नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से कुओं के जलस्तर पर जबरदस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। हालत यह है कि पचहत्तर फीसद कुएं हर वर्ष दिसंबर माह में, दस फीसद जनवरी में और दस फीसद अप्रैल माह में सूख जाते हैं। एक नलकूप पांच से दस कुओं का पानी सोख लेता है। जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद भी मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने और जलधाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है।
जिस तेजी से कृत्रिम, भौतिक और उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाली वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है, उतनी ही तेजी से प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण हुआ और उनकी उपलब्धता घटी है। ऐसे प्राकृतिक संसाधनों में एक है ‘पानी’ ! ‘जल ही जीवन है’ की वास्तविकता से अवगत होने के बावजूद पानी की उपलब्धता भूमि के नीचे और ऊपर निरंतर कम होती जा रही है।
नतीजतन, भारत तेजी से भू-जल की कमी के चरम बिंदु की ओर बढ़ रहा है। कुछ क्षेत्र पहले से ही इस चिंताजनक स्थिति का सामना कर रहे हैं और कुछ में 2025 तक इसका असर दिखना शुरू हो जाएगा। यह संकट पेयजल और खाद्यान्न दोनों की उपलब्धता को प्रभावित करेगा।
संयुक्त राष्ट्र के विश्वविद्यालय-पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान द्वारा प्रकाशित अंतर्संबंध आपदा संकट रपट-2023 में कहा है कि सिंधु और गंगा के इलाकों में भूजल का स्तर खतरनाक बिंदु पर पहुंच गया है। पंजाब के अठहत्तर फीसद कुएं अति दोहन का शिकार हैं और इसके चलते उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में भूजल का गंभीर संकट पैदा हो सकता है। भारत का यही वह क्षेत्र है, जहां सबसे ज्यादा धान, गेहूं और दालों का उत्पादन होता है। साफ है कि इन क्षेत्रों में अगर भूजल तेजी से घट जाएगा तो खाद्यान्न उत्पादन बुरी तरह प्रभावित होगा। यह स्थिति भूख, बेरोजगारी और उद्योगों के लिए बड़े संकट का सबब बन सकती है।
भूजल दोहन का आसान तरीका वे नलकूप हैं, जो घरों-गलियों से लेकर खेती के लिए पानी खींच रहे हैं। नलकूप की सुविधा मिलने से बहुत सारे किसान बेमौसम फसलें बोने लगे हैं, जिनमें से कई फसलों के लिए अधिक पानी की जरूरत पड़ती है। धान की फसल भी उनमें से एक है। हालांकि पंजाब और हरियाणा की सरकारें किसानों से लगातार अपील करती रही हैं कि वे वर्षा से पहले धान की खेती न करें और भूजल दोहन को नियंत्रित रखें। जल के अतिरिक्त दोहन के लिए दंड के प्रावधान भी किए गए हैं। जब इसका असर नहीं दिखा, तो किसानों को प्रोत्साहन राशि की घोषणा की गई, लेकिन परिणाम शून्य रहे।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार जमीन से खींचे जाने वाले सत्तर फीसद जल का उपयोग खेती-किसानी के लिए ही होता है। दुनिया की छह पर्यावरणीय प्रणालियां जल का स्तर नीचे गिरने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के चलते संकट के चरम बिंदु पर हैं। अगर हालात नहीं बदले तो जीव-जंतु विलुप्त होंगे, भूजल घटेगा, हिमखंड पिघलेंगे और असहनीय गरमी पड़ेगी।
प्राकृतिक संपदा का दोहन और उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप विनाशकारी बदलाव लाएंगे। इसका पारिस्थितिकी तंत्र, जलवायु पद्धति और समग्र पर्यावरण पर गंभीर असर दिखेगा। रिपोर्ट के अनुसार सऊदी अरब में पहले से ही भूजल अधिकतम निचले स्तर पर है, अब भारत भी उन देशों में शामिल है, जो जल्दी ही इस चरम बिंदु की सीमा लांघ सकता है। भारत दुनिया में सबसे ज्यादा भूजल का इस्तेमाल करता है।
यह अमेरिका और चीन दोनों के कुल प्रयोग से कहीं अधिक है। भारत का उत्तर-पश्चिमी इलाका देश की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिहाज से अहम है, लेकिन यहां तेजी से भूजल का स्तर गिर रहा है। नतीजतन, इसके दुष्परिणाम 2025 तक दिखने शुरू हो जाएंगे। जल स्रोत सूखने लग जाएंगे, जिसका असर खेती पर पड़ेगा।
