राकेश सिन्हा
ताकत और प्रतिष्ठा का संयोग, वियोग और विकल्प हमेशा बना रहता है। ताकतवर होकर प्रतिष्ठा का अहसास नहीं होना मन मस्तिष्क को कचोटता है। इसकी अनुभूति आधुनिक विश्व के अग्रणी देशों को भी रही है। इसे सहजता से देखा जा सकता है। इसी कारण वे शस्त्र से कम महत्त्व शास्त्र को नहीं दे रहे हैं। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ्रांस, ब्रिटेन सहित यूरोप के अधिकांश देश अपनी वैचारिक सांस्कृतिक और दार्शनिक श्रेष्ठता का प्रचार प्रसार कर सभ्यताई छवि अर्जित करने की कोशिश कर रहे हैं।
चीन ने तो अपने साम्यवादी चरित्र से आगे बढ़कर दुनिया में पौने दो सौ कनफ्यूशियस केंद्रों की स्थापना की है और अपनी विरासत के प्रचार प्रसार के लिए 82 हजार करोड़ से अधिक का वार्षिक बजट रखा है। पर चीन, अमेरिका सहित यूरोपीय देशों के पास दुनिया के सामने परोसने के लिए अत्यंत ही सीमित बौद्धिक एवं दार्शनिक संपदा है। इसके विपरीत भारत की सांस्कृतिक-बौद्धिक विरासत प्रचुरता से लबालब है। इसलिए इसे चीन की तरह भारी भरकम बजट की आवश्यकता कदापि नहीं है। सिर्फ भारत के बुद्धिजीवियों को अपनी उस धरोहर और दर्शन-संस्कृति-साहित्य के विपुल भंडार में गोता लगाने की जरूरत है जिसका सर्वथा अभाव दिखता है।
भारत के पास चिह्नित पचास लाख पांडुलिपियां हैं। यूरोप की सभ्यता मूलत: ग्रीक साहित्य दर्शन पर निर्भर है, जिसकी पांडुलिपियों की संख्या पचीस हजार से अधिक नहीं है। यह भारत की विदेश के पुस्तकालयों में पड़ी पांडुलिपियों से भी कम है। अभी तक हम अपनी सभी पांडुलिपियों की थाह नहीं लगा पाए हैं। विवेक देबराय का अनुमान चार करोड़ पांडुलिपियों का है। यह अस्सी लिपियों में है।
हमारा इतिहास सिर्फ समय के ही संदर्भ में बड़ा नहीं है, बल्कि महान भी है। इसी मजबूत बुनियाद ने हजार वर्ष की गुलामी और बर्बर आक्रमणों के बावजूद हमारी अस्मिता को धूमिल नहीं होने दिया। वर्ष 2014 में सत्ता परिवर्तन के साथ भारत आत्मविश्वास के साथ दुनिया के सामने अपनी विरासत के साथ खड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस उपेक्षित और छिपी ताकत को उभारने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इसका असर दिख भी रहा है।
लेकिन क्या भारतीय बौद्धिकता इस सभ्यताई पुनरुत्थान की चुनौती स्वीकार करने की प्रतिबद्धता, बौद्धिक परिश्रम और विमर्श का संदर्भीकरण करने की पात्रता दिखा रही है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। विरासत पूजा का मंडप या सामग्री नहीं होती। न ही यह आभूषण की तरह शृंगार होता है। इसकी उपादेयता तभी होती है, जब वर्तमान उसका हिस्सा बनने का सामर्थ्य रखता है। पश्चिम के पास चाहे विरासत की जितनी भी अल्पता हो वह विचार के महत्त्व को समझता है। ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका के विश्वविद्यालयों की वैश्विक संदर्भ में शैक्षणिक एवं बौद्धिक गतिविधियां इसका उदाहरण हैं। आक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज, हार्वर्ड सभी वैचारिक रंगों की प्रतिभा वाले बुद्धिजीवियों का स्वागत करता है।
हम अपनी पांडुलिपियों को भी नहीं पढ़ पाए। आंकड़ों से ही हम संतुष्ट हैं। विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थाओं में इसके प्रति रुझान नाम-मात्र का है। स्वाधीनता के बाद देश के बौद्धिक केंद्रों पर वामपंथियों का प्रभाव था। उन्होंने इसे प्रोत्साहित करना गैर-जरूरी समझा। इसका परिणाम हमारे सामने है। आज भी हम विदेशी मेहमान बुद्धिजीवियों के भारत- अध्ययन और उनकी कृतियों पर प्राय: निर्भर हैं। देश में वाम और दक्षिण का बुद्धिजीवियों में जाति व्यवस्था की तरह विभाजन ने इस पीड़ा को और भी बढ़ाने का काम किया है।
