दिल्ली में प्रदूषण हालत खस्ता हो गए हैं, हवा इतनी ज्यादा जहरीली हो चुकी है कि लोगों को सांस लेने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। अब इस चुनौती से निपटने के लिए दिल्ली सरकार के पास एक प्लान है। इस प्लान के तहत राजधानी में आर्टिफिशियल रेन करवाने पर विचार किया जा रहा है। माना जा रहा है कि दो दिन दिल्ली सरकार राजधानी में इस एक्सपेरिमेंट को अंजाम दे सकती है।
अब सवाल ये उठता है कि आखिर ये आर्टिफिशियल रेन होती क्या है? आखिर इसके पीछे का विज्ञान क्या है, इस पर खर्चा कितना आता है? जानकारी के लिए बता दें कि आर्टिफिशियल रेन कोई दिल्ली का आइडिया नहीं है, बल्कि चीन और अमेरिका जैसे देशों में तो कई बार इसका इस्तेमाल किया जा चुका है। वहां पर तो प्रदूषण को कम करने में इस एक्सपेरिमेंट ने अहम भूमिका निभाई है। अब ऐसी ही भूमिका केजरीवाल सरकार दिल्ली में देखना चाहती है। उसकी मंशा है कि समय रहते राजधानी इस धुएं से मुक्त हो जाए।
असल में कृत्रिम बारिश करवाने के लिए सबसे पहले क्लाउड सीडिंग करवाना पड़ता है। आसान शब्दों में इसका मतलब ये होता है कि एक नकली बादल तैयार करना होता है। वो नकली बादल भी तब बनता है जब सिल्वर आयोडाइड नाम के केमिकल को हल्के बादलों के बीच में स्प्रे किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक प्लेन को भी अपना योगदान देना पड़ता है।
यहां ये समझना जरूरी है कि जिस केमिकल का छिड़काव किया जाता है उससे नकली बूंदे बनती हैं और जब बादल उनका भार नहीं ले पाता वो नीचे बारिश के रूप में बरसने लगती हैं। अब इसे ही आर्टिफिशियल रेन कहा जाता है। अब ये तो पूरी प्रक्रिया पता चल गई है, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाना भी इतना आसान नहीं रहता है। असल में एक प्लेन को आर्टिफिशियल रेन में सबसे बड़ी भूमिका निभानी पड़ती है। जिस केमिकल का छिड़काव किया जाता है, वो एक इंस्ट्रूमेंट के जरिए आसमान में छोड़ा जाता है। वो इंस्ट्रूमेंट भी प्लेन में ही फिट किया जाता है, ऐसे में एक विमान की अहम भूमिका रहती है।
अगर दिल्ली की नजर से इस एक्सपेरिमेंट को समझा जाए तो केजरीवाल सरकार को आर्टिफिशियल रेन करवाने से पहले कई सारी परमीशन लेनी पड़ जाएंगी, इसमें केंद्र की मोदी सरकार भी शामिल रहेगी। अब एक बार के लिए दिल्ली में इस एक्सपेरिमेंट को किया जरूर जा सकता है, लेकिन इस पर खर्चा मोटा आता है। असल में पहला खर्चा तो वो विमान रहता है जिसकी मदद से स्प्रे किया जाता है, इसके अलावा दूसरा खर्चा उस इंस्ट्रूमेंट का रहता है जिससे स्प्रे किया जाता है। एक घंटे के ही पांच लाख तक खर्च हो जाते हैं, ऐसे में इस एक्सपेरिमेंट को लगातार नहीं किया जा सकता। इसके ऊपर अगर हवा का रुख बदल गया तो ये प्रक्रिया फेल भी हो सकती है।