अभिनेत्री कंगना रानावत ने आखिर चुनावी सियासत में कूदने का अपना इरादा जग जाहिर कर ही दिया। गुजरात के द्वारकाधीश दर्शन करने पहुंची तो पत्रकारों के सवाल पर जवाब दिया कि भगवान श्रीकृष्ण की कृपा रही तो चुनाव जरूर लडूंगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कंगना बेइंतिहा प्रशंसक हैं। किसी राजनीतिक दल से प्रत्यक्ष तौर पर नहीं जुड़ी होने के बावजूद वे विपक्ष पर अरसे से हमला करती रही हैं।
पिछले दिनों हिमाचल में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान भी उनके चुनाव में उतरने की अटकलें लगी थीं। भाजपाई सूत्रों का कहना है कि कंगना न तो गुजरात से चुनाव लड़ेंगी और न हिमाचल या महाराष्ट्र्र से। भाजपा ने उन्हें मथुरा से मैदान में उतारने का मन बना रखा है। फिलहाल मथुरा की नुमाइंदगी लोकसभा में फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी कर रही हैं। वे पिछले महीने ही 75 की हो गई थी।
भाजपा की अघोषित नीति 75 पूरा कर चुके नेताओं को चुनावी राजनीति से सेवानिवृत्त कर देने की है। इस नाते एक तो हेमा पार्टी की नीति के हिसाब से ही टिकट की तीसरी बार दावेदार नहीं हो सकती। ऊपर से क्षेत्र में निष्क्रियता के कारण उनका तीसरी बार जीतना भी मुश्किल होगा। कंगना को मथुरा से उतारकर भाजपा एक तरफ तो उनके फिल्मी ग्लैमर के सहारे अपनी जीत को पुख्ता करेगी, दूसरी तरफ सूबे में कंगना के जरिए हिंदुत्व की धार को तेज कर बाकी सीटों पर भी सियासी फायदा उठाएगी।
‘इंडिया’ में शामिल दलों की बेचैनी बढ़ रही है। असंतुष्टों के निशाने पर कांग्रेस है। पटना में बिहार के मुख्यमंत्री और जद (एकी) के नेता नीतीश कुमार ने तो कांगे्रस को लेकर अपनी नाराजगी गुरुवार को सार्वजनिक भी कर दी कि वह विधानसभा चुनाव में व्यस्त है। इससे पहले मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में गठबंधन न होने को लेकर सपा मुखिया अखिलेश यादव भी कांगे्रस पर खूब तमतमाए थे।
आखिर उन्हें समझ आ गया कि कांगे्रस की मंशा ‘इंडिया’ को लोकसभा चुनाव तक सीमित रखने की है। क्षेत्रीय दलों को अब समझ आ रही है कि प्रधानमंत्री पद पर कांगे्रस उनमें से किसी के दावे को स्वीकार नहीं करने वाली। उसका पूरा ध्यान तो पांच राज्यों के चुनावी नतीजों पर टिका है। इस चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा तो क्षेत्रीय दल वैसे भी चुप हो जाएंगे। ऐसा होने पर उन्हें कांग्रेस की छतरी के नीचे आना ही होगा।
मध्य प्रदेश में इस बार शिवराज सिंह चौहान के लिए एकदम अलग से हालात हैं। हालात परिवर्तन का सबसे पहला संकेत यह होता है कि आपकी पारंपरिक सीट भी आपके लिए असहज हो जाए। बात की जाए बुधनी विधानसभा सीट की। इस सीट को शिवराज प्रचंड बहुमत से जीतते रहे हैं। कांग्रेस भी इस सीट पर प्रतीकात्मक चुनाव ही लड़ती थी, और अपने किसी योग्य उम्मीदवार को यहां जाया करने से परहेज करती थी। यह ऐसा क्षेत्र था जहां विपक्ष का कोई आंदोलन सफल नहीं हो पाता था। लेकिन, इस बार यहां शिवराज मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के लिए लोकसभा के उतरे सात सदस्यों के चेहरे बता रहे, इस बार माहौल अलग है।
कर्नाटक में भाजपा भयंकर गुटबाजी की शिकार है। गुटबाजी के कारण ही तो पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को करारी हार का मुंह देखना पड़ा था। गुटबाजी चुनाव निपटने के बाद भी कम नहीं हुई। अलबत्ता लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए पार्टी आलाकमान ने एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (सेकु) से हाथ जरूर मिला लिया। जाहिर है, सूबे की कांगे्रस सरकार को घेरने और विधानसभा में आक्रामक तेवर दिखाने में तो पार्टी आलाकमान की ज्यादा रुचि है ही नहीं, उसे चिंता लोकसभा चुनाव में विपक्ष के गठबंधन की चुनौती से निपटने की सता रही है।
यही वजह है कि मई से अभी तक पार्टी ने विधायक दल के नेता तक का चुनाव नहीं किया। पूर्व मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई और पूर्व उप मुख्यमंत्री आर अशोक के नामों पर तो पार्टी विचार करने को भी तैयार नहीं लगती। प्रदेश भाजपा महासचिव एन रवि कुमार का कहना है कि इस महीने शुरू होने वाले विधानसभा के शीतकालीन सत्र से पहले विधायक दल के नेता का फैसला हो जाएगा।
कांग्रेस का कहना है कि भाजपा आलाकमान जानबूझकर नेता प्रतिपक्ष का फैसला नए सहयोगी एचडी कुमारस्वामी को मैदान सौंपने के मकसद से नहीं कर रहा। कुमार स्वामी दो बार सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। लिहाजा भाजपा और जद (सेकु) दोनों की तरफ से सूबे की सिद्धारमैया सरकार की वे कारगर और आक्रामक घेरेबंदी कर सकते हैं। भाजपा के 66 विधायक हैं तो जद (सेकु) के केवल उन्नीस।
कौन किसके गठबंधन में गया के बीच पूर्वोत्तर से आई आवाज ने दिल्ली से किसी तरह के बंधन को नकार दिया है। जोरम पीपल्स मूवमेंट (जेडपीएम) के नेता एवं पार्टी की ओर से मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार लालदुहोमा ने कहा है कि यदि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आती है, तो वह राजग और ‘इंडिया’ दोनों में से किसी गठबंधन में शामिल नहीं होगी।
लालदुहोमा ने कहा कि उनकी पार्टी केंद्र के नियंत्रण से मुक्त एक स्वतंत्र क्षेत्रीय दल के तौर पर अपनी पहचान बरकरार रखेगी। उन्होंने समाचार एजंसी को कहा कि हम सत्ता में आने पर भी राष्टीय स्तर पर किसी समूह में शामिल नहीं होंगे। हम अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखना चाहते हैं और एक स्वतंत्र क्षेत्रीय दल बने रहना चाहते है।
हम दिल्ली के नियंत्रण में नहीं रहना चाहते। जेडपीएम केंद्र के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बना कर रखेगी। तर्कसंगत होने पर ही हम उसका समर्थन या विरोध करेंगे। जेडपीएम का गठन 2017 में दो राजनीतिक दलों और पांच समूहों ने किया था। गैर-कांग्रेसी, गैर-एमएनएफ (मिजो नेशनल फ्रंट) सरकार के नारे को भुनाते हुए पार्टी 2018 के पिछले विधानसभा चुनावों में आठ सीट जीतकर राज्य में मुख्य विपक्षी दल के रूप में उभरी।
संकलन : मृणाल वल्लरी