ओमप्रकाश राजभर निराश होने वाले नेता नहीं। पिछली योगी सरकार में मंत्री थे। सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी के सुप्रीमो हैं। विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा से गठबंधन तोड़कर सपा में गए थे। मुख्तार अंसारी का बेटा उन्हीं की पार्टी से चुनाव जीता था। सूबे में सपा की सरकार नहीं बनी तो राजभर को भाजपा से गठबंधन तोड़ने के अपने फैसले पर पछतावा हुआ होगा। हालांकि अखिलेश यादव के साथ एमएलसी सीट न मिलने पर राजभर की तनातनी विधानसभा चुनाव के कुछ दिन बाद ही हो गई थी।
सो ‘इंडिया’ से मुकाबले के लिए भाजपा ने राजग के अपने कुनबे का विस्तार किया तो राजभर को भी न्योता दे दिया। दारासिंह चौहान भी वापसी को सहमत हो गए और विधानसभा सीट से इस्तीफा दे दिया। नतीजतन घोसी में उपचुनाव हुआ। किस्मत ने साथ नहीं दिया और सपा अपनी सीट बचाने में सफल रही। सूत्रों की मानें तो भाजपा आलाकमान ने मंत्री पद राजभर के साथ दारासिंह को भी देने का आश्वासन दे रखा है।
लेकिन दिवाली में मंत्रिमंडल विस्तार की उम्मीद पर भी पानी फिर गया। राजभर ने जरूर एलान कर दिया कि उनके मंत्री बनने को भाजपा आलाकमान मंजूरी दे चुका है। जानकारों का कहना है कि राजभर ने भाजपा से गठबंधन तोड़ते समय योगी आदित्यनाथ के लिए जैसी शब्दावली का इस्तेमाल किया था, उससे मुख्यमंत्री अभी तक खासे नाराज हैं।
इंडिया’ ‘ने जितने हल्ले-हंगामे के साथ 14 समाचार प्रस्तोताओं का बहिष्कार किया था, पहले ही उस पर सवाल उठाए गए थे। आप चैनल का बहिष्कार नहीं करेंगे, लेकिन किसी खास पत्रकार का बहिष्कार की घोषणा कर देंगे। इसे एक बेवकूफाना कदम के तौर पर दी देखा गया था। अब गठबंधन की अगुआ कांग्रेस के नेता ही साबित करने पर तुले हैं कि यह फैसला कितना हास्यास्पद था।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ ने नविका कुमार को साक्षात्कार दिया तो अशोक गहलोत भी याद नहीं रख पाए कि सामने माइक लेकर जो पत्रकार खड़ी हैं उनका बहिष्कार करना है। चैनलों के जो बड़े चेहरे समाचार प्रस्तुति करते हैं वे चुनाव जैसे बड़े मौके पर खुद माइक लेकर ‘फील्ड’ में भी जाते हैं। अभी तो शुरुआत है, आगे और भी विपक्षी गठबंधन के नेता कथित बहिष्कृत पत्रकारों से गुफ्तगू करते नजर आ सकते हैं।
असद्दुदीन ओवैसी पर भाजपा की ‘ब’ टीम होने के चाहे जितने आरोप लगें पर वे हर जगह जाकर अपने उम्मीदवार उतार रहे हैं। कांगे्रस और दूसरे विपक्षी दलों का उन पर आरोप भी यही है कि उनके कट्टर मुसलिमवाद की प्रतिक्रिया में कट्टर हिंदुत्व उभरता है और उसका लाभ भाजपा को होता हैै। तेलंगाना में अभी ओवैसी की पार्टी के सात विधायक हैं।
पहले उनकी पार्टी का गठबंधन कांगे्रस से था। आजकल बीआरएस के साथ है। अपने सूबे में ही उन्होंने महज नौ सीटों पर उम्मीदवार उतारे हैं। पर, बिहार और उत्तर प्रदेश में कहीं ज्यादा उम्मीदवार उतारे थे। अब तो वे राजस्थान और मध्यप्रदेश की चुनावी जंग में भी कूद पड़े हैं। पहली बार इन दोनों सूबों में एमआइएम ने अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं।
केंद्र की मौजूदा भाजपा सरकार ने 75 पार के अपने नेताओं को राज्यपाल का एक ही कार्यकाल देने की अघोषित नीति बना रखी है। यहां तक कि केसरीनाथ त्रिपाठी, कल्याण सिंह और सत्यपाल मलिक जैसे कद्दावर नेताओं को भी दूसरी बार राज्यपाल नहीं बनाया। सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज पी सदाशिवम को भी केरल के राज्यपाल के रूप में पांच साल के अपने कार्यकाल को पूरा करते ही पदमुक्त होना पड़ा था।
आनंदीबेन पटेल इस मामले में किस्मत की धनी मानी जा सकती हैं। वे उत्तर प्रदेश की दूसरी महिला राज्यपाल हैं। गुजरात की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। पाटीदार आरक्षण आंदोलन के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा था। हालांकि, तब वे 75 बरस की नहीं हुई थीं। करीब डेढ़ साल के वनवास के बाद उन्हें 19 जनवरी 2018 को मध्यप्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था। उत्तर प्रदेश में तो उनका तबादला 2019 में राम नाईक का कार्यकाल पूरा होने के बाद किया गया था।
राज्यपाल के नाते पांच साल का उनका कार्यकाल यों इस साल जनवरी में ही पूरा हो गया था। तब उनके उत्तराधिकारी के रूप में कई नेताओं के नाम भी उछले थे। पर, वे लगातार पद पर बनी हुई हैं। यह बात अलग है कि केंद्र ने बतौर राज्यपाल पांच साल के दूसरे कार्यकाल के लिए उनकी औपचारिक नियुक्ति नहीं की है। ऐसा करने पर दूसरे नेताओं और राज्यपालों की भी दूसरे कार्यकाल की हसरत पैदा हो सकती है।
भाजपा की रणनीति ऐसी रही है कि कौन सी सीट किसे मिलेगी इसका आकलन करना पत्रकारों ने छोड़ ही दिया है। खास कर जब वह दिल्ली की संसदीय सीट हो। लेकिन, भाजपा की ही एक और रणनीति है जिसे देखते हुए दिल्ली में दो सांसदों की टिकट पक्की मानी जा रही है। इस रणनीति को देखते हुए कथित भविष्यवाणी का भी खतरा उठाया जा सकता है।
महुआ मोइत्रा पर आचार संहिता चाहे कितनी सख्ती से लागू की गई हो, लेकिन संसद में विवादास्पद बयान देने के बाद रमेश बिधूड़ी जी के समर्थक निश्चिंत हो गए हैं कि सीट पक्की है। दानिश अली मामले में उन्हें कारण बताओ नोटिस तो भेजा गया है, जिसे उनके समर्थक आगे टिकट मिलने का कारण मान रहे हैं।
आचार संहिता के हल्ले के बीच राजस्थान चुनाव में वे अहम जिम्मेदारी निभा ही रहे हैं। इसके साथ ही प्रवेश वर्मा की दावेदारी को भी पक्का माना जा रहा है। दोनों ध्रुवीकरण की राजनीति के साथ किसी तरह का समझौता नहीं करते, इसलिए माना जा रहा है कि खास तबके का एकमुश्त वोट लेने के लिए भाजपा इन दोनों को टिकट देने से कोई समझौता नहीं करेगी।
संकलन : मृणाल वल्लरी