सत्येंद्र किशोर मिश्र
नई शिक्षा नीति बनाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है, समग्रता में इसका क्रियान्वयन। नब्बे फीसद से भी अधिक विद्यार्थियों के उच्च शिक्षा की जिम्मेवारी उठा रहे राज्य शिक्षा संस्थानों, खासकर राज्य विश्वविद्यालयों को अध्ययन-अध्यापन सहित अकादमिक, वित्तीय तथा शोध मामलों में मजबूत बनाए बगैर नई शिक्षा नीति के मकसद में कामयाबी हासिल कर पाना मुमकिन ही नहीं है।
भारत को वैश्विक महाशक्ति बनना है तो देश के शिक्षा, स्वास्थ्य तथा जीवन मूल्यों की चिंता करनी होगी। उच्च शिक्षा इसका सबसे प्रमुख जरिया है। इसके मद्देनजर राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में उच्चतर शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) को वर्तमान 27.3 फीसद से बढ़ा कर 2035 तक 50 फीसद करने का लक्ष्य है। इसका लक्ष्य शिक्षा बजट को जीडीपी के छह फीसद तक बढ़ाना है।
भारत के संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है। देशभर के 94 फीसद नामांकित विद्यार्थियों के साथ राज्यों के उच्चतर शिक्षा संस्थान गुणवत्ता, वित्तीय संकट, शिक्षकों की कमी, स्वायत्तता, कुप्रबंधन, बुनियादी सुविधाओं की कमी से जूझ रहे हैं। समझना जरूरी है कि क्या एनईपी राज्यों के उच्चतर शिक्षा संस्थानों की दशा में सुधार के बगैर अपने मकसद में कामयाब हो सकेगी? राज्यों के बदहाल विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों से उच्चतर शिक्षा में बुनियादी बदलाव लाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार भारत में कुल 1,113 विश्वविद्यालय हैं, जिनमें 235 केंद्रीय तथा 422 राज्य विश्वविद्यालय सहित कुल 657 सरकारी विश्वविद्यालय, 10 निजी डीम्ड तथा 446 निजी विश्वविद्यालय हैं। देश में 43,796 महाविद्यालय तथा 11,296 ‘स्टैंड अलोन’ संस्थान हैं। भारत में 18 से 23 वर्ष आयु वर्ग की एक लाख आबादी पर इकतीस महाविद्यालय हैं।
उनमें 21.4 फीसद सरकारी महाविद्यालय, 13.6 फीसद निजी सहायता प्राप्त और 65 फीसद गैर-सहायता प्राप्त निजी महाविद्यालय हैं। लगभग 61.4 फीसद महाविद्यालय ग्रामीण क्षेत्रों में स्थित हैं तथा 10.5 फीसद महिला महाविद्यालय हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, तेलंगाना और केरल महाविद्यालयों की संख्या के मामले में प्रमुख दस राज्य हैं। छह राज्यों- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, कर्नाटक तथा राजस्थान में देश के कुल जीईआर का 53.17 फीसद है।
एनईपी उच्च शिक्षा में बुनियादी बदलाव के जरिए पाठ्यक्रम, अध्ययन-अध्यापन और मूल्यांकन पद्धति में सुधार पर जोर देती है। नए राष्ट्रीय पाठ्यचर्या ढांचे द्वारा पाठ्यक्रम परिवर्तन, जो शिक्षण के वैकल्पिक रूपों की स्थापना करते हुए विद्यार्थियों के बीच रचनात्मकता और जिज्ञासा के साथ-साथ ज्ञान-विज्ञान तथा तकनीकी विषयों को बढ़ावा देंगे। नवीन व गतिशील शिक्षण पद्धति के साथ-साथ सीखने की गुणवत्ता में सुधार पर अधिक ध्यान देते हुए शैक्षणिक संस्थानों में पाठ्यक्रम पढ़ाने में सक्षम बनाने के लिए ढांचागत विकास करना होगा। इससे विद्यार्थियों का समग्र व्यक्तित्व विकास और वर्तमान जरूरतों के मुताबिक कौशल निर्माण होगा।
