परमजीत सिंह वोहरा
पाकिस्तान भी बड़ी तेजी से श्रीलंका के नक्शे-कदम पर आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है। आंकड़ों के अनुसार इन दिनों पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में विदेशी कर्ज का हिस्सा जीडीपी का तकरीबन 43 फीसद हो गया है। श्रीलंका में एक समय यह 74 फीसद चला गया था, जिसके चलते चीन ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी कर्ज जीडीपी का मात्र 19 फीसद है, जबकि भारत विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है।
पाकिस्तान के बारे में एक बार फिर से यह बात साबित हो गई है कि उसकी अर्थव्यवस्था विदेशी कर्ज पर निर्भर है। वर्ष 1958 से लेकर अब तक पाकिस्तान आइएमएफ के पास तेईस दफा विदेशी कर्ज के लिए पहुंचा है, जिसमें 1988 के बाद चौदह दफा गया है। इसी महीने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के साथ पाकिस्तानी अधिकारियों की दो हफ्ते की लंबी बातचीत के बाद पाकिस्तान, आइएमएफ को एक बार फिर मनाने में सफल हो गया कि वह पच्चीस अरब डालर की नई वित्तीय सहायता तुरंत उसे जारी करे। पिछले काफी अर्से से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था नगदी की कमी के संकट से गुजर रही है, इसलिए उसे विदेशी कर्ज की अत्यंत आवश्यकता है।
दो हफ्ते की इस बातचीत में आइएमएफ ने खुद पाकिस्तानी अर्थव्यस्था के विश्लेषण के बाद उसे वित्तीय सहायता को जारी रखने पर अपनी सहमति दी। मसलन, पाकिस्तान के आर्थिक विकास के अनुमान को घटाकर आइएमएफ ने दो फीसद के आसपास रखा है। इसके अलावा चालू खाते का घाटा, आयात तथा महंगाई के आंकड़ों को भी आइएमएफ ने स्वीकार नहीं किया। फिर 3.4 अरब डालर की कमी करते हुए उसे एक नई वित्तीय सहायता जारी की।
अमूमन, पाकिस्तान और चीन की गहरी दोस्ती में दोनों के लिए भारत एक मुख्य मकसद रहता है, पर सच्चाई यह भी है कि पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था विदेशी कर्ज के लिए चीन पर सबसे अधिक निर्भर है। विश्व बैंक के अनुसार चीन ने पाकिस्तान को करीब चालीस अरब डालर कर्ज दे रखा है, जबकि हकीकत में दिए गए कर्ज की मात्रा इससे तकरीबन पचास फीसद से भी अधिक है।
इस बात की पुष्टि इन्हीं दिनों एक रिपोर्ट में विश्व के एक वैश्विक रिसर्च संस्थान ‘एआइडीडाटा’ ने की है। इस रपट के अनुसार चीन द्वारा पाकिस्तान को दिया गया कर्ज तकरीबन 70 अरब डालर के बराबर है। रिपोर्ट के मुताबिक कर्ज का तकरीबन आधा हिस्सा पाकिस्तान ने वर्ष 2015 से 2017 के दौरान चीन से लिया, जब वहां नवाज शरीफ की सत्ता हुआ करती थी। उसके बाद इमरान खान का दौर रहा हो या आज का, पाकिस्तान की विदेशी कर्ज के लिए चीन पर निर्भरता लगातार बनी रही है।
बीते 19 अक्तूबर को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के एक प्रतिनिधि ने चीन यात्रा के दौरान जब कहा कि पाकिस्तान चीन पर आंख बंद करके भरोसा करता है, तो यकीनन यह पाकिस्तान की मजबूरी को ही दिखाता है। देखा जाए तो पाकिस्तान के पास इसके अलावा अब कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। चीन द्वारा अब तक पाकिस्तान को अवसंरचना विकास की कुल 433 परियोजनाओं में वित्तीय सहायता दी गई है।
इसके अलावा सबसे अचंभित करने वाली बात यह भी है कि 2012 से 2021 तक लगातार प्रतिवर्ष पाकिस्तान ने चीन से आपातकालीन वित्तीय सहायता भी ली है। आपातकालीन वित्तीय सहायता से आशय यह है कि जब कोई मुल्क अपने किसी वित्तीय कर्ज को चुकाने में अक्षम होता है, तो उसके कर्ज की अवधि को आठ से बारह महीने तक बढ़ा दिया जाता है।
चीन अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते पिछले कई दशक से विश्व के ऐसे छोटे मुल्कों को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा है, जिनकी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है। चीन उन्हें अवसंरचना विकास के मद्देनजर कर्ज उपलब्ध कराता रहा है। वैश्विक अनुसंधान संस्थान ‘एआईडीडाटा’ के अनुसार फिलहाल चीन ने सबसे अधिक विदेशी कर्ज रूस को दे रखा है, जो कि 169 अरब डालर के बराबर है। दूसरे नंबर पर वेनेजुएला तथा तीसरे नंबर पर 70 अरब डालर के साथ पाकिस्तान है।
