मानव अस्तित्व के लिए जल सर्वाधिक उपयोगी प्राकृतिक संसाधन है। यह न केवल ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों की स्वच्छता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, बल्कि कृषि के सभी रूपों और औद्योगिक क्षेत्र की उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए भी आवश्यक है। भारत में जल संसाधन की उपलब्धता और उपयोग के कुछ तथ्यों पर विचार करें तो पता चलता है कि देश में वैश्विक ताजे जल स्रोत का मात्र चार फीसद उपलब्ध है, जिससे पूरी दुनिया की जनसंख्या में भारत के 18 फीसद हिस्से को जल उपलब्ध कराना होता है। देश में जल की कुल खपत का लगभग 85 फीसद हिस्सा कृषि क्षेत्र में प्रयोग किया जाता है, जबकि 10 फीसद उद्योगों में और केवल 5 फीसद पानी घरों में प्रयोग होता है।
वर्ष 1994 में पानी की उपलब्धता प्रति व्यक्ति छह हजार घनमीटर थी, जो वर्ष 2000 में 2300 घनमीटर रह गई तथा वर्ष 2025 तक इसके और घटकर सोलह हजार घनमीटर रह जाने का अनुमान है। इसके विपरीत वर्ष 2030 तक भारत में जल की मांग उसकी आपूर्ति की तुलना में लगभग दोगुनी हो जाएगी। हमारे देश में पीने लायक साफ पानी का अभाव बना रहता है। आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत के शहरी क्षेत्रों में 970 लाख लोगों को पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है।
अगर देश की राजधानी की बात करें तो भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा जारी एक रपट में सामने आया था कि दिल्ली जल बोर्ड द्वारा वितरित किया जाने वाला पानी बीएसआइ मानकों पर खरा नहीं उतरता है और वह पीने योग्य नहीं है। हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में भी पेयजल की हालत अधिक अच्छी नहीं है। वहां भी लगभग 70 फीसद लोग प्रदूषित पानी पीने और 33 करोड़ लोग सूखे वाली जगहों में रहने को मजबूर हैं। भारत में कुल मिलाकर लगभग 70 फीसद जल प्रदूषित है।
देश में पहले से ही सीमित मात्रा में जल उपलब्ध है, बावजूद इसके जल की बर्बादी निरंतर जारी है। यह प्रवृत्ति खतरनाक है। जिस रफ्तार से पानी की बर्बादी हो रही है, उसके चलते हमारा आने वाला कल बेहद भयावह हो सकता है। भूजल स्तर तेजी से नीचे जा रहा है। नदियां सूख रही हैं। दलदली भूमि यानी वेटलैंड भी खतरे में हैं।
एक सौ चालीस करोड़ की जनसंख्या वाला हमारा देश जल संरक्षण को लेकर गंभीर भी नहीं है, देश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले अकेले मुंबई में ही वाहनों को धोने में हर रोज लगभग पचास लाख लीटर पानी बर्बाद हो रहा है। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई आदि महानगरों में पाइप लाइनों में रिसाव के चलते प्रतिदिन 17 से 44 फीसद पानी बेकार बह जाता है। देश में नदियों की स्थिति दयनीय बनी हुई है और गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के प्रयास वांछित सफलता नहीं प्राप्त कर पाए हैं। इसलिए आवश्यक है कि देश में नदियों की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाए और उन्हें प्रदूषण मुक्त करने के लिए समुचित नीतियों का निर्माण किया जाए।
जल की लगातार बढ़ती मांग के कारण देशभर में जल के उचित प्रबंधन की आवश्यकता कई वर्षों से महसूस की जा रही है। जल प्रबंधन के तहत पानी की कमी से संबंधित जोखिमों जैसे- बाढ़, सूखा और जल प्रदूषण आदि के प्रबंधन को भी शामिल किया जाता है। यह प्रबंधन स्थानीय प्रशासन द्वारा भी किया जा सकता है और किसी व्यक्तिगत इकाई द्वारा भी। उचित जल प्रबंधन में जल का इस प्रकार का प्रबंधन शामिल होता है, जिससे कि सभी लोगों तक जरूरत भर का जल पहुंच सके।
