सुरेश सेठ
लगता है कि वे दिन गए, जब भारत को एक पिछड़ा, अल्पविकसित, वंचित-प्रवंचित देश कहा जाता था। इस समय न केवल भारत की व्यावसायिक गरिमा में वृद्धि हुई है, बल्कि उसकी आर्थिक प्रभावशीलता भी बढ़ी है। इसका मूल कारण यही है कि भारत विश्व का सबसे बड़ी आबादी वाला देश होने के कारण वह सबसे अधिक श्रम की आपूर्ति, सबसे सस्ती दरों पर कर सकता है। न केवल स्वदेशी निवेश के लिए, बल्कि विदेशी निवेशकों की विदेशी धरती के लिए भी। इसीलिए पिछले चंद वर्षों में भारत में युवा पीढ़ी के पलायन की समस्या अधिक हुई है। उनको विदेशों के संपन्न देश खुली बाहों से स्वीकार करते हैं, क्योंकि इतना सस्ता श्रम उन्हें और कहां मिलेगा।
दूसरी ओर है भारत के बाजारों की मांग। भारत के बाजारों की मांग ने देश की आर्थिक अवस्था को स्थायित्व भी दे दिया है, क्योंकि यहां निवेश का प्रतिदान इस महामंदी काल में भी कम होता नजर नहीं आता। सरकार कीमत नियंत्रण के लिए कर्ज को महंगा करती है, लेकिन फिर भी कर्ज लेने वालों की कमी नहीं होती और ऊंची कीमत की मूल्यवान वस्तुओं का बाजार यहां अधिक बढ़त लिए दिख रहा है। दूसरी ओर, मूलभूत आवश्यकता वाली वस्तुओं के बाजारों में वैसा ही अंधेरा है, जैसा गरीबों की बस्तियों में होता है।
मगर इस बात की ओर न भी जाएं तो सच्चाई यह है, जो अभी दुनिया के बहुत बड़े सर्वेक्षण संस्थान बता रहे हैं। ब्रोक्रेज फर्म मार्गन स्टेनले के नए आंकड़े आए हैं, जिन्हें विश्वसनीय माना जाता है। दूसरी ओर साख निर्धारित करने वाली एजंसी फिंच की रेटिंग भी आ गई है। दोनों भारत के विकास के लिए बहुत आशाजनक है। मार्गन स्टेनले तो कह रहा है कि दस वर्ष में यह देश आर्थिक शक्ति के रूप में दसवें से पांचवें पायदान तक पहुंचा और अब 2027 तक यह तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बन जाएगा। उस समय हमारा सकल घरेलू उत्पाद पांच लाख करोड़ डालर हो जाएगा, जिसका सपना सरकारी भाषणों मे हमें दिखाया जाता रहा है।
इसके साथ यह भी स्पष्ट है कि वैश्विक विकास में भी भारत का महत्त्व बढ़ा है। 2022 में इसका योगदान 15 फीसद तक पहुंचा, जबकि 2021 में यह महज 10 फीसद था। 2023-28 के दौरान इसके 17 फीसद रहने की उम्मीद की जा रही है। पूरी संभावना है कि 2025 तक भारत चीन, अमेरिका और यूरोप से बेहतर प्रदर्शन करेगा। वित्तवर्ष 2024 में हमारी विकास दर 7 फीसद होगी, जबकि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण दुनिया की विकास दर को 3.8 फीसद से कम आंक रही हैं।
अपने सतत मजबूत और स्वदेशी विकास की पीठ थपथपा रही हैं। आर्थिक विशारद कहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत आधार ले रही है। इसकी तरक्की चक्रवृद्धि दर से हो रही है। कारण यही कि यहां अच्छी घरेलू मांग 142 करोड़ लोग पेश कर रहे हैं और निवेशकों को भी पूर्णबंदी की स्थिति के बाद इस प्रतिबंध रहित माहौल में काम करने का अवसर मिला है, क्योंकि निवेशों पर लाभ की दर बढ़ते हुए स्तर पर मिलने लगी है।
यों अच्छी घरेलू मांग तो अल्फा बन गई और सस्ता श्रम बीटा बन गया। अब बहस यह है कि क्या इस मजबूत दर को स्थायी रखा जा सकता है। इसके रास्ते के जोखिम कौन से हैं? पहला जोखिम तो, जैसा मार्गन स्टेनले भी मानता है, कच्चे तेल की कीमतें हैं। ये कीमतें निरंतर वृद्धि का तेवर अपनाए हैं। अगर कच्चे तेल की कीमत 110 डालर प्रति बैरल से ज्यादा हो जाती है, तो भारत में इसका आयात महंगा हो जाएगा।
