हाल ही में उत्तरकाशी में निर्माणाधीन सुरंग के क्षतिग्रस्त होने और उसमें मजदूरों के फंसने की घटना ने एक बार फिर पहाड़ों की अंधाधुंध विकास परियोजनाओं पर सवाल खड़े कर दिए हैं। यह सही है कि पहाड़ों के लिए विकास परियोजनाएं जरूरी हैं, लेकिन वे पहाड़ों के विनाश का कारण बनने लगें तो इस पर पुनर्विचार की जरूरत है।
पहाड़ी इलाकों में लगातार भूस्खलन की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। जिस गति से पहाड़ों पर निर्माण कार्य हो रहा है, उससे भूस्खलन की घटनाएं और बढ़ने की उम्मीद है। कुछ समय पहले जोशीमठ में कई मकान धंस गए थे और अनेक मकानों में दरार आ गई थी। उस समय स्थानीय लोगों ने जोशीमठ की पहाड़ी के नीचे सुरंग से होकर गुजरने वाली एनटीपीसी की निर्माणाधीन तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना को घटना के लिए जिम्मेदार माना था।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पहाड़ों के कई शहर भूकम्प के अत्यधिक जोखिम वाले क्षेत्र में बसे हैं। इसलिए ऐसी जगहों पर होने वाली थोड़ी-सी भी हलचल भारी तबाही मचा सकती है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि अनियंत्रित विकास ने पहाड़ों के कई शहरों को खतरे में डाल दिया है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम पहाड़ों की विभिन्न आपदाओं से सबक नहीं ले पाए और उनके मिजाज को समझे बिना विकास परियोजनाओं को हरी झंडी देते चले गए। यही कारण है कि हमें लगातार इस तरह के संकटों का सामना करना पड़ रहा है। शुरू से ही पहाड़ों पर अत्यधिक जल विद्युत परियोजनाओं का विरोध होता रहा है।
अनेक वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का मानना है कि पहाड़ों पर ये जल विद्युत परियोजनाएं भविष्य में और बड़ी तबाही मचा सकती हैं। हर क्षेत्र का अपना अलग पर्यावरण होता है। हम पहाड़ के पर्यावरण की तुलना मैदानी क्षेत्रों के पर्यावरण से नहीं कर सकते। अगर पहाड़ के पर्यावरण को समझे बिना विकास परियोजनाओं को आगे बढ़ाएंगे तो ऐसी आपदाओं को ही निमंत्रण देंगे। गौरतलब है कि पहाड़ों पर बनने वाले बांधों ने ग्लेशियरों को भी कमजोर किया है।
आज विकास का जो हवामहल बनाया जा रहा है, वह किसी न किसी रूप से आम आदमी की कब्र खोदने का काम कर रहा है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम बड़े शर्मनाक तरीके से इस विकास पर अपनी पीठ थपथपाते रहते हैं। क्या हम विकास का ऐसा ढांचा नहीं बना सकते, जिससे पहाड़ के निवासियों को स्थायी रूप से फायदा हो? आज विकास के जो तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें गरीब लोगों को अस्थायी फायदा होता है।
इसीलिए वे ताउम्र गरीब बने रहते हैं और सत्ताएं तथा पूंजीपति लोग विकास का स्वप्न दिखाकर उन्हें लगातार ठगते रहते हैं। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि इस व्यवस्था से त्रस्त आम आदमी और पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में खड़े होने वाले लोगों को भी सत्ताएं संदिग्ध बताकर गरीबों का दुश्मन घोषित करने में जुट जाती हैं। दरअसल, बड़ी विकास परियोजनाओं की विसंगतियों के दर्द को आम आदमी ही महसूस कर सकते हैं।
इन बड़ी योजनाओं से बड़ी संख्या में विस्थापन भी होता है, जिसकी गरीब लोगों पर दोहरी मार पड़ती है। पहली मार तो व्यवस्था की होती है। सवाल है कि इस व्यवस्था में उजड़े हुए लोगों की मानसिक अवस्था तक पहुंचने वाले कितने अधिकारी और कर्मचारी हैं। जिन अधिकारियों और कर्मचारियों को अपना कर्तव्य निभाने में भी जोर पड़ता है, वे अपनी सरकारी नौकरी की मानसिकता से ऊपर उठकर अतिरिक्त कुछ नहीं कर पाते। विस्थापितों पर व्यवस्था की मार से उपजी दूसरी मार मानसिक तनाव की पड़ती है। इसलिए पहाड़ के लोगों के भविष्य की ठोस और सार्थक कार्ययोजना बनाए बिना विकास की बात करना बेमानी है।