देश में नदियों, झीलों और तालाबों जैसे जल स्रोतों में प्रदूषण का स्तर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। देश के अधिकांश हिस्सों में भूजल स्तर अपेक्षाकृत काफी नीचे चला गया है। यूनेस्को की एक रपट में सामने आया था कि भारत दुनिया में भूमिगत जल का सर्वाधिक प्रयोग करने वाला देश है। जल संसाधन सीमित हैं और इन्हें हमें उन्हें अगली पीढ़ी के लिए भी बचा कर रखना है। जल संकट देश की अर्थव्यवस्था को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। जल प्रबंधन की सहायता से जल संकट को खत्म कर इस नकारात्मक प्रभाव से बचा जा सकता है।
जल सरंक्षण की दृष्टि से जल की मांग और पूर्ति के मध्य अंतर को कम करना, खाद्य उत्पादन के लिए पर्याप्त पानी उपलब्ध कराना और प्रतिस्पर्धी मांगों के बीच उपयोग को संतुलित करना, महानगरों और अन्य बड़े शहरों की बढ़ती मांग को पूरा करना आदि शामिल है। पड़ोसी देशों और राज्यों आदि में पानी का बंटवारा करने आदि से जुड़ी समस्याओं से निपटना भी जरूरी है।
वर्ष 2018 में नीति आयोग ने अभिनव भारत 2075 कार्यनीति जारी की थी, जिसके तहत तय किया गया था कि वर्ष 2022-23 तक भारत की जल संसाधन प्रबंधन रणनीति में जीवन, कृषि, आर्थिक विकास, पारिस्थितिकी और पर्यावरण के लिए पानी की पर्याप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु जल सुरक्षा की सुविधा होनी चाहिए। इस नीति के अंतर्गत नागरिकों और पशुओं के लिए पर्याप्त और सुरक्षित पेयजल प्रदान कराना, सभी खेतों में उचित सिंचाई व्यवस्था सुनिश्चित करना और कृषि जल उपयोगिता में सुधार करना तथा गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल और निर्मल धारा सुनिश्चित करना शामिल था।
वैसे भारत में उपलब्ध जल की उतनी कमी नहीं है। हमारे देश की मुख्य नदियों के अलावा हमें औसतन सालाना 11.70 करोड़ घनमीटर बारिश का पानी मिल जाता है। इसके अलावा, नवीकरणीय जल संरक्षण से भी 1608 अरब घनमीटर पानी हर साल मिल जाता है। दुनिया का नौवां सबसे बड़ा ‘ताजा जल संग्रह’ हमारे पास है। उसके बाद भी भारत में व्याप्त पानी की समस्या स्पष्टत: जल संरक्षण को लेकर हमारे कुप्रबंधन को दर्शाती है, न कि पानी की कमी को।
जल संरक्षण आज की जरूरत है। इसके लिए उपयुक्त जल निकासी, साफ और सुरक्षित तरीके से अपशिष्ट जल के निपटान की व्यवस्था जरूरी है। इस व्यवस्था के अंतर्गत गंदे पानी को पुनर्चक्रित कर उसे उपयोग लायक बनाया जा सकता है, ताकि उसे वापस लोगों के घरों में पीने और घरेलू कार्यों में इस्तेमाल हेतु भेजा जा सके। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी गुणवत्ता वाली सिंचाई प्रणाली सुनिश्चित की जा सकती है। इन प्रणालियों को इस प्रकार प्रबंधित किया जा सकता है ताकि पानी बर्बाद न हो। अनावश्यक रूप से पानी की आपूर्ति की कमी से बचने के लिए इसके पुनर्नवीनीकरण या वर्षा जल का भी उपयोग किया जा सकता है।
देश में जल संरक्षण पर बल देने की दृष्टि से आवश्यक है कि कोई भी इकाई, चाहे वह व्यक्ति हो या कंपनी, उसको अनावश्यक रूप से उपकरणों के प्रयोग को कम करना चाहिए, ताकि उनकी साफ-सफाई और रखरखाव में रोजाना जो कई गैलन पानी बर्बाद होता है, उसको बचाया जा सके। वर्षा जल को सतह पर संग्रहीत करके जल संरक्षण किया जा सकता है। इसके लिए टैंकों, तालाबों और चेक-डैम आदि की समुचित व्यवस्था की जा सकती है। देश के जल प्रशासन संस्थानों के कामकाज में नौकरशाही, गैर-पारदर्शी और गैर-भागीदारी वाला दृष्टिकोण अब भी जारी है। इसको समाप्त करने की जरूरत है।
यह भी आवश्यक है कि सूखे और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं की विश्वसनीय जानकारी और उससे संबंधित आंकड़े हमें जल्द से जल्द उपलब्ध हों, ताकि समय रहते इनसे निपटा और संभावित क्षति को कम किया जा सके। यह भी जरूरी है कि भूजल स्तर को बढ़ाने और भूजल उपयोग को विनियमित करने संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्णय शीघ्र लिए जाएं और उनका तुरंत क्रियान्वयन हो।