एनईपी उच्च शिक्षा में बहुविषयक होने के साथ-साथ विषयों के चयन में लचीलापन, मूल्यांकन तथा शिक्षण पद्धति जैसे अच्छे पहल शामिल हैं। एनईपी में प्रस्तावित ‘ग्रेडिंग प्रणाली’ भारत के मौजूदा शैक्षणिक संस्थानों के मूल्यांकन तथा परिणाम व्यवस्था में भी बुनियादी बदलाव लाएगी। इसमें नए मूल्यांकन व्यवस्था की शुरुआत हुई है, जिसका उद्देश्य विद्यार्थियों का विकास, समझने और सीखने के आधार पर समग्र मूल्यांकन करना है।
एनईपी व्यक्तिगत कौशल और प्रतिभा का मूल्यांकन कर न केवल विद्यार्थी के शैक्षिक भविष्य का बेहतर मूल्यांकन करने में सहायक होगी, बल्कि उनको भविष्य के बारे में बेहतर निर्णय लेने में भी मदद करेगी। शैक्षिक और औद्योगिक क्षेत्रों के बीच घनिष्ठ संबंधों, आर्थिक विकास को प्रेरित करने की अधिक क्षमता के साथ कुशल कार्यबल निर्माण को बढ़ावा मिलेगा।
शिक्षा में गुणवत्ता तथा जीईआर में वृद्धि द्वारा भारत के वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभरने में, राज्यों के शिक्षा संस्थानों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी। पर राज्यों के उच्च शिक्षा संस्थान, विशेषकर विश्वविद्यालय गुणवत्ता, शिक्षकों की अपर्याप्तता और तदर्थ व्यवस्था, घटिया शोध, वित्तीय संकट, प्रत्यायन, आधारभूत ढांचे में कमी, कुप्रबंधन के साथ-साथ स्वायत्तता की कमी जैसी गंभीर समस्याओं के भंवरजाल में हैं।
राज्य विश्वविद्यालयों की अहमियत को समझते हुए भी, हाल ही में नीति आयोग को राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों तथा राज्य उच्च शिक्षा परिषद के अध्यक्षों के सम्मेलन में बताने में झिझक भी नहीं हुई कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों को औसतन आठ हजार करोड़ से अधिक के बजट की तुलना में राज्य विश्वविद्यालयों को मात्र तिरासी लाख बजट का एकतरफा आबंटन प्राप्त होता है।
महाविद्यालयों की स्थित इससे अलग नहीं है। केंद्र सरकार के महाविद्यालयों के औसतन सत्ताईस करोड़ बजट की तुलना में राज्य महाविद्यालयों को मात्र इक्कीस लाख का बजट आबंटित होता है। इस अतार्किक आबंटन की वजह नीति निर्माताओं का यह भ्रम है कि शैक्षणिक, शोध सहित अकादमिक गुणवत्ता के मामले में केंद्रीय विश्वविद्यालय, राज्य विश्वविद्यालयों से बेहतर हैं।
साथ ही वे राज्यों के पारंपरिक विश्वविद्यालयों तथा ‘स्टैंड अलोन’ संस्थानों जैसे तकनीकी संस्थानों, ला कालेजों आदि की वित्तीयन व्यवस्था में भी अंतर नहीं समझ पा रहे हैं। फिर, यह भी देखना जरूरी है कि उच्च शिक्षा को समावेशी बनाते हुए जीईआर तथा गुणवत्ता सुधारने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी राज्य उच्च शिक्षा संस्थानों की ही है।
