विनोद शाही
हम आधुनिक काल में प्रवेश कर गए हैं, पर न्याय-व्यवस्था के लिहाज से हम अभी तक मध्यकाल में है। न्याय के आधुनिक होने की पहचान कराने वाली धारणा का संबंध जिन बातों से है, उनमें सबके लिए ‘न्याय की समान उपलब्धता’ मुख्य है। इसे मानव-जाति ने आर्थिक असमानता के विकल्प के रूप में विकसित किया लगता है।
औद्योगिक पूंजीवाद के तहत वैश्विक अर्थ-तंत्र में बड़ी कंपनियों की सांस्थानिक भूमिका मजबूत होती चली गई। इसने आधुनिक न्याय व्यवस्था में बड़ी तब्दीली को जन्म दिया। इस तब्दीली की वजह से मध्यकाल की बहुत सी बातें अप्रासंगिक हो गई। मध्यकाल को बनाने संवारने में व्यापारिक पूंजीवाद की नुमायां भूमिका थी। उस दौर तक दुनिया का काम आपसी लेन-देन की नैतिकता से चल जाता था। पर उसके रूप स्थानीय अधिक थे।
बात आपसी लेन-देन की थी, तो नैतिक जिम्मेदारी भी उसी के नियमों से बंधी थी। तब मनुष्य को कर्म-फल के सिद्धांतों की जरूरत पड़ी। फिर इसने आंतरिक नैतिकता का रूप ले लिया। पर उससे पहले सोच इससे काफी अलग थी। तब कृषि सभ्यता में प्रवेश करने वाला जो आदमी था, वह कुदरती जीवन-पद्धति के भीतर से आया था। उसकी सोच को गठित करने वाली बुनियादी बात थी – ‘जो बोओगे, काटोगे।’ मध्यकाल में व्यापारिक लेन-देन की अहमियत के अधिक नुमायां हो जाने से यह बुनियादी विचार बदल गया। अब यह, ‘जो लोगे, चुकता करना पड़ेगा’ वाले विचार में बदल गया। इस तरह कुदरती जीवन-शैली से आदमी, समाजार्थिक नैतिकता तक पहुंच गया।
आधुनिक काल में कर्मों के हिसाब-किताब का फलसफा बदल गया। विकास का नया पैमाना आ गया। इस फलसफे का आधार-वाक्य है – ‘जितना मुनाफा, उतना फैलाव’। इसकी परिणति मनुष्य के विश्व-रूप होने की स्थिति में हो सकती है। इस तरह इन तीन दर्शनों पर आधारित जो न्याय-व्यवस्थाएं सामने हैं, वे भी तीन तरह की हो जाती हैं। इनके ये तीन रूप हैं – कुदरती, कर्म-फल मूलक और आत्म-विस्तारवादी। पहली मनुष्य-केंद्रित है, दूसरी समाजार्थिक और तीसरी समाजिक-राजनीतिक आधार वाली है। ये न्याय-व्यवस्थाएं इसी क्रम में एक खास तरह के अंतर्विकास का नक्शा बनाती देखी जा सकती हैं।
मध्यकाल में न्याय-व्यवस्था कर्म-फल की नैतिकता से गठित होने लगी थी। इसमें मनुष्य की भूमिका केंद्र में रहती थी। पर औद्योगिक पूंजीवाद के जटिल अर्थ-तंत्र ने बहुत कुछ बदल दिया। इससे आधुनिक न्याय-व्यवस्था के केंद्र में कंपनियां और संस्थान चले आए। न्याय के नैतिक मूलाधार का भी सांस्थानिकरण हो गया। फिर राजनीति का जनतांत्रिक रूप आ गया। उसने सबके लिए समान न्याय के इस विचार को स्थापित करने में अहम भूमिका निभानी शुरू कर दी कि कानून बनाने और उसे लागू करने वाले भी कानून से, यानी न्याय की संस्थाओं से, ऊपर नहीं हैं।
किसी समाज का न्यायपूर्ण होना आज भी उसकी तयशुदा मध्यकालीन मान्यताओं पर ही अधिक आधारित रहता है। बुनियादी मूल्य, विचार और कसौटियां, अभी तक अधिकांशत: मध्यकालीन ही हैं। जैसे मृत्यु-दंड का अनुपात लगातार कम होता जा रहा है। अंग-भंग करने वाले दंड को लगभग सभी देशों की न्याय-व्यवस्थाओं ने बहुत हद तक छोड़ दिया है। युद्ध-कालीन न्याय-व्यवस्थाएं अभी तक कठोरतम दंड देने के अधिकार को स्वत:-सिद्ध मानती हैं। लेकिन शांति-कालीन विधि-सम्मत न्याय, मध्यकाल की तुलना में, अधिक मानवीय माना जा सकता है।