इसने स्वतंत्र चेतना को कुचलने या हतोत्साहित करने का काम किया है। किसी भी महान विरासत वाले समाज की यह त्रासदी बौद्धिक सत्संग को मृतप्राय बना देती है। इस संदर्भ में लैटिन अमेरिकी बुद्धिजीवियों ने अधिक परिपक्वता दिखाई है। वामपंथी गैब्रियल गारसिया मारक्वेज (1927-2014) और दक्षिणपंथी आक्टेवियो पाज (1914-1998) का उदाहरण उपयुक्त है। दोनों को साहित्य सृजन में नोबेल पुरस्कार मिला था। दोनों कभी एक दूसरे से मिले नहीं थे, लेकिन एक दूसरे के प्रशंसक थे। इन्हीं विशेषताओं के कारण लैटिन अमेरिका के बुद्धिजीवियों की भूमिका ने लोगों को कभी उदासीन नहीं होने दिया। वहां की राजनीति विफल रही, लेकिन बौद्धिकता सफल रही है।
भारत में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जो बौद्धिक छटपटाहट और रचनात्मक पहल थी, उसे भारत की सभ्यताई अस्मिता की खोज के रूप में देखा जा सकता है। प्रत्येक बुद्धिजीवी एक योद्धा था। संसाधनों की अल्पता और परिस्थितियों की प्रतिकूलता उसे परास्त नहीं कर पाई। वे पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा विरासत के आईने में वर्तमान को समृद्ध करते रहे।
रामानंद चटर्जी द्वारा प्रकाशित ‘माडर्न रिव्यू’ (1907-75), लोकमान्य तिलक का ‘केसरी’, मोतीलाल घोष का ‘अमृत बाजार पत्रिका’, सुरेंद्र नाथ बनर्जी का ‘बंगाली’, गिरीशचंद्र घोष का ‘हिंदू पैट्रियट’, फिरोजशाह मेहता का ‘बांबे क्रानिकल’, देशबंधु चित्तरंजन दास का ‘नारायणा’, अरविंद घोष का ‘वंदे मातरम’ जीएस अय्यर का ‘स्वदेश मित्र’ आदि राष्ट्रवाद को सांस्कृति रूप से समृद्ध करते रहे।
उस काल की एक और खासियत थी। बौद्धिकता का जीवंत भ्रमण। दो दक्षिण में था, वह उत्तर और उत्तर का दक्षिण पहुंचता था। बौद्धिकता का प्रवाह थमना नहीं चाहिए। उस काल में भाषाई साहित्य का अनुवाद आम बात थी। इसने बुद्धिजीवियों एवं राजनेताओं को कूपमंडूक बनने नहीं दिया। अखिल भारतीयता शब्द और कर्म दोनों में परिलक्षित होता था। राष्ट्रीय एकता और सांस्कृति विरासत दोनों साथ-साथ चलते रहे। इसीलिए साम्राज्यवादियों ने हिंदी के जिन 138, उर्दू के 68, पंजाबी के 92, मराठी के 55, बांग्ला के 44, तमिल के 31, तेलुगू के 20 साहित्य समेत अन्य भाषाओं के साहित्य पर प्रतिबंध लगाया था उनमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का समान स्वर था।
स्वाधीनता के बाद बौद्धिक वर्ग राजनीति का हिस्सा बना, उससे अधिक घातक उसने स्वायत्तता का स्वयं समर्पण कर दिया। फिर रचनात्मकता और मौलिकता दोनों में गिरावट स्वाभाविक ही है। यह ह्रास चिंता का कारण है। इससे भी आगे बढ़कर हम स्थानीय साहित्य से सृजित कल्पनाशीलता के आधार पर भारत को परिभाषित करते रहे। यह भारत एक विचार के साथ अन्याय है।
तमिल, बांग्ला, तेलुगू, कन्नड़, ओड़िया, मराठी आदि भाषाओं में सृजित साहित्य अपनी-अपनी भाषाओं में सिमटता रहता है। एक भाषा के साहित्य से हम भारत को परिभाषित नहीं कर सकते। लेकिन यही हो रहा है। एक दूसरे के साहित्य से अपरिचित रहना हमें खटकता नहीं है। इसलिए भारत की परिभाषा देते समय हम अपने पड़ोस की सांस्कृतिक-दार्शनिक धारा से उपार्जित मनोभाव को शामिल नहीं कर पाते हैं या वह आंशिक ही रहता है। सैकड़ों वर्ष पहले महाभारत या रामायण का अनुवाद जितनी भाषाओं में हुआ, उसकी कल्पना करना भी कठिन है।
आज ‘माडर्न रिव्यू’ या ‘बंगाली’ जैसा प्रकाशन भी नहीं है। दुर्भाग्य है कि इसकी आवश्यकता भी नहीं समझी जा रही है। अवर्णनीय बौद्धिक आलस्य और अकर्मण्यता के कारण बुद्धिजीवी स्वयंमेव ही हल्का और प्रभावहीन महसूस कर रहा है। यही कारण है कि भारत साफ्ट पावर को अपनी तरह से दुनिया के सामने रखने में पीछे है। देश के बुद्धिजीवियों में स्वयं ही नवजागरण की जरूरत है।