देश भर में राज्यों के उच्चतर शिक्षा संस्थान, जिनकी जीईआर में वृद्धि के साथ-साथ उच्च शिक्षा तक पंहुच, समता तथा समावेशन में महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी, गंभीर वित्तीय संकट में हैं। शिक्षा हेतु राज्यों के बजट में पिछले तीन वर्षों में कोई भी बढ़ोतरी नहीं हो सकी है। राज्य सरकारों ने उच्च शिक्षा की कीमत पर स्कूल शिक्षा पर जोर दिया है।
राज्य सरकारों द्वारा उच्चतर शिक्षा संस्थानों, विशेषकर राज्य विश्वविद्यालयों के अनुदान में तीन दशक से कोई वृद्धि नहीं की है। विश्वविद्यालयों की आय के स्रोत संबद्धता शुल्क, शिक्षण शुल्क, परीक्षा शुल्क, स्ववित्तीय पाठ्यक्रमों से आय तथा कुछ अन्य शुल्क हैं। विश्वविद्यालयों द्वारा शुल्क वृद्धि के रास्ते में सरकारों के सियासी हित आड़े आते हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग जैसी संस्थाओं से प्रोजेक्ट आधारित योजनागत तथा गैर-योजनागत मदद के अलावा केंद्र से किसी भी मदद का प्रश्न ही नहीं बनता।
वर्ष 2013 से राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा अभियान (रूसा) राज्य विश्वविद्यालयों के उन्नयन के लिए केंद्र प्रायोजित कार्यक्रम की शुरुआत हुई। रूसा का उद्देश्य उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के लिए राज्य के उच्च शिक्षा संस्थानों की बेहतर गुणवत्ता के लिए पात्र संस्थानों की ‘रणनीतिक फंडिंग’ करना है। केंद्रीय वित्तपोषण उच्च शिक्षा में समता, पहुंच और उत्कृष्टता योजनाओं के मूल्यांकन के आधार पर, सामान्य राज्यों के लिए 60:40, विशेष श्रेणी राज्यों के लिए 90:10 और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए सौ फीसद अनुपात में केंद्र से राज्य/केंद्रशासित सरकार से होकर राज्य उच्च शिक्षा परिषदों के माध्यम से चिह्नित संस्थानों तक पहुंचता है। पर यह बहुत कम है तथा कुछ ही उच्च शिक्षा संस्थानों तक सीमित है।
भारत की संघीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में जटिल केंद्र तथा राज्यों के मध्य उच्च शिक्षा व्यवस्था में समन्वय आसान नहीं है। फिर भी, इसे व्यापक दिशा-निर्देशों के साथ पूरा करना होता है। मध्यप्रदेश, कर्नाटक, हरियाणा जैसे चुनिंदा राज्यों में नई शिक्षा नीति को लागू हुए दो वर्ष हो चुके हैं। तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल जैसे कुछ राज्य सियासी कारणों से इस दिशा में जरा भी आगे नहीं बढ़े हैं। राज्य विश्वविद्यालयों में न तो ढांचागत सुविधाएं हैं, न ही पर्याप्त शिक्षक। राज्य विश्वविद्यालय, जो कि एनईपी को मूल भावना के साथ समग्रता में लागू कर मिसाल पेश कर सकते हैं, आर्थिक तंगी, अकादमिक कुप्रबंधन, सियासी दखलंदाजी तथा स्वायत्तता की कमी जैसे कारणों से बदहाली में हैं।
नई शिक्षा नीति बनाने से अधिक महत्त्वपूर्ण है, समग्रता में इसका क्रियान्वयन। नब्बे फीसद से भी अधिक विद्यार्थियों के उच्च शिक्षा की जिम्मेवारी उठा रहे राज्य शिक्षा संस्थानों, खासकर राज्य विश्वविद्यालयों को अध्ययन-अध्यापन सहित अकादमिक, वित्तीय तथा शोध मामलों में मजबूत बनाए बगैर नई शिक्षा नीति के मकसद में कामयाबी हासिल कर पाना मुमकिन ही नहीं है।