भावना मासीवाल
संचार तंत्र के फैलते पांव के बीच अभिव्यक्ति जिस तरह अपनी स्वतंत्रता की गरिमा को भुला रही रही है, उसमें लगता है कि यह आगे चलकर कहीं आत्मघाती ही न हो जाए। सोशल मीडिया से लेकर टीवी के पर्दे अब जिम्मेदारी का भाव खोते जा रहे हैं और लोग कई बार बेहद निजी मामलों को भी अपनी कुंठा के जरिए फैसला कर देना चाहते हैं।
पिछले दिनों कुछ घटनाओं में महिलाओं के संबंधों में उभरे विवाद को जिस तरह सार्वजनिक पटल पर बहस का मुद्दा बना दिया गया और तरह-तरह की व्याख्याएं आने लगीं, उसमें यह सवाल उठा कि सार्वजनिक अभिरुचि की सीमा क्या है और अगर किसी व्यक्ति की जिंदगी पर इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो इसका जिम्मेदार कौन होगा। उन महिलाओं के मामलों में व्यक्तिगत आक्षेप से लेकर सार्वजनिक टिप्पणियां की गई। किसी ने उनकी शिक्षा और रहन-सहन पर सवाल किया है तो कोई यह फैसला सुना रहा था कि समाज में उन्हें कैसे रहना चाहिए!
इन सबके बीच जो आवश्यक घटनाएं हैं और जो बहस का केंद्र होनी चाहिए थी, उसने चुपचाप दम तोड़ दिया। यही कारण है कि टीवी के पर्दे और सोशल मीडिया पर होने वाली बहसें अब अपना विश्वास और जनमत खोती जा रही हैं। राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दे चर्चा तक से वंचित रह जाते हैं और बेहद गंभीर प्रवृत्तियां पक्ष-विपक्ष की वजह से अनदेखी कर दी जाती हैं।
कई महीने से मणिपुर में जारी हिंसा के बीच वहां के कई वीडियो और अन्य घटनाओं ने हमें समाज की मनोस्थिति को फिर समझने के लिए मजबूर कर दिया है। जाति, समुदाय और धर्म के नाम पर महिलाओं के खिलाफ हर तरह की हिंसा और यौन हिंसा बढ़ रही है। एक वर्ग विशेष जहां महिला के खिलाफ बर्बर हिंसा करते हुए सार्वजनिक रूप से उसे निर्वस्त्र करके घुमा कर अपना बदला पूरा मान रहा है, तो वहीं खड़े कुछ लोग दर्शक बन वीडियो बना रहे होते हैं। हम ऐसे समाज में पहुंच रहे हैं जहां मानवता समाप्त होती दिख रही है। हमें इंसान के जीवन से अधिक इंस्टाग्राम और फेसबुक की सुर्खियां, टिप्पणियां और ‘लाइक’ आदि अच्छे लगने लगे हैं।
देश के दूरदराज के इलाकों से लेकर राजधानी दिल्ली तक में महिलाओं के खिलाफ हिंसक वारदात होती है और लोग उसे सोशल मीडिया का मुद्दा मान कर दो-तीन दिनों में शांत हो जाते हैं। जबकि ऐसी घटनाओं से महिला, उसका परिवार और उसके आसपास के लोग लंबे वक्त तक मानसिक यातना झेलते हैं।
हालत यह है कि सार्वजनिक स्थल पर किसी लड़की की सरेआम हत्या की जाती है और वहां मौजूद लोग बिना कोई प्रतिक्रिया दिए बिना निकल जाते हैं तो कोई वीडियो बनाता है। ऐसे में हत्यारे से कम बड़ा अपराधी वह दर्शक नहीं लगता है। कहीं भाई ही मामूली बात पर अपनी बहन का सिर काट दे रहा है तो कहीं पति गुस्से में पत्नी के टुकड़े कर रहा है। परिवार, समाज से लेकर कार्यस्थलों तक पर महिलाओं के यौन शोषण की घटनाएं आती रहती हैं। यह स्थिति सबके लिए शर्मनाक है।
लेकिन जब हम अपने ही समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा और बलात्कार या हत्या को रोक नहीं पा रहे, बल्कि इन आपराधिक घटनाओं में मूकदर्शक या फिर परोक्ष सहयोगी बन रहे हैं तो दूसरों से क्या उम्मीद की जाएगी। दूसरी तरफ हम ‘राष्ट्र’ को ‘माता’ के रूप से संबोधित करते हैं। ऐसे में क्या हम उस शब्द से जुड़े स्त्रीत्व और मातृत्व भाव का सम्मान कर पा रहे हैं!
समाज में महिलाओं के खिलाफ हिंसा, बलात्कार की अनगिनत घटनाएं रोज होती हैं। कई बार हिंसा एक वर्ग विशेष के प्रति आक्रामक और बेलगाम रूप धारण कर लेती है। महिलाओं के सम्मान और जीने के अधिकार का हनन किया जाता है। यह हिंसा प्रत्येक देशकाल में होती रही है, जो केवल स्त्री को निर्वस्त्र ही नहीं करती, बल्कि उसके सम्मान के साथ ही राष्ट्र के सम्मान को भी कठघरे में खड़ा करती है।
यहां स्त्री का अस्तित्व एक प्रश्न बनकर रह जाता है। फिर वह रामायण की सीता हो, महाभारत की द्रौपदी हो या आज की महिलाएं। ये कभी अग्नि परीक्षा देने को मजबूर होती हैं और हम उसे सतीत्व से जोड़कर महिमामंडित करते हैं तो कहीं अपने अहं में जुए पर पत्नी को दांव पर लगाते पतियों के कारण सभा में निर्वस्त्र की जाती है और सभा में राजा से लेकर प्रजा सभी मौन दर्शक बनते हैं।
समय, देशकाल, वातावरण सभी कुछ बदला है, मगर जो नहीं बदला है, वह हमारी मन:स्थिति है। आज वैवाहिक संबंधों से इतर संबंध सार्वजनिक बहस का हिस्सा और केंद्र बन रहे हैं। इसके बरक्स महिलाओं के विरुद्ध घटित हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में स्त्री के प्रति वीभत्स मानसिकता बहस के केंद्र में नहीं आती है। सत्ता, समाज के सवालों पर सदैव ही महिलाएं कठघरे में खड़ी की जाती रही हैं। अमूमन हर दौर में समाज संवेदनशून्य बना रहा है। मानवीय सरोकारों के प्रति यह शून्यता समाज के अस्तित्व को धीरे-धीरे समाप्त कर रही है और साथ ही स्त्री-पुरुष संबंधों के बीच एक नहीं मिटने वाले अविश्वास को बढ़ावा दे रही है।