आजादी के वक्त तक प्रति व्यक्ति सालाना दर के हिसाब से पानी की उपलब्धता छह हजार घनमीटर थी, जो अब घट कर करीब डेढ़ हजार घनमीटर रह गई है। जिस तेजी से पानी के इस्तेमाल के लिए दबाव बढ़ रहा है और जिस बेरहमी से भूमि के नीचे के जल का दोहन नलकूपों से किया जा रहा है, उससे यह निश्चित-सा हो चला है कि अगले कुछ साल बाद जल की उपलब्धता घटकर बमुश्किल सोलह सौ की जगह हजार-ग्यारह सौ घनमीटर रह जाएगी।
टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट (टेरी) के अध्ययनों से साबित हुआ है कि भूमिगत जल के आवश्यकता से अधिक प्रयोग से भावी पीढ़ियों को कालांतर में जबरदस्त जल जल संकट का सामना करना पड़ेगा। नलकूपों के उत्खनन संबंधी जिन आंकड़ों को हमने ‘क्रांति’ की संज्ञा दी थी, दरअसल यह संज्ञा तबाही की पूर्व सूचना थी, जिसे हम नजरअंदाज करते चले आ रहे हैं।
खाद्यान्न सुलभता के आंकड़ों को पिछले पचहत्तर वर्ष की एक बड़ी उपलब्धि बताया जा रहा है, लेकिन इसके लिए जिस हरित क्रांति प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया है, उसके कारण नलकूपों की संख्या बेतरह बढ़ी है। फलस्वरूप, उतनी ही तेजी से भूमिगत जल की उपलब्धता घटी है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के अनुसार नलकूप खुदाई की आमतौर पर प्रचलित तकनीक गलत है।
इसके लिए जमीन के भीतर तीस मीटर तक विधिवत पाबंदी होनी चाहिए, ताकि जमीन की इस गहराई वाले हिस्से का पानी अपने क्षेत्र में सुरक्षित रहे। इसके बाद नीचे की खुदाई जारी रखनी चाहिए। यह तकनीक अपनाने से खर्च में तीस हजार रुपए की बढ़ोतरी जरूर होती है, लेकिन भूजल स्तर में गिरावट नहीं आती। मगर इस तकनीक के अनुसार नलकूपों का उत्खनन हमारे देश में नहीं किया गया। इसके दुष्परिणाम अब सामने हैं।
अध्ययन के अनुसार 1947 में कोई एक हजार के करीब नलकूप पूरे देश में थे, जिनकी संख्या अब कई करोड़ हो गई है। सस्ती या मुफ्त बिजली देने से नलकूपों की संख्या में और बढ़ोतरी हुई है। पंजाब और मध्यप्रदेश की सरकारों ने किसानों को मुफ्त बिजली देकर नलकूप खनन को बेवजह प्रोत्साहित किया है।
पंजाब के बारह, हरियाणा के तीन और मध्यप्रदेश के पंद्रह जिलों में पानी ज्यादा निकाला जा रहा है, जबकि वर्षाजल से उसकी भरपाई नहीं हो पा रही है। गुजरात के मेहसाणा और और तमिलनाडु के कोयंबतूर जिलों में तो भूमिगत जल एकदम खत्म ही हो गया है। जल स्तर नीचे जाने से पानी खींचने में ज्यादा बिजली खर्च हो रही है। जिन जल क्षेत्रों में पानी का अत्यधिक दोहन हो चुका है, वहां पानी खींचने के खर्च में पांच हजार करोड़ रुपए का इजाफा हुआ है।
नलकूपों के बड़ी मात्रा में खनन से कुओं के जलस्तर पर जबर्दस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। हालत यह है कि पचहत्तर फीसद कुएं हर वर्ष दिसंबर माह में, दस फीसद जनवरी में और दस फीसद अप्रैल माह में सूख जाते हैं। एक नलकूप पांच से दस कुओं का पानी सोख लेता है। जल विशेषज्ञ और पर्यावरणविद भी मानने लगे हैं कि जल स्तर को नष्ट करने और जलधाराओं की गति अवरुद्ध करने में नलकूपों की मुख्य भूमिका रही है।
भूमि संरक्षण विभाग के अधिकारियों का इस बारे में कहना है कि भूमि में 210 से लेकर 330 फीट तक छेद कर देने से धरती की परतों में बह रही जलधाराएं नीचे चली जाती हैं। इससे जलस्तर भी नीचे चला जाता है। नलकूपों का खनन करने वाली आधुनिक मशीनों के चलने से धरती की परतों का बहुत बड़ा क्षेत्र प्रकंपित होता है। इससे अविरल बह रही जलधाराओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। नतीजतन, सैकड़ों साल की प्रक्रिया से अस्तित्व में आने वाली जलधाराओं की संरचना अस्त-व्यस्त हो जाती है, जबकि जलस्तर को स्थिर बनाए रखने में यही धाराएं सहायक रहती हैं।
अंधाधुंध नलकूपों की गहरी खुदाई पर तत्काल नियंत्रण लगाकर इसके वैकल्पिक उपाय नहीं तलाशे गए तो कालांतर में जबरदस्त जल संकट बढ़ेगा। इस समस्या का निराकरण बड़ी मात्रा में पारंपरिक जलग्रहण क्षेत्र तैयार करना है। पारंपरिक मानते हुए जलग्रहण की इन तकनीकों की हमने पिछले पचहत्तर वर्षों में घोर उपेक्षा की है, नतीजतन आज हम जल संकट से जूझ रहे हैं।