हम चाहे कहीं भी हों, अपने गांव में या देश के किसी भी शहर या महानगर में, जहां-तहां सड़कों-गलियों में दिखने वाले लाल धब्बों से बचते-बचाते निकलने को मजबूर होते हैं। ये गली-मोहल्ले की सड़कों, सार्वजनिक स्थलों और प्रसाधनों से लेकर बड़े-बड़े दफ्तरों तक की दीवारों को बदरंग बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। मुंह के कैंसर की बढ़ती संख्या के पीछे ऐसे ही धब्बों को तैयार करने वाले पान-तंबाकू और गुटखा होते हैं, जिनको चबाने का शौक कब मौत तक पहुंचा देता है, पता ही नहीं चलता।
यह नासमझी हमारी अर्थव्यवस्था को भी भारी चोट पहुंचाती है। सच तो यह है कि इसकी रोकटोक के लिए न तो कोई प्रभावी कानून है और न बड़ा विरोध। कभी-कभार किसी ने कुछ बोल दिया, तो सामने वाला समझाने को तैयार होता है कि छोटी-सी बात है, आप बड़ा दिल दिखाओ। बदरंग और बदबूदार इन धब्बों को रोकने के लिए दिखावटी, कागजी जतन ज्यादा, धरातल पर प्रयास कम होते हैं।
रेलवे ऐसे दाग-धब्बों को हटाने पर भारी-भरकम राशि खर्च करता है। डिब्बों, प्लेटफार्मों पर पीक के धब्बों की साफ-सफाई पर तकरीबन 1200 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। मगर यह समस्या बढ़ती ही जाती है। देश में स्थानीय निकायों तथा दफ्तरों पर ही साफ-सफाई करके इन दाग-धब्बों को हटाने का जिम्मा है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत विश्व में तंबाकू खपाने वाला दूसरा देश है। ‘ग्लोबल यूथ टोबैको सर्वे 2019’ के मुताबिक पंद्रह वर्ष से अधिक आयु के 26.7 करोड़ लोग यानी हर पांचवां भारतीय इसकी लत का शिकार है। तंबाकू और पान-गुटखा मसाला कारोबार चालीस हजार करोड़ रुपए से अधिक का है। तंबाकू उत्पादन करने वालों का संगठन बहुत सशक्त है, जिसका राजनीतिक प्रभाव साफ झलकता है।
कभी कोई बड़ी और प्रभावी कार्रवाई याद नहीं आती। गुटखा कारोबारी यह बखूबी समझते हैं। जब कभी प्रतिबंधों की बात हुई नहीं कि कालाबाजारी ऐसे बढ़ जाती है कि गुटखा कारोबारियों की जबर्दस्त चांदी हो जाती है। 25 फीसद निरक्षर और 40 फीसद साक्षर भारतीय इनके लुभावने विज्ञापनों में फंस जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े बताते हैं कि दुनिया में हर वर्ष करीब 80 लाख मौतों में 2.5 लाख तक भारतीय होते हैं। वहीं राष्ट्रीय तंबाकू नियंत्रण कार्यक्रम भी तंबाकू से प्रतिदिन 3500 लोगों की मौतों का आंकड़ा दिखाता है।
कैंसर के सत्तर फीसद से अधिक मामले मुंह के होते हैं, जिसका कारण पान-मसाला और तंबाकू है। एक शोध के मुताबिक तंबाकू चबाना, इसे खाने का सबसे खराब तरीका है, जो ज्यादा हानिकारक है। गुटखा शौकीन तीन-चार पुड़िया प्रतिदिन चबा डालते हैं। लागत के लिहाज से साल में सात से आठ हजार रुपए इसकी कीमत होती है। सारे शौकीनों की संख्या जोड़ दें तो यह रकम लाखों करोड़ पहुंचती है। अगर वर्ष 2020 का ही आंकड़ा लें तो पता चलता है कि तंबाकू और इसके उत्पादों से हुई बीमारियों पर सरकार ने 17,71,000 करोड़ रुपए खर्च किए। बदले में 1234 करोड़ रुपए के लगभग राजस्व मिला।
हालांकि इस साल भी सरकार ने हमेशा की तरह पान-मसाला, सिगरेट और तंबाकू जैसे उत्पादों पर माल एवं सेवा कर यानी जीएसटी क्षतिपूर्ति उपकर की अधिकतम दर सीमा तय करते हुए इसे खुदरा विक्रय मूल्य से भी जोड़ दिया। 1 अप्रैल, 2023 से लागू जीएसटी क्षतिपूर्ति का अधिकतम उपकर प्रति इकाई खुदरा मूल्य 51 फीसद होगा, जो गणना के हिसाब से मूल्य का 135 फीसद ज्यादा है।