हमारी विनिमय दर बिगड़ने लगेगी। सरकार अगर चुनावों के दृष्टिगत इनकी कीमत को नियंत्रित रखती है, तो भी विदेशी मुद्रा के मुकाबले रुपए के मूल्य का गिरना हर तरह के आयात को महंगा कर देगा और नियंत्रित होती महंगाई के दावे झूठे पड़ने लगेंगे। मौद्रिक नीति को फिर विकासोन्मुख होने के बजाय केवल कीमत नियंत्रक वृद्धि का रास्ता अपनाना पड़ेगा। इसके साथ रोजगार की स्थिति क्या है, इस पर भी विचार करना होगा, क्योंकि रोजगार की आय से ही मांग बढ़ती है।
अनुकंपा और उदारता से बंटे राशन से मांग नहीं बढ़ती, उससे तो लोग केवल जिंदा रहते हैं। इससे सरकार भूख से न मरने देने की गारंटी दे सकती है। कोविड के बाद भी रोजगार की दर में वृद्धि नहीं हुई। इस समय बेरोजगारी की दर 10.8 फीसद हो गई है। पिछले दिनों ग्रामीण बेरोजगारी में भी वृद्धि हुई, क्योंकि जलवायु में असाधारण परिवर्तन फसलों पर गाज बनकर गिरा।
इसके कारण वह वादा पूरा न हो सका कि किसान की आय दोगुनी कर दी जाएगी, बल्कि फसलों की उत्पादकता कम होने, फसलों की गुणवत्ता बिगड़ने से लेकर पराली जलाने जैसे अनार्थिक कामों के कारण कृषि क्षेत्र में न तो आय में वृद्धि नजर आती है, न ही ग्रामीण बेरोजगारी की दर में कमी। मनरेगा ग्रामीण महिलाओं को साल में सौ दिन का रोजगार दे रहा था। लेकिन इस साल इसके लिए धनराशि का आबंटन भी कम कर दिया गया। कोई वैकल्पिक रोजगार नीति सामने नहीं आ रही।
मगर एक आशाजनक बात यह है कि आने वाले दिनों में भारत उन निवेशकों से अधिक निवेश की उम्मीद कर सकता है, जिनकी पहली प्राथमिकता चीन था। चीन में आर्थिक मंदी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। वहां विकास दर अमेरिका की तरह चार फीसद से अधिक नहीं है। ऐसी विकास दर में निवेशक अधिक पैसा नहीं लगाना चाहते। यह पैसा वहां से भगोड़ा हो रहा है।
पड़ोस में है भारत, जहां मांग अधिक है, सस्ते श्रम की आपूर्ति बाजार तलाशती है और निवेशकों के लिए अत्याधुनिक तकनीकें अपनाकर लागत को घटाकर कमाई करने के सुअवसर हैं। इसीलिए दुनिया में ‘चीन प्लस’ का वातावरण पैदा हो रहा है। इस वातावरण का अर्थ है कि हर नया निवेशक अधिक लाभ की आशा से चीन को ही प्राथमिकता नहीं देगा। वहां प्रचुर कच्चा माल प्राप्त हो जाता है। उसका ध्यान अब दूसरी दिशा में जाएगा। यहां भारत एक विकल्प के रूप में उभर सकता है।
पिछले दिनों फेडरल बांड के प्रतिदान के कारण विदेशी निवेश भारत से भगोड़ा हुआ है, लेकिन उसकी पूर्ति घरेलू निवेशकों ने कर दी है। अब अगर ‘चीन प्लस’ के वातावरण में भगोड़े विदेशी निवेशक भी भारत की ओर लौटने लगते हैं तो यह एक ऐसी स्थिति होगी, जिसे भारत के लिए एक सुअवसर कहा जा सकता है। लेकिन इस सुअवसर को भुनाने के लिए काम और प्रशासन के माडल को पूरी तरह से बदलना होगा।
भ्रष्टाचार को देश निकाला दिया जाए और भारत न केवल आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाए, बल्कि लघु और कुटीर उद्योगों की पुरानी दुनिया को भी प्रोत्साहन दे, क्योंकि स्वचालित मशीनों के इस युग में लघु और कुटीर उद्योगों का सामंजस्य ही भारत जैसे देशों के लिए मुक्तिप्रदाता है। यहां कम निवेश में अधिक रोजगार मिलता है।
रोजगार ही वह दृढ़ आधार बन सकता है, जहां से निरंतर और सटीक मांग बाजार में उतरती रहेगी। इसलिए कृत्रिम मेधा और रोबोटिक्स के आकर्षण को संतुलन में रखकर पुराने भारत को लघु और कुटीर उद्योगों को विकसित करने की नीति को भी पूरा प्रश्रय देना होगा। अगर भारत को तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति बनना है, तो वह अपनी संपन्नता और खुशहाली को बड़े व्यावसायिक घरानों तक ही सीमित न रखे, बल्कि इसे उन उजाड़ बस्तियों तक जाने दे, जहां बेकारी की वजह से उनके नवजात भूख से तड़प-तड़प कर मर जाते हैं।