राष्ट्रवाद की परिभाषा के बदल जाने से, अलगाववाद, राष्ट्रद्रोह और मानवाधिकार संबंधी न्याय की धारणा न केवल अधिक जटिल हुई है, उसका दायरा भी लोगों के रोजमर्रा के काम-काज तक फैल रहा है।मध्यकाल तक मानव-जाति को लगता था कि अगर राजा उनके साथ ठीक से न्याय नहीं करता है, तो उससे ऊपर की अदालत भी है-ईश्वर की अदालत, जहां सब बराबर होते हैं। फिर यह धारणा पैदा हुई कि आखिरकार सत्य की विजय होती है। फिर इससे जुड़ी एक और धारणा भी इसीके भीतर से प्रकट हुई। वह थी – ‘धर्म की जय’ की धारणा। धर्म को सत्य की जय के संस्थापक की तरह लाया गया। पर दुनिया में, अधिकांशत: नीचे से ऊपर राजा तक, सब ओर झूठ का कारोबार और अधर्म का बोलबाला दिखाई देता था।
यह न्याय की मध्यकालीन अवधारणा है, जिसके केंद्र में सत्य और धर्म की तत्कालीन व्याख्याएं हैं। इससे कर्म-फल का हमारा जो मीमांसा दर्शन था, वह कहीं पीछे छूट गया। उनकी जगह न्याय के परलोकवादी रूपों ने ले ली। न्याय की आधारभूत बातें नैतिक मूल्यों का पालन करने-करवाने तक सिमट गई।हमारे यहां धर्म की ऐसी मान्यताएं, अतीत की किन्हीं अलग तरह की चिंताओं के अंग की तरह विकसित होती हैं। इस तरह की नैतिकता हमारे यहां यम-नियमों के रूप में एवं षड्-विकारों से निजात पाने के रूप में ही अधिक आई हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे नैतिक मूल्यों में सत्य की प्रधानता दिखाई देती है। नैतिकता अपने आप में साध्य न होकर, सत्याचरण का परिणाम बन जाती है। फर्क यह है कि अतीत कालीन दर्शनों में हमारे यहां, सत्याचरण का आधार ईश्वराज्ञा नहीं है।
भारत की खुशकिस्मती यह है कि हमारे यहां न्याय की अतीत-कालीन व्यवस्था का ढांचा भी अभी तक किसी रूप में बचा रह गया है। दसवीं शती के बाद से तुर्क, अफगान और मुगल शासन का जो सिलसिला आरंभ होता है, उसने मध्य-एशियाई अदालती प्रणाली को तरजीह दी। उसके बाद अंग्रेज जब न्याय-व्यवस्था के आधुनिक रूप को हमारे यहां ले आते हैं, हमारा अपने अतीत की सोच और समझ से रिश्ता तकरीबन टूट जाता है।
आधुनिक न्याय-प्रणाली के केंद्र में अपराध और उसकी व्याख्या है। फिर उसके निवारण के लिए दंड-विधान की व्यवस्था आती है। गांधी ने हिंद स्वराज में कहा था कि चिकित्सक और वकील बीमारी और अपराध का उन्मूलन करने के बजाए, उनके संरक्षक होने की भूमिका अधिक निभाते हैं। आधुनिक न्याय-व्यवस्था के सामने जो बड़ी से बड़ी समस्या है, वह धर्म के प्रति उसके रुख से ताल्लुक रखती है। धर्म जिन नैतिक मूल्यों का आधार होता है, उन्हें उनके तर्क-संगत रूप में स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है।
पर जैसे ही बात सच में तर्क-संगत होने की होती है, धार्मिक आस्थाएं और रवायतें, न्याय का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती हैं। ऐसे में आधुनिक न्याय-व्यवस्था खुद को एक दोराहे पर खड़ा पाती है। एक तरफ धर्मों से आए हुए नैतिक नियम हैं, जो इस व्यवस्था के लगभग सभी विधि-विधानों का आधार हैं। दूसरी तरफ स्वयं धर्म हैं। इनके प्रति निरपेक्ष हुए बिना, इस न्याय-व्यवस्था का एक कदम चलना भी संभव नहीं है। किसी भी व्यवस्था का मूल-भाव, उसके स्वरूप के द्वारा निर्धारित हुआ करता है। न्याय-व्यवस्था जब तक स्वरूपत: पितृसत्तात्मक बनी रहेगी, उसके केंद्र से शासकीय सत्ता को बाहर कर देना मुमकिन नहीं होगा।