यही तंबाकू पर 290 फीसद यानी प्रति इकाई खुदरा मूल्य का सौ फीसद है। यह जीएसटी की अधिकतम दर 28 फीसद के ऊपर है। निश्चित रूप से कहीं न कहीं इसे रोक पाने में सरकार की लाचारी साफ झलकती है। ऐसे में इनके उपयोग के लिए कड़े प्रतिबंधों पर विचार करना ही होगा। हो सकता है कि एक डर यह भी हो कि कहीं लोग दूसरी शक्तिशाली नशीली दवाओं की तरफ न मुड़ जाएं। हर दिन नशे के नाम पर कभी नींद की गोलियां, तो कभी खांसी की दवा की ढेरों अवैध खेप पकड़ी जाती हैं।
सिगरेट और तंबाकू से जुड़े उत्पादों के सीधे प्रचार को रोकने के लिए वर्ष 2003 में सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद (विज्ञापन का प्रतिषेध और व्यापार तथा वाणिज्य, उत्पादन, प्रदाय और वितरण का विनियमन) अधिनियम, 2003 यानी ‘कोटपा’ लाया गया। लगा कि इससे कुछ अच्छा होगा। इसमें सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान करने, खुलेआम तंबाकू से संबंधित सामग्री बेचने पर दो सौ रुपए से दस हजार रुपए तक का जुर्माना और पांच साल की कैद तक का प्रावधान हुआ।
शिक्षण संस्थानों के पास सौ गज के दायरे में बेचने, बेचने की जगह चेतावनी बोर्ड लगाने, अठारह वर्ष से कम आयु वालों को बेचने या बिकवाने, बच्चों की पहुंच से दूर रखने जैसे कानून बने। इसके अलावा, केबल टेलीविजन नेटवर्क एक्ट 1994 के माध्यम से भी सिगरेट, तंबाकू, शराब या अन्य किसी मादक पदार्थ के सीधे प्रचार पर प्रतिबंध लगा। मगर नतीजे क्या हैं, सबको पता है।
अक्सर कानून का कोई तोड़ भी निकल आता है। तंबाकू-गुटखा के विज्ञापनों पर सीधे प्रतिबंध के बाद इलायची के नाम से प्रचार शुरू हो गए। वास्तव में ये भी पान-मसाला और तंबाकू-गुटखे ही हैं। 2011 में ‘फेडरल फूड सेफ्टी एंड रेग्युलेशन एक्ट’ के तहत व्यवस्था हुई कि कोई कंपनी अपने उत्पादों में तंबाकू मिलाएगी तो प्रतिबंधित कर दिया जाएगा।
जवाब में पान मसाला और तंबाकू के अलग-अलग पाउच बनने लगे। तय समय के लिए प्रतिबंधों के तहत मई 2013 तक चौबीस राज्यों और तीन केंद्रशासित प्रदेशों में गुटखे पर रोक भी लगी, लेकिन मांग-आपूर्ति में कमी नहीं आई। अभी बीते अप्रैल में सर्वोच्च न्यायालय ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें 2003 के ‘कोटपा’ अधिनियम की अधिसूचना को साल-दर-साल अधिसूचित करने को अधिनियम 2006 के तहत चुनौती दिए जाने पर अपने फैसले में गलत बता कर जनवरी में तंबाकू उत्पादकों को राहत दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी कर उल्टा सरकार से पूछ लिया कि कोई अमृत थोड़ी बेचा जा रहा है? साथ ही यह भी कहा कि तंबाकू उत्पादों को पूरी तरह प्रतिबंधित क्यों नहीं कर देते?
क्या हम न्यूजीलैंड सरीखे सख्त कानून नहीं लागू कर सकते? न्यूजीलैंड दुनिया का ऐसा पहला देश बन गया है, जहां 2009 के बाद जन्मे लोगों को तंबाकू वाला कोई भी उत्पाद नहीं मिल पाएगा। प्रतिबंधों के बावजूद ऐसा करने वालों को डेढ़ लाख न्यूजीलैंडी डालर, यानी करीब 95,910 अमेरिकी डालर का जुर्माना भरना होगा।
धीरे-धीरे तंबाकू उत्पादों में निकोटीन की मात्रा घटेगी, आगे नब्बे फीसद खुदरा बिक्री कम होगी। वहां एक वर्ष में 56,000 लोगों ने खुद धूम्रपान छोड़ा। इससे स्वास्थ्य पर खर्च होने वाले पांच अरब डालर भी बचेंगे। पड़ोसी भूटान 2010 में सिगरेट पर रोक लगा चुका है। ब्रिटेन 2030 तक धूम्रपान मुक्त, तो कनाडा और स्वीडन जनसंख्या के पांच फीसद से भी कम करने की ठान चुके हैं।
काश, हमारी भी ऐसी कोशिशें दिखतीं, जिसमें लोग, केंद्र और राज्य सरकारों के हाकिम और हुक्मरान भी आगे दिखें। सब कुछ पुलिस और स्थानीय निकाय पर छोड़ना अच्छा नहीं है। काश इंदौर सरीखे पूरे देश में ‘नो थू थ’ और न्यूजीलैंड जैसे ‘नो टोबैको, नो स्मोकिंग’ अभियान चलता और बेचने तथा खरीदने वालों पर ही नैतिक जिम्मेदारी छोड़ी जाती, तो शायद कुछ हल निकल पाता और सड़क के लाल-पीले धब्बों की घिन से मुक्ति मिल पाती।