जयप्रकाश त्रिपाठी
विस्थापन के कारण असहनीय सफर के दौरान शरणार्थियों और प्रवासियों की भारी संख्या में होने वाली मौतों ने पूरी दुनिया को अचरज में डाल दिया है। इसका शरण देने वाले देशों पर व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय विस्थापन बढ़ाने वाले कारकों को रोकने में विफल साबित हुआ है।
दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय सीमाएं पार करने वाले शरणार्थी और प्रवासी चिंता का विषय बन चुके हैं। विश्व स्तर पर युद्ध, आंतरिक टकराव, सूखा, बाढ़, असुरक्षा, गरीबी, जबरन विस्थापन की बड़ी वजहों में शुमार हो चले हैं। विश्व के अनेक हिस्सों में, बड़ी संख्या में हिंसक टकराव चल रहे हैं। भारी तादाद में मासूम जिंदगियां तबाह हो रही हैं। खासकर महिलाओं को इसकी सबसे अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है।
भारत में विस्थापन की जड़ में विकास परियोजनाएं हैं। केंद्र और प्रादेशिक सरकारें शहरी विकास परियोजनाओं के अंतर्गत हाइवे, बांध, जलाशय, बिजली संयंत्र, जल विद्युत परियोजनाओं पर खास जोर दे रही हैं। प्राकृतिक संसाधनों का बेहिसाब दोहन किया जा रहा है। खनन परियोजनाओं की वजह से लोग दर-ब-दर हो रहे हैं। एक अध्ययन से पता चला है कि भारत में विकास परियोजनाओं के चलते दस फीसद से अधिक ग्रामीण विस्थापित हो चुके हैं। देश के लाखों जनजातीय लोगों को अपने मूल स्थान से पलायन करना पड़ रहा है। इससे पर्यावरण का बेतहाशा विनाश हो रहा है।
आदिवासियों का जीवन और आजीविका इसी सांस्कृतिक अनुष्ठानप्रिय जंगलों पर निर्भर रही है। यद्यपि उनके हितों की रक्षा के लिए औपनिवेशिक भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 का कानून है, जो विकास की अंधी दौड़ में मानो हाशिये पर चला गया है। दलित, पिछड़े और आदिवासी अपनी पारंपरिक आजीविका खोते जा रहे हैं। उनका जीवन असुरक्षित होता जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायोग (यूएनएचसीआर) की ताजा रपट के मुताबिक जलवायु संकट से बेघर-विस्थापित लोगों की संख्या में बेहिसाब इजाफा हो रहा है। वर्ष 2021 की तुलना में 2022 में इक्कीस फीसद की वृद्धि के साथ जबरन विस्थापितों की कुल संख्या 10.84 करोड़ के करीब पहुंच गई, जिनमें बड़ी संख्या में (तीस फीसद से अधिक) बच्चे भी शामिल हैं। जबरन विस्थापन से उत्पीड़न, संघर्ष, हिंसा के कारण मानवाधिकारों का सरेआम उल्लंघन हो रहा है। यह कुचक्र विभिन्न देशों के भीतर और सीमाओं पर भी हो रहा है।
वर्ष 2021 के अंतिम आंकड़ों की तुलना में वर्ष 2022 में विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या 1.9 करोड़ अधिक पाई गई है। वैश्विक स्तर पर विस्थापित कुल 10.84 करोड़ लोगों में से 3.53 करोड़ शरणार्थी थे, जो सुरक्षा पाने के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमाएं पार कर गए। बीते वर्ष 2022 में विस्थापन का मुख्य कारण यूक्रेन युद्ध था। अब फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष व्यापक और तीव्र विस्थापन का कारण बन रहा है। वर्ष 2022 के अंत तक कुल 1.16 करोड़ यूक्रेनी विस्थापित हुए, जिनमें 59 लाख अपने देश के भीतर और 57 लाख पड़ोसी तथा अन्य देशों में चले गए।
विश्व भर में जारी नए संघर्षों ने भी बड़ी संख्या में जबरन विस्थापन को हवा दी है। मसलन, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक आफ कांगो, इथियोपिया और म्यांमा के दस लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए हैं। सूडान में विस्थापितों की कुल संख्या 11 करोड़ से अधिक हो चुकी है। जलवायु आपदाओं के कारण बीते वर्ष आंतरिक रूप से विस्थापितों की संख्या 3.26 करोड़ रही और वर्ष के अंत तक स्थायी रूप से करीब 87 लाख लोग विस्थापित हो गए।
आंतरिक विस्थापनों में से आधे से अधिक 54 फीसद जलवायु आपदाओं के कारण विस्थापित हुए। विस्थापित होने वाली 90 फीसद आबादी निम्न और मध्यम आय वाले देशों की है। विश्व के 76 फीसद शरणार्थियों को गरीब देशों में शरण मिली है। राज्यविहीनता से शरणार्थियों की कठिनाइयां भयावह हो चुकी हैं, जिन्होंने उनको स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा, रोजगार जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से वंचित कर दिया है।