उसके बाद अंगोला, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया, ब्राजील, अर्जेंटीना और विएतनाम आते हैं। गौरतलब है कि अर्जेंटीना के मामले में चीन ने उसे अपनी मुद्रा में विदेशी कर्ज इसलिए उपलब्ध करवाया था कि एक समय अर्जेंटीना आइएमएफ को उसके द्वारा दिए गए कर्ज को चुकाने में असमर्थ था और आइएमएफ द्वारा लगाए जा रहे जुर्माने से बचने के लिए उसने चीन से वित्तीय सहायता ली थी।
पिछले एक दशक से यह भी देखा जा रहा है कि चीन विभिन्न छोटे मुल्कों को अपनी मुद्रा में कर्ज देकर खुद उनके यहां विभिन्न अवसंरचना परियोजनाओं के लिए सहयोग कर रहा है। उसमें शर्त यह रहती है कि उसके कर्ज की भरपाई परियोजनाओं के राजस्व में से लाभांश हिस्से द्वारा होगी और अगर परियोजना लाभदायक नहीं हो पाई, तो वह चीन के पास गिरवी रहेगी।
ऐसा ही कुछ श्रीलंका में हबनटोटा बंदरगाह के संबंध में देखने को मिला, जिसके चलते चीन ने श्रीलंका को तकरीबन दिवालियेपन के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। अब अगर चीन द्वारा पाकिस्तान को दिए जा रहे कर्ज में कुछ इस तरह की बातें छिपी हुई हैं, तो आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में पाकिस्तान के साथ उसकी दोस्ती भारत को निशाना बनाने की शर्तों पर ही निर्भर होगी।
पाकिस्तान 1960 से 1990 के बीच के दशकों में दक्षिण एशिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के तौर पर जाना जाता था और आज स्थिति बिलकुल विपरीत है। उस दौरान पाकिस्तान की औसत विकास दर 6 फीसद के आसपास हुआ करती थी, जबकि पिछले तीन दशक में उसकी अर्थव्यवस्था ने 6 फीसद से अधिक जीडीपी के स्तर को मात्र दो दफा- 2004 और 2005 में- हासिल किया। इसके अलावा आगामी वित्तवर्ष के लिए तो आइएमएफ ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था की विकास दर का अनुमान दो फीसद के आसपास ही रखा है, जो उसके लिए अब अत्यंत चिंता का विषय है। इन सबके पीछे का मुख्य कारण आर्थिक नीतियों में समय के हिसाब से नएपन की कमी है।
आज पाकिस्तान में महंगाई के आंकड़े उसे एशिया में दूसरे नंबर पर लाकर खड़ा कर रहे हैं। जीडीपी के आंकड़े पिछले दस वर्षों से लगातार गिर रहे हैं, निर्यात में प्रतिवर्ष आठ से दस फीसद की वृद्धि दर्ज हो रही है और अस्सी के दशक के बाद से इनमें अब तक कुल तीन गुना वृद्धि ही दर्ज हुई है, जो बहुत कम है। इस संदर्भ में अगर भारत के पक्ष को देखा जाए तो नब्बे के दशक के बाद हुए आर्थिक नीतियों में परिवर्तन ने भारत के निर्यात को जहां पंद्रह गुना बढ़ा दिया, वहीं छह फीसद से अधिक की जीडीपी के स्तर को भारत ने इस दौरान तकरीबन अठारह दफा प्राप्त किया है। आज भारत और पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति वित्तीय आय में 65 फीसद का अंतर है।
पाकिस्तान भी बड़ी तेजी से श्रीलंका के नक्शे-कदम पर आगे बढ़ता दिखाई दे रहा है। आंकड़ों के अनुसार इन दिनों पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में विदेशी कर्ज का हिस्सा जीडीपी का तकरीबन 43 फीसद हो गया है। श्रीलंका में एक समय यह 74 फीसद चला गया था, जिसके चलते चीन ने उसे पूरी तरह बर्बाद कर दिया। वहीं भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी कर्ज जीडीपी का मात्र 19 फीसद है, जबकि भारत विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाला मुल्क है।
गौरतलब है कि दक्षिण एशिया महाद्वीप में इस समय विदेशी कर्ज का सबसे कम हिस्सा बांग्लादेश का है, जहां यह उसकी जीडीपी का मात्र 11 फीसद है। हालांकि, इन्हीं दिनों बांग्लादेश, आइएमएफ से एक नए विदेशी कर्ज के संबंध में लगातार संपर्क में है, पर इन सब बातों से यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि पाकिस्तान की चीन पर लगातार बढ़ रही निर्भरता यकीनन उसे एक दिन संप्रभुता, सैद्धांतिक निर्णय लेने की क्षमता के हिसाब से अक्षम बना देगी तथा उस दौरान चीन पाकिस्तान के साथ दोस्ती अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की शर्तों पर ही निभाएगा।