उत्तराखंड तथा देश के अन्य भागों में विभिन्न बांधों से जुड़ी परियोजनाएं सिर्फ विस्थापितों के राहत एवं पुनर्वास कार्यों को लेकर सवालों के घेरे में नहीं रहतीं, बल्कि इनमें शुरू से ही पर्यावरण से जुड़े अनेक नियमों के पालन में कोताही बरती जाती है। सवाल है कि विकास के ढांचे में ऐसी परियोजनाओं से प्रभावित परिवारों के बारे में क्यों नहीं सोचा जाता? सरकार प्रभावित लोगों के बारे में बड़ी-बड़ी बातें तो करती हैं, लेकिन उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया जाता है। क्या विकास के इस माडल में गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है? इस प्रगतिशील दौर में भी विभिन्न जगहों पर बांध से प्रभावित लोग विस्थापन की मार झेल ही रहे हैं।
यह विडंबना ही है कि देश में पिछले पचास वर्षों में बड़ी सिंचाई परियोजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च किए गए हैं, लेकिन सूखे और बाढ़ से प्रभावित जमीन का क्षेत्रफल लगातार बढ़ता जा रहा है। दरअसल, अब समय आ गया है कि पिछले पचास वर्षों में बने अनेक बांधों से मिल रही सुविधाओं की वास्तविक समीक्षा की जाए। पिछले कुछ वर्षों से बड़े बांधों की उपयोगिता पर एक नई बहस चल पड़ी है।
अधिकतर विकसित देशों ने बड़े बांधों को हानिकारक मानते हुए इनका निर्माण बंद कर दिया है। बांधों के विश्व आयोग की भारत से संबंधित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बड़ी सिंचाई परियोजनाओं से अधिक लाभ नहीं होता, जबकि इसके दुष्परिणाम अधिक होते हैं। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में बड़े बांधों के कारण विस्थापित करोड़ों लोगों में 62 फीसद अनुसूचित जाति और जनजाति से संबंधित हैं। बड़े बांधों के कारण जहां एक ओर लगभग कई लाख हेक्टेयर जंगलों का विनाश हुआ है, दूसरी ओर ऐसी परियोजनाओं से अनेक तरह की विषमताएं पैदा हुई हैं और इसका लाभ अधिकतर बड़े किसानों और शहरी लोगों को मिला है।
आज निश्चित रूप से विज्ञान निरंतर प्रगति पर है, लेकिन वह प्रकृति के सामने बौना ही है। अगर इस दौर के बुद्धिजीवी प्रकृति के साथ विज्ञान की प्रतियोगिता कराएंगे, तो किसी न किसी रूप में वे तबाही को ही जन्म देंगे। विज्ञान और प्रगतिवादी सोच का उपयोग मानव कल्याण के लिए होना चाहिए, न कि मानव विनाश के लिए। पूरी दुनिया में बड़े बांधों के माध्यम से हुई तबाही किसी से छिपी नहीं है।
अक्सर हमारे कुछ वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी विभिन्न तर्क देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं कि बड़े बांध एक निश्चित अवधि तक प्रकृति की मार झेलने में सक्षम हैं। मगर यह अनेक बार सिद्ध हो चुका है कि विभिन्न भविष्यवाणियों के बावजूद विश्व के वैज्ञानिक प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने में असमर्थ हैं। दरअसल, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वैज्ञानिकों द्वारा घोषित इस निश्चित समयावधि में भी बड़े बांध प्रकृति की मार झेल ही लेंगे।
भारत जैसे विकासशील देश में पीने के पानी, सिंचाई और ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए एक ऐसी व्यवस्था की जरूरत है, जिससे कि संसाधनों का समुचित उपयोग और ठीक ढंग से पर्यावरण संरक्षण हो सके। इस व्यवस्था में वर्षा जल के संरक्षण, वैकल्पिक स्रोतों से ऊर्जा प्राप्त करने तथा जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया जा सकता है।
यह सर्वविदित है कि बड़े बांधों से जहां एक ओर अनेक बीमारियां फैलती हैं, वहीं दूसरी ओर बांधों में मिट्टी भर जाने से इनकी अवधि भी कम हो जाती है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि पहाड़ का अपना अलग पर्यावरण होता है। इस पर्यावरण की रक्षा करना आम नागरिकों का कर्तव्य तो है ही, सरकार का कर्तव्य भी है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि विभिन्न सरकारें विकास की परियोजनाओं में पहाड़ के पर्यावरण का खयाल नहीं रखती हैं। अब हमें इन आपदाओं से सबक लेना चाहिए।