इन चुनौतियों का सामना अंतरराष्ट्रीय समुदाय की एकजुटता से ही संभव है। संयुक्त राष्ट्र ने ऐसी साझा कोशिशों के लिए विश्व समुदाय से गुहार लगाई है। वह ऐसी कोशिश हो, जो अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी कानून, मानवाधिकार और मानवीय कानूनों के सिद्धांतों से निर्देशित हो। आपसी संघर्ष, हिंसा और युद्धों से रक्षा के लिए दुनियाभर में भगदड़-सी मची हुई है। कुछ लोग गरीबी से तंग आकर बेहतर हालात की उम्मीद में विस्थापित हो रहे हैं।
बड़ी संख्या में बेरोजगारी से पीड़ित लोग अन्यत्र श्रमिकों की कमी पूरी करने या अपने कौशल के मुताबिक कामकाज की तलाश में अपनी मूल बसावटों से उजड़ते जा रहे हैं। इनमें से, जल मार्गों से छोटी-छोटी नावों में भरकर जाने वाले लोग अक्सर नाव डूब जाते हैं। इनमें से जो लोग अपनी मंजिल तक पहुंच भी जाते हैं, उन्हें वहां अदावत, खतरनाक और असहिष्णु हालात और खराब बर्ताव का सामना करना पड़ रहा है।
ऐसे लोगों के लिए जिम्मेदारियों का बंटवारा राज्यों के लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है। मसलन, भारत में पूर्वोत्तर के राज्यों में शरणार्थियों, प्रवासियों के कारण हालात बेकाबू हो चले हैं। विस्थापन के कारण असहनीय सफर के दौरान शरणार्थियों और प्रवासियों की भारी संख्या में होने वाली मौतों ने पूरी दुनिया को अचरज में डाल दिया है। इसका शरण देने वाले देशों पर व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय, विस्थापन बढ़ाने वाले कारकों को रोकने में विफल साबित हुए हैं।
एक नजर अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान पर डालें तो वहां की सरकार दशकों से अफगान शरणार्थियों की मेजबानी करती रही है, जहां तेरह लाख से अधिक पंजीकृत शरणार्थी हैं। अफगानिस्तान पर अगस्त 2021 में तालिबानी वर्चस्व के बाद से तो पाकिस्तान गंभीर मानवीय संकट से जूझ रहा है। महिलाओं और लड़कियों की जिंदगी नर्क बनती जा रही है। इस बीच पाकिस्तान शरणार्थियों को देश से हटाने का एलान कर चुका है। इसका अफगान नागरिकों पर व्यापक असर होने की आशंका है। संयुक्त राष्ट्र ने घोषणा का विरोध करते हुए आगाह किया है कि अफगान परिवारों, महिलाओं और बच्चों पर उनके देश में मानवाधिकार उल्लंघन और दुर्व्यवहार का जोखिम है। तब तक उनका देश निकाला रोकना ही होगा।
इस बीच जर्मनी भी शरणार्थियों की संख्या नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। आप्रवासियों को रोकने के लिए वह तरह-तरह के कदम उठाने को विवश है। इनमें एक कदम जर्मनी और पड़ोसी यूरोपीय देशों की सीमाओं पर कड़ा नियंत्रण भी शामिल है। गुंजाइश बस इतनी रखी जा रही है कि ऐसे शरणार्थियों से परहेज नहीं, जो राजनीतिक दमन या दूसरे वैध कारणों से विस्थापित हो रहे हैं। ऐसे लोगों में कुशल कामगार भी हैं। इस वर्ष दो लाख से अधिक प्रवासी यूरोप सीमा पर पहुंच चुके हैं। यह संख्या साल-दर-साल बढ़ती जा रही है।
यूरोप में डबलिन नियम के तहत ऐसे प्रवासियों को कंटेनरों में रखा जाता है, जहां गर्मी के दिनों में तापमान चालीस डिग्री तक पहुंच जाता है। इस तरह बेहतर जिंदगी की तलाश में पहुंचे लोगों को और भी ज्यादा मुश्किल हालात से दो-चार होना पड़ रहा है। हाल के वर्षों में यूरोपीय संघ के सदस्य देशों ने इस दिशा में कुछ नई नीतियां अपनाई हैं। प्रवासियों को वापस भेजना भी आसान नहीं होता, क्योंकि उनके अपने देशों की सरकारें उनकी नागरिकता पर सवाल उठाकर उन्हें वापस लेने से इनकार कर देती हैं।
इंटरनेशनल आर्गनाइजेशन फार माइग्रेशन (आइओएम) के अनुमान के मुताबिक, वर्ष 2014 के बाद से अमेरिका या यूरोपीय संघ के देशों में पहुंचने के इच्छुक 50 हजार से ज्यादा शरणार्थी या तो मारे जा चुके हैं या लापता हैं। इस मार्ग पर बड़ी संख्या में मानव तस्कर भी सक्रिय रहते हैं। उनकी हिंसा में भी लोग मारे जा रहे हैं। ऐसे ही हालात अमेरिका-मेक्सिको की सरहदों पर भी हैं, जहां पहुंचने के इच्छुक अब तक तीन हजार शरणार्थी जान गंवा चुके हैं।