हालात में आपराधिक कानून कैसा हो, इसका एक व्यापक दर्शन होना चाहिए। हमारे कानून बदलते मूल्यों, नैतिकताओं, रीति-रिवाजों और आकांक्षाओं के अनुरूप होने चाहिए। आधुनिक अपराधशास्त्र, आपराधिक न्यायशास्त्र और दंडशास्त्र में हुए हितकारी विकास को नए कानून में मुनासिब तरीके से दर्शाया जाना चाहिए।
मगर हम इन तीनों नए विधेयकों में क्या पाते हैं? कानून के कई विद्वानों ने इन तीनों विधेयकों की गहराई से पड़ताल की है। हमने पाया कि नए मसौदे में मूल आइपीसी के 90-95 फीसद प्रावधानों को वहां से उठाकर यहां दोबारा चिपका दिया गया है। नए विधेयक में आइपीसी के 26 अध्यायों में से कमोबेश 18 अध्यायों (तीन अध्यायों में केवल एक-एक खंड था) की नकल की गई है।
स्थायी समिति की रिपोर्ट ने स्वीकार किया है कि नए विधेयक में आइपीसी की 511 धाराओं में से 24 धाराएं हटा दी गर्इं हैं और 22 धाराएं जोड़ी गर्इं हैं। शेष धाराओं को बरकरार रखा गया है, लेकिन उनके क्रम को अदल-बदल करके उन्हें पुनर्व्यवस्थित किया गया हैं। आइपीसी में संशोधन के जरिए कुछ बदलाव आसानी से किए जा सकते थे।
साक्ष्य अधिनियम और सीआरपीसी के मामले में भी यही कहानी है। साक्ष्य अधिनियम की 170 धाराओं में से हरेक को वहां से उठाकर यहां चिपका दिया गया है। सीआरपीसी के लगभग 95 फीसद हिस्से को वहां से उठाकर यहां चिपकाया गया है। यह सारी कवायद पूरी तरह से एक व्यर्थ का प्रयास साबित हुई। इसके अलावा, अगर ये विधेयक पारित हो जाते हैं, तो इसके कई अवांछित नतीजे होंगे। न सिर्फ सैकड़ों-हजारों न्यायाधीशों, वकीलों, पुलिस अधिकारियों, कानून शिक्षकों अर कानून के विद्यार्थियों और यहां तक कि आम जनता को भी भारी असुविधा का सामना करना पड़ेगा, उन्हें कानूनों को ‘फिर से सीखना’ होगा।
विषय-वस्तु के लिहाज से इन विधेयकों में कुछ स्वागतयोग्य खूबियां हैं, जिन पर सरकार संसद में रोशनी डालेगी, लेकिन मैं इन विधेयकों की संदिग्ध खासियतों की ओर इंगित करना चाहता हूं। उनमें से सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण ये हैं :
मृत्युदंड को खत्म करने की दुनिया भर में चौतरफा मांग के बावजूद इसे बरकरार रखा गया है। पिछले छह सालों में सर्वोच्च न्यायालय ने सिर्फ सात मामलों में मौत की सजा पर मुहर लगाई है। एक दोषी को बिना किसी पैरोल के उसके शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास दरअसल कहीं ज्यादा सख्त सजा है और साथ ही यह सुधरने का विकल्प भी खुला छोड़ता है।
व्यभिचार एक बार फिर से अपराध की श्रेणी में आ गया है। व्यभिचार पति-पत्नी के बीच का मामला है। अगर उनके बीच का समझौता टूट जाता है, तो पीड़ित पति या पत्नी तलाक या नागरिक क्षति के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। राज्य द्वारा उनके जीवन में दखल देने का कोई मतलब नहीं है। इससे भी बुरी बात यह है कि आइपीसी की धारा 497, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था, उसे लैंगिक रूप से तटस्थ स्वरूप में वापस लाया गया है।
वजह को दर्ज किए बिना मौत या आजीवन कारावास की सजा को कम करने की कार्यपालिका की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। एकांत कारावास एक क्रूर और असामान्य सजा है। कुछ मामलों में अदालती कार्यवाही की मीडिया रिपोर्टिंग पर विधायी रोक असंवैधानिक है। गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत आतंकवादी कृत्यों से समुचित तरीके से निपटा जाता है और उन्हें नई दंड संहिता के तहत लाने की कोई जरूरत नहीं है।
सहायक सत्र न्यायाधीश के पद को समाप्त कर देना गलत है, क्योंकि इससे सत्र न्यायाधीश पर भारी बोझ पड़ेगा और पहली अपील उच्च न्यायालय में होगी। लिहाजा, उच्च न्यायालयों पर भी बोझ बढ़ेगा। हथकड़ी लगाने की इजाजत सिर्फ तभी दी जानी चाहिए जब गिरफ्तार व्यक्ति हिंसक हो या उसके हिरासत से भागने का अंदेशा हो। एक गिरफ्तार व्यक्ति को रिमांड के लिए जिस मजिस्ट्रेट के समक्ष लाया जाता है, उसे गिरफ्तारी की जरूरत और उसकी वैधता के बारे में संतुष्ट होना जरूरी होता है।
लेकिन नई आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 187(2) पुलिस अधिकारियों और न्यायाधीशों के बीच इस गलत धारणा को दर्शाती है कि गिरफ्तार व्यक्ति को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में भेजा जाना ही चाहिए। मुझे न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर की वह झिड़की याद आती है कि मजिस्ट्रेट ‘कोई हिरासत नहीं’ के तीसरे विकल्प की अनदेखी करते हैं। जांच अधिकारी को श्रव्य-दृश्य माध्यम के जरिए गवाही देने की इजाजत देने वाली धारा 254 जनता के लिए खुली रहने वाली एक अदालत में निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांत का उल्लंघन करती है।
नया विधेयक इस तथ्य को स्पष्ट करने में विफल है कि ‘जमानत नियम है, जेल अपवाद है’। नतीजतन, धारा 482 प्रतिगामी है।सरकार का इरादा मैकाले और जेम्स स्टीफन को मिले श्रेय को हथियाने का था, लेकिन मौजूदा कानूनों के अधिकांश प्रावधानों को ‘कापी, कट और पेस्ट’ करके वह इन दो औपनिवेशिक लेखकों को श्रद्धांजलि ही